बांग्लादेश : इतिहास के दोराहे पर

Last Updated 04 May 2016 05:06:24 AM IST

बांग्ला के जाने-माने कवि काजी नजीरुल इस्लाम ने एक कविता लिखी थी-‘भोय कोरिबो ना, हे मानोबता.’ लेकिन इस महान कवि की धरती पर आज भय व्याप्त है.


इतिहास के दोराहे पर

हाल ही में 25 अप्रैल को बांग्लादेश में समलैंगिकों की पहली पत्रिका के संपादक जुलहास मन्नान की धारदार हथियार से हत्या कर दी गई . ये हमला राजधानी ढाका के एक अपार्टमेंट में घुस कर किया गया और इस दौरान अन्य व्यक्ति भी मारा गया. इससे पहले 23 अप्रैल को राजशाही यूनिर्वसटिी के एक प्रोफेसर की गला रेत कर हत्या कर दी गई. इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने प्रोफेसर सिद्दीक़ी की हत्या की जिम्मेदारी ली है. प्रो. सिद्दीक़ी की हत्या बांग्लादेश में नास्तिकता का समर्थन करने के लिए की गई. इससे कुछ ही दिन पहले आतंकवादियों ने कानून के एक छात्र नजीमुद्दीन समद की हत्या कर दी. वह कट्टरपंथी इस्लामवादियों का घोर आलोचक था.

इन दिनों बांग्लादेश में सेकुलर ब्लागरों और लेखकों की शामत आई हुई है. आतंकवादियों ने पिछले वर्ष पांच धर्मनिरपेक्ष लेखकों तथा एक प्रकाशक की हत्या की थी. लेकिन ब्लॉगर ही क्यों बहुत सारे अल्पसंख्यक भी इसमें शामिल हैं. पिछले दिनों इस्लामिक स्टेट से जुड़े आतंकवादियों ने उत्तरी बंगाल में मंदिर में घुसकर पुजारी का सिर काट डाला. उत्तरी बंगाल में ही नमाज पढ़ते हुए पांच शियाओं की गोली मारकर हत्या कर दी गई. इस्लामिक स्टेट से जुड़े एक संगठन ने इसकी जिम्मेदारी ली है.

इन हत्याओं की सूची बहुत लंबी है और इसकी जड़ें धार्मिंक कट्टरपंथ में छिपी हैं. बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठन किसी भी धर्मनिरपेक्ष लेखक, ब्लागर या प्रकाशक को बर्दाश्त नहीं कर सकते. कट्टरपंथी संगठनों का असर बढ़ने की वजह से हाल में ईसाई तबके के लोगों पर भी हमले के मामले बढ़े  हैं. वर्ष 2013 में अल कायदा के सहयोगी संगठन अंसारु ल्लाह नामक एक कट्टरपंथी संगठन ने 84 धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगरों की एक हिट-लिस्ट प्रकाशित की है. इनमें उन सभी लोगों के नाम शामिल थे, जो अपनी लेखनी के जरिए धार्मिंक समानता, महिला अधिकार और अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठाते रहते हैं. सरकार को शक है कि तमाम ब्लॉगरों की हत्याओं के पीछे इसी संगठन का हाथ है. बावजूद इसके सरकार के साथ-साथ तमाम राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है.

जिहादियों ने सनसनी तो फैला दी, लेकिन ब्लॉगरों के लेखन पर रोक लगाने में कामयाब नहीं हुए क्योंकि ब्लागर भी बांग्लादेश में एक ताकत, एक आंदोलन बन चुके हैं. इसकी शुरुआत हुई थी फरवरी 2013 में जब शाहबाग के प्रदशर्नकारियों ने बांग्लादेश के इतिहास को एक नया मोड़ दिया था. ढाका का शाहबाग चौक. बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष का पहला बलिदान स्थल. फरवरी 2013 में जब बांग्लादेश में बांग्ला मुक्ति संघर्ष के युद्ध अपराधियों को लेकर उथल-पुथल मची थी, तब ढाका की सड़कों पर एक जनसैलाब उमड़ा.

उनकी मांग थी-1971 के युद्ध अपराधियों को फांसी दी जाए. बांग्लादेश के शिक्षित युवा पाकिस्तानी सेना, जमात के गुगोंर और रजाकारों द्वारा की गई लाखों बंगालियों की हत्या और लाखों बलात्कारों को भूलने को तैयार नहीं थे.

इसी बीच, आंदोलन का नेतृत्व कर रहे ब्लागर्स में से एक अहमद रजीब हैदर की हत्या कर दी गई. हत्यारे जमाते इस्लामी से संबंधित थे. रजीब के खून ने आंदोलन को और ताकत दी. 21 फरवरी को शाहबाग आंदोलन विसर्जित हुआ और 22 फरवरी को जमाते इस्लामी ने लाठियों, तलवारों और पेट्रोल बमों के साथ मोर्चा खोल दिया.

ढाका की बैतल इस्लाम मस्जिद के सामने जालीदार टोपियां पहने, दाढ़ियां लहराते हजारों युवा प्रकट हुए. ये मदरसों और दूसरे इस्लामिक संस्थानों से निकली हुई भीड़ थी जो कुछ भी सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं थी. बांग्लादेश के दूसरे शहर भी इसकी चपेट में आने लगे. शाहबाग के प्रदर्शनकारी फिर शाहबाग चौक पर इकट्ठे होने लगे. इस घटनाक्रम ने बांग्लादेश के समाज और राजनीति में उथल-पुथल मचा दी.

राजनीतिक दलों के शत्रुतापूर्ण विरोध के कारण बंगाल की राजनीति उबल रही है. दूसरी तरफ सेकुलरिज्म बनाम इस्लामवाद का संघर्ष तेज हो रहा है. एक तरफ है, ‘आमार बांग्ला, सोनार बांग्ला’ तो दूसरी तरफ है-‘आमार सोबोई तालिबान, बंगला होबे अफगानिस्तान.’यानी हम सभी हैं तालिबान बांग्लादेश होगा अफगानिस्तान. एक रात सड़क पर मशालों और मोमबत्तियों का सैलाब दिखाई देता है, तो दूसरे दिन उसी सड़क पर तलवार और चाकू चमकते हैं.

वैसे ऐसे विश्लेषकों की भी कमी नहीं है, जो मानते हैं कि शायद सत्ताधारी आवामी लीग और प्रधानमंत्री हसीना के लिए ब्लॉगरों की हिटलिस्ट और ब्लागरों की मौत विपक्ष को खत्म करने का अच्छा राजनीतिक मौका है. और क्या युद्ध अपराधियों के खिलाफ लिख रहे ब्लॉगर अनजाने में सरकार की कठपुतलियां बन गए हैं. सरकार उनकी मौत का जिम्मेदार विपक्ष को बनाकर अपने राजनीतिक मकसद पूरा कर रही है. राजनीति के ये अंतर्विरोध अपनी जगह हैं. मगर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि बांग्लादेश आज वैचारिक दोराहे पर खड़ा है-उसकी बंगाली पहचान बड़ी है या मुस्लिम पहचान. जब तक इस मामले में कोई निर्णायक फैसला नहीं होता, तब तक यह खूनी खेल जारी ही रहनेवाला है. बचाव यही है धर्मनिरपेक्षता को हुकूमत में लोकतांत्रिक निष्ठा से प्रतिपादित किया जाए.

सतीश पेडणोकर
लेखक


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