ट्रैक बदलने की जरूरत
नई दिल्ली में चल रही \'हार्ट ऑफ एशिया कान्फ्रेंस\' से इतर भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव 26 अप्रैल 2016 को वार्ता की मेज पर एक साथ पुन: बैठे और करीब पौने दो घंटे तक बातचीत भी की.
भारत पाक वार्ता (फाइल फोटो) |
दोनों के बीच कई दौर की बेनतीजा रही बातचीत के बावजूद एक बार पुन: दोनों देशों के प्रतिनिधि यदि एक साथ बैठे हैं, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह दोनों देशों और उनकी अवाम के हितों के अनुरूप है. लेकिन संतुष्टि केवल इतने भर से ही नहीं हो जानी चाहिए बल्कि यह भी देखना चाहिए कि आखिर दोनों तरफ से जो विषय प्रस्तुत किए गए वे क्या थे?
अंतत: वार्ता का नतीजा क्या रहा? यानी कोई सार्थक परिणाम आया अथवा एक और वार्ता के लिए सिर्फ रास्ता बना? क्या इस वार्ता में कुछ ऐसा भी दिखा कि पाकिस्तान ने अपनी परम्परागत रास्तों से हटकर बातचीत करने के मनोविज्ञान का प्रदर्शन किया है या वह अब भी अतीत के उस सिण्ड्रोम से ग्रसित है जो उसके मस्तिष्क में भारत के खिलाफ युद्ध की स्थितियों का निर्माण करता रहता है? दुर्भाग्य से यह अब भी जारी है.
क्या वह उन मुद्दों पर मुक्त रूप से वार्ता करने के लिए तैयार है जो भारत की आंतरिक सुरक्षा और सामरिक चिंता का कारण बने हुए हैं? एक सवाल यह भी है कि क्या भारत स्वयं उन मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से पेश करने में सफल रहा जिन्हें लेकर दोनों देशों के बीच युद्धोन्मादी वातावरण निर्मित होता है या वार्ताएं टलती हैं अथवा किसी सार्थक परिणाम तक नहीं पहुंचती? यदि नहीं तो फिर इस वार्ता से क्या निष्कर्ष निकाले जाएं? बस सिर्फ इतना ही कि दोनों देशों के प्रतिनिधि साथ बैठने में सफल हुए? अगर ऐसा है तो क्या अब इस बात पर विचार नहीं होना चाहिए कि यदि राजनय का परम्परागत ट्रैक यदि परिणाम देने में असमर्थ साबित हो रहा है तो फिर उसे बदलने की कोशिश हो?
मंगलवार को दोनों देशों के विदेश सचिवों के बीच हुई वार्ता में पाकिस्तान की तरफ से विरोधाभासी बयान आए, जिनसे तकनीकी तौर पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पाकिस्तान अब भी उसी सिण्ड्रोम का शिकार है, जिसका वह 1946-47 में रहा था. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के विदेश सचिव एजाज अहमद चौधरी ने अपने भारतीय समकक्ष एस जयशंकर के साथ बातचीत में जहां एक तरफ यह कहा कि उनका देश भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते बहाल करने के लिए वचनबद्ध है, वहीं दूसरी तरफ वह यह कहना नहीं भूले कि भारत-पाक के बीच विवाद का असल मुद्दा अगर कुछ है, तो वह है कश्मीर.
वास्तव में बातचीत के दौरान उनके तेवर कुछ ऐसे थे कि जैसे वे वर्ष 2016 में नहीं बल्कि वर्ष 1946-1947 में बात कर रहे हों. इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि पाकिस्तान वार्ताओं को किसी निष्कर्ष तक ले जाने देना नहीं चाहता. कश्मीर सिण्ड्रोम के कारण वह मेलजोल के हर मौके को खींच कर 1947 के तुरंत बाद के दिनों में ले जाने की कोशिश करता है, जब कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में उठा था. इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि कश्मीर की स्थिति 1947 से लेकर 2016 तक पहुंचते-पहुंचते पूर्णत: बदल गयी है. वहां सामान्य निर्वाचन प्रक्रिया के जरिए सरकार का चुनाव होता है और चुनी हुई सरकारें शासन करती हैं. लेकिन पाकिस्तान इस सच्चाई को स्वीकार ही नहीं करना चाहता, जिसके चलते वह आजादी के बाद से लेकर अब तक भारत के साथ कभी प्रत्यक्ष और कभी छद्म युद्ध लड़ता है.
फिलहाल कोई वार्ता सफल रही या असफल, इस निष्कर्ष पर तत्काल पहुंचना उचित नहीं लगता, बल्कि इसे आगे बढ़ने वाले कूटनीतिक कदमों पर छोड़ दिया जाना चाहिए. 26/11 के आतंकवादी हमले के सात साल बाद पिछले वर्ष 9 दिसम्बर को भारत और पाकिस्तान \'समग्र द्विपक्षीय वार्ता\' को फिर से शुरू करने के लिए सहमत हुए थे. लेकिन 2 जनवरी को पठानकोट एयर बेस पर आतंकवादी हमले के कारण यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई. लेकिन दोनों देशों के आम लोग चाहते हैं कि अब इन सिलसिलों के निष्कर्ष भी निकलें. कोई दिशा मिले. ऐसा तभी संभव है, जब दोनों देश कूटनीतिक मुद्दों पर आर्थिक व सांस्कृतिक सम्बंधों को अधिक तरजीह दें तथा एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करें जिससे पीपल-टू-पीपल कनेक्टिविटी बढ़े और पाकिस्तान का मनोविज्ञान को बदलने में सफलता मिले. इस दिशा में आगे बढ़े बिना परिणामों की अपेक्षा करना वास्तविकता की अनदेखी मानी जाएगी और वार्ताओं को एक कूटनीतिक औपचारिकता अथवा विवशता.
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