जब सूखे से हो सामना

Last Updated 02 May 2016 06:15:13 AM IST

लगातार दो वर्षो यानी 2014-15 और 2015-16 में सूखे ने भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहद बुरी तरह प्रभावित किया है.


जब सूखे से हो सामना

फसल चौपट हो जाने के कारण के अनेक क्षेत्रों में किसानों की खासी आर्थिक क्षति हो चुकी है. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. किसानों की आमदनी गिरने से अर्थव्यवस्था में कुल प्रभावी मांग भी खासी प्रभावित हुई है. इससे अर्थव्यवस्था की समग्र वृद्धि शिथिल पड़ गई है. अनेक स्थानों पर पेयजल और पशु चारे की बेहद कमी हो गई है. गांवों में जीवन-स्थितियां इस कदर कठिन हो गई हैं कि उनसे पार नहीं पाया जा रहा. 2015-16 के मॉनसून सीजन यानी एक जून से 30 सितम्बर के दौरान सामान्य औसत वर्षा 887.5 मिमी. के विपरीत मात्र 760.6 मिमी. औसत वर्षा दर्ज की गई.

दूसरे शब्दों में मॉनसून सीजन में वर्षा में लगभग 14 प्रतिशत की कमी रही. मॉनसून बाद के सीजन में भी देश में औसत वर्षा लगभग 23 प्रतिशत कम थी. तेलंगाना, मराठवाड़ा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल, गुजरात, पूर्वी मध्य प्रदेश, पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब और हिमाचल में मॉनसून सीजन में वर्षा, जो खरीफ की फसल को प्रभावित करती है, 20 से 59 प्रतिशत कम रही. मॉनसून बाद यानी अक्टूबर से दिसम्बर, 2015 के दौरान मध्य भारत में लगभग 63 प्रतिशत कम बारिश हुई. इस दौरान पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में यह 58 प्रतिशत कम थी. उत्तर-पश्चिम भारत में 26 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई. इस प्रकार देश के ज्यादातर भाग सूखे से प्रभावित हुए.

भारत मौसम विभाग ने 2016 का आगामी मॉनसून सीजन अच्छा रहने की भविष्यवाणी की है. उसका आकलन है कि जून से सितम्बर के दौरान बारिश का मासिक वितरण भी अच्छा रह सकता है. इससे किसानों और अन्य ग्रामीणों को कुछ राहत मिल सकेगी. लेकिन बीते दो वर्षो के दौरान लगातार पड़े सूखे से हो चुके नुकसान और विकास में आई शिथिलता की भरपाई कठिन होगी. यकीनन कठिनाई के हालात कमोबेश बने रहने हैं. 15 फरवरी, 2016 में जारी कृषि मंत्रालय के दूसरे अग्रिम आकलन के मुताबिक, खरीफ सीजन में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 4 मिलियन टन कम है, लेकिन 2015-16 के रबी सीजन में खाद्यान उत्पादन में कोई कमी नहीं थी.

2015-16 में समग्र खाद्यान्न उत्पादन 2014-15 के खाद्यान्न उत्पादन 252.02 मिलियन टन से थोड़ा बढ़कर 253.16 मिलियन टन रहने का अनुमान है. अलबत्ता, यह 2013-14, जो एक सामान्य वर्ष था, की तुलना में लगभग 12 मिलियन टन कम है. गन्ना उत्पादन में बीते वर्ष की तुलना में लगभग 15.9 मि. टन तथा कपास के उत्पादन में इसी अवधि में 4.1 बिलियन टन की कमी रही. हालांकि, खाद्यान्न उत्पादन की वृहद् स्तर पर स्थिति इतनी बुरी नहीं है, लेकिन सूखाग्रस्त क्षेत्रों में किसान लाचार हैं. जो थोड़े समृद्ध थे, वे साहूकारों के चंगुल में फंसने को विवश हो गए, लेकिन छोटे-सीमांत किसानों को तो कोई शरण भी नहीं मिली. इनके सामने खाद्य, पेयजल और पशुओं के चारे की घोर कमी है. बीते कुछ महीनों में औसत तापमान सामान्य से काफी ऊंचा रहा है. इससे पानी का वाष्पीकरण बढ़ता है और पेयजल का संकट गहरा जाता है.



इसके अलावा, सिंचित क्षेत्रों में किसानों ने सिंचाई बढ़ाकर फसल तो बचा ली, लेकिन उनकी उपज की उत्पादन लागत बढ़ गई है. अगर सामान्य स्थितियां रहतीं तो उनका लाभार्जन कहीं ज्यादा रहता. लेकिन बाजार भी तमाम अनियमितताओं से ग्रस्त है, किसानों को प्राय: उत्पादन लागत से भी कम दाम पर उपज बेचनी पड़ती है. व्यापारी अभाव के इस स्थिति का फायदा अपने हित में उठाने की गरज से तनिक भी देर नहीं लगाते. किसानों को पैदावार का कम दाम मिलता है, लेकिन उपभोक्ताओं को बाद में ऊंचे दाम पर खाद्यान्न खरीदने पड़ते हैं. दुखद ही तो है कि किसान को कम दाम मिलता है, और उपभोक्ता से ज्यादा दाम वसूल लिया जाता है.

उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर समुचित कार्य योजना बनाया जाना जरूरी है. साथ ही, अल्पकालिक और दीर्घकालिक समाधानों के मद्देनजर इस प्रकार की कार्य योजना का अच्छे से क्रियान्वयन भी जरूरी है. अल्पकालिक उपाय के रूप में सूखा-पीड़ित क्षेत्रों के किसानों और अन्य लोगों में प्रत्येक परिवार को तत्काल एक लाख रुपये तक ब्याज-मुक्त सांस्थानिक ऋण मुहैया कराया जाना चाहिए. दीर्घकालिक उपाय के तौर पर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, वॉटरशेड डवलपमेंट, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट जैसी योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन किया जाना चाहिए ताकि सूखे के कारण किसानों और अन्य ग्रामीणों पर टूटे आर्थिक कहर को कम से कम करने में मदद मिल सके.

इसके अतिरिक्त, जरूरी है कि लोगों को वर्षा जल संचयन और उसके अच्छे से उपयोग की दिशा में जागरूक किया जाए. किसानों को जागरूक और प्रोत्साहित किया जाए ताकि वे ज्यादा जल-उपयोग करने वाली धान और गन्ना जैसी फसलों के स्थान पर दलहन, तिलहन, मोटे अनाज वगैरह की फसलों की खेती करें. इसके साथ ही, खेती की एसआरआई विधि, जिसमें कम पानी की जरूरत होती है, जैसी संरक्षण/रक्षण वाली खेती को प्रोत्साहित किया जाए. सिंचाई के लिए पानी के युक्तिसंगत दाम रख कर पानी के सदुपयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है. सिंचाई के फ्लड तरीके के स्थान पर ड्रिप, स्प्रिंकलर आदि का इस्तेमाल कारगर रहेगा. आखिर में कहना यह कि नये तालाब बनाने और टैंकों के नवोन्मेषन कार्य में मनरेगा को जरिया बनाया जाए. इससे जल संरक्षण हो सकेगा. अतिरिक्त रोजगार सृजन होगा और ग्रामीण गरीबों की आय बढ़ सकेगी. मौजूदा सरकार इस दिशा में कदम उठा रही है. इन उपायों के परिणाम कुछ दिनों में मिलने की उम्मीद है. अलबत्ता, जन-हितैषी कुछ केंद्र-प्रायोजित योजनाओं के क्रियान्वयन में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कारगर समन्वय की जरूरत है.
 

 

 

टी. हक
लेखक और कृषि अर्थशास्त्री


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