कार्रवाई का सूखा

Last Updated 01 May 2016 05:53:36 AM IST

भारत में सूखा ऐसे समय के रूप में बयां किया जाता था, जब जुनूनी अंदाज में राहत कार्य आरंभ कर दिए जाते थे.


कार्रवाई का सूखा

बड़े स्तर पर सार्वजनिक कार्य किए जाते थे, जिनमें किसी एक जिले में एक लाख से ज्यादा कामगारों को काम दे दिया जाता था. कार्य नहीं करने योग्य बेकसों को खाद्य सामग्री वितरित की जाती थी. ऋण राहत, पशु शिविर, जलापूर्ति और अन्य तमाम राहतों के लिए बंदोबस्त किए जाते थे. महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान जैसे पश्चिमी राज्यों में सूखा राहत के तौर-तरीके सबसे अच्छे तरीके से सिरे चढ़ाए जाते थे, लेकिन बुनियादी ढांचा अन्य सभी जगहों पर भी उन जैसा ही होता था, भले ही कार्यान्वयन में कुछ कमी रह जाती हो. 

इस वषर्, उस मयार की संजीदगी दिखलाई नहीं पड़ रही. हालांकि देश के 256 जिलों को सूखा-पीड़ित घोषित कर दिया गया है. बेशक, कुछ हद तक लोगों की अपने स्तर पर सूखा का सामना करने की क्षमता में भी इजाफा हो चुका है; उनकी आय बढ़ी है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विविधता आई है, और जलापूर्ति सुविधाओं में सुधार हुआ है. इतना ही नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत में सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की एक आकृति भी उभर आई है, जिसके साथ सामाजिक सुरक्षा पेंशन, मिड-डे मील, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और महात्मा गांधी नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारंटी स्कीम (मनरेगा) जैसे स्थायी आय में सहायक उपाय भी राहत देने का सबब बन गए हैं. इनसे भी सूखा पड़ने के वर्षो के दौरान विशेष राहत उपायों पर लोगों की निर्भरता में कमी आई है.

इन तमाम कारकों से सूखे की स्थिति में सक्रिय हस्तक्षेप की जरूरत खारिज नहीं हो जाती. तेज आर्थिक विकास और कुछ पात्रताओं या हकदारियों के बावजूद भारत के गरीब ग्रामीण आज भी भयावह वंचना और असुरक्षा का जीवन जीने को विवश हैं. कुछ मामलों खासकर पानी की कमी के चलते सूखे का उन पर बहुत बुरा असर पड़ता है. उतना पहले नहीं पड़ता था. बुंदेलखंड और अन्य जगहों से मिलीं हालिया खबरों से पुष्टि होती है कि आपातकालीन सहायता के बिना सूखा लाखों लोगों  के जीवन को असहनीय संकट में धकेले दे रहा है.

कुछ हद  तक जरूरी हस्तक्षेप की प्रकृति भी बदल चुकी है. सूखे की स्थिति में लोगों को भुखमरी से बचाने का सबसे आसान तरीका आज यह है कि पूर्व में उल्लिखित स्थायी आय बढ़ाने में सहायक उपायों जैसे कि मनरेगा, पीडीएस के तहत खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने और स्कूल में भोजन मुहैया कराने के बेहतर बंदोबस्त पर ज्यादा तवज्जो दी जाए. भले ही इस बाबत प्रयास पर्याप्त न हों लेकिन अच्छी शुरुआत तो होंगे ही.

मनरेगा के लिए धन की कमी
लेकिन ऐसा होने के संकेत दिखलाई नहीं पड़ रहे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मनरेगा ने 2015-16 में 230 करोड़ कार्यदिवस मुहैया कराए. इस कारण से यह योजना उसी स्तर पर पहुंच गई जहां यह 2014-15 में 166 करोड़ कार्यदिवस के साथ थी, जब नई सरकार ने केंद्र में सत्ता संभाली थी. लेकिन वित्त मंत्री ने मनरेगा में इस सुधार को संबल नहीं दिया. इसके लिए आवंटन नहीं किया गया. नतीजतन, 2015-16 के आखिर में बकाया का अंबार-12 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा-लग गया. इसके बावजूद वित्त मंत्री ने अपनी अनकही नीति (पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई) जारी रखते हुए मनरेगा बजट को साल दर साल धन के लिहाज से कमोबेश स्थिर बनाए रखा. अगर पिछले साल का रोजगार स्तर इस वर्ष भी बनाए रखना है, तो केंद्र सरकार को कम से कम 50 हजार करोड़ रुपये व्यय करने होंगे. और अगर बकाया का भी भुगतान करना चाहती है, तो उसे 60 हजार करोड़ रुपये व्यय करने हैं.

कानूनन सरकार बकाया का भुगतान करने को बाध्य है क्योंकि मनरेगा के तहत प्रावधान है कि कामगारों को उनके कार्य का पंद्रह दिनों के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए. इसके बावजूद मनरेगा के लिए इस बार बजट में मात्र 38,500 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. सरकार बड़े स्तर पर धन मुहैया कराने को तैयार नहीं होती तो मनरेगा के तहत रोजगार पर फिर से ठेके सरीखे रुजगार बन जाने की आशंका मंडराने लगेगी, या मजदूरी को स्थगित करना पड़ेगा-दोनों ही स्थितियों में सूखे के इस साल में यह किसी तबाही से कम नहीं होगा. न केवल इतना बल्कि इससे कानून के तहत लोगों को प्राप्त अधिकारों की भी उल्लंघना होगी.

खाद्य सुरक्षा के मामले में निराशा
इस बात में दम है कि पीडीएस मनरेगा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सूखा राहत का महत्त्वपूर्ण उपाय है. हर महीने पीडीएस के तहत मिलने वाला राशन मनरेगा कार्य की तुलना में कहीं ज्यादा नियमित और पूर्व-अनुमानित है. फिर, इससे ग्रामीण आबादी के ज्यादा बड़े हिस्से-राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत 75 प्रतिशत जनसंख्या आती है-को लाभान्वित किया जाता है. अच्छे से क्रियान्वित किया जा रहा पीडीएस भूख और भुखमरी के खिलाफ एक प्रमुख कवच है.

बहरहाल, आज भारत बेहतर स्थिति में है कि उसके पास सार्वजनिक समर्थन का मजबूत और टिकाऊ आधार है. इसे सूखे के इस साल में भूख और भुखमरी से बचाव में इस्तेमाल किया जा सकता है. नफा-नुकसान बेशक अपनी जगह हैं. लेकिन लाखों लोग, जो सूखे के कारण घोर मुसीबतों के रूबरू हैं, कीमत ही तो चुका रहे हैं-बेशकीमती मानवीय जीवन और परिसंपत्तियों के रूप में. उनके भावी जीवन को गरीबी से बचाए रखना जरूरी है.

ज्यां द्रेज
विजिटिंग प्रोफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ इकनॉमिक्स, रांची यूनिवर्सिटी


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