जल विकास योजना से बनेगी बात
देश में सूखा के भीषण हालात बन गए हैं. नौ राज्य सूखाग्रस्त की श्रेणी में आ गए हैं. कई अन्य में भी सूखा का प्रकोप है.
जल विकास योजना से बनेगी बात |
मौसम विभाग की सामान्य से बेहतर मॉनसून रहने की भविष्यवाणी फौरी तौर पर कुछ राहत का अहसास करा सकती है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि यह अनुमान कसौटी पर खरा उतर पाएगा. मान भी लिया जाए कि अनुमान के मुताबिक इस बार सामान्य से अधिक बारिश होगी तो इसका आशय यह कतई नहीं है कि इससे किसानों का भला हो जाएगा. पुराने आंकड़ों पर गौर करें तो कई बार देश में मॉनसूनी बारिश 100 फीसद अथवा इससे भी अधिक हुई है, लेकिन ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव से यह निरंतर रूप से नहीं हो पाई. कई बार शुरुआत में अच्छी बारिश हो जाती और बीच में लंबे अंतराल तक यह गायब हो जाती है. कई बार मॉनसून के सीजन की शुरुआत में सूखा की स्थिति बन जाती और अंतिम सत्र में लगातार तेज बारिश हो जाती है. इसका दुष्प्रभाव यह होता है कि मॉनसून पर आधारित देश की 55 फीसद भूमि पर उम्मीद के अनुरूप पैदावार नहीं हो पाती.
भयावह हालात
वर्ष 1966 और 1967 में भीषण सूखा पड़ा था. लेकिन तब इस तरह का पेयजल का संकट और पशुधन की हानि नहीं देखी गई थी. इस साल महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, और कर्नाटक भीषण सूखे की चपेट में हैं. मध्य और दक्षिण भारत का कुछ हिस्सा सूखे की तपिश झेल रहा है, लेकिन दक्षिण और पश्चिम के पठार में हालात ज्यादा भयावह हो गए हैं. फिलहाल, यहां खेतीबाड़ी तो दूर लोगों के लिए पेयजल तक मयस्सर नहीं हो पा रहा. चारे और पानी के अभाव में पशुधन काल के अकाल में समा रहा है. लोगों को राहत पहुंचाने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं, वे गर्म तवे पर पानी के छींटे मारने के समान हैं. इन उपायों से पीड़ितों का कोई खास भला नहीं होने वाला है. हैरानी बात यह है कि मराठवाड़ा और बुंदेलखंड जैसे कई इलाके आए साल सूखे की चपेट में आते हैं, लेकिन अभी तक किसी भी सरकार ने इससे निजात पाने के लिए कोई स्थायी कदम नहीं उठाएं हैं.
फसल की बरबादी
सूखा पीड़ित इलाकों में इस बार रबी की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई है. बारिश के अभाव में कई जगह तो किसान फसल की बुवाई ही नहीं कर पाए थे. कुछ स्थानों में किसानों ने किसी तरह से फसल की बुवाई तो कर दी, लेकिन वह उपज कर खड़ी नहीं हो पाई. कहने का आशय है कि इन इलाकों में बारिश की बेरुखी, तालाब और ट्यूबवेलों के सूख जाने से बड़ी संख्या में किसानों को मेहनत तो दूर बीज की बुवाई के दाम भी नहीं मिल पाए. मराठवाड़ा में प्रमुख फसल अंगूर के बाग पूरी तरह सूख गए हैं. इन बागों में इस समय फल आने चाहिए थे. सूखे की वजह से यहां अब सिर्फ ठूंठ ही नजर आ रहे हैं. कहने को सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए फसल बीमा योजना शुरू की है, लेकिन वह खरीफ की फसल से शुरू होगी. जाहिर है कि इसके जरिए रबी फसल के नुकसान की भरपाई नहीं हो पाएगी. स्थानीय स्तर पर राहत की कोई योजना बनती है, तो उससे कितने लोगों का और कितना भला हो पाएगा, बताने की जरूरत नहीं है. चिंता की बात यह है कि मौजूदा परिदृश्य में इन इलाकों में खरीफ की फसल तैयार हो पाएगी, कह पाना मुश्किल है. भले ही इस बार मॉनसून 106 फीसद रहने का अनुमान है, लेकिन स्थानिक रूप से बारिश वितरण एक समान नहीं होता है. बानगी के तौर पर सूखा पीड़ित क्षेत्र में यदि समय पर बारिश नहीं हुई तो वहां हालात और ज्यादा खराब हो सकते हैं. ऐसे में बहुत कुछ मॉनसून के रुख पर निर्भर करेगा. कहां, कब और कितनी बारिश होगी, यह अहम सवाल है.
उपायों का अभाव
सूखा की समस्या से निपटने के लिए सरकार के पास बहुत ही कम विकल्प हैं. उदाहरण के तौर पर एक एकड़ भूमि में औसत 16 क्विंटल गेहूं की पैदावार होती है. मौजूदा भाव पर इस उपज की कीमत 24,000 रुपये बनती है. यदि सूखा पड़ने से यह फसल बरबाद हो जाती है तो सरकार की ओर से अधिकतम तीन से चार हजार रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा दिया जाता है. खास बात यह है कि मुआवजा नुकसान की भरपाई के लिए नहीं दिया जाता बल्कि इसके पीछे सरकार की सोच रहती है कि इस रकम से किसान अगली फसल के लिए खाद व बीज का इंतजाम कर लेगा. लेकिन जिन इलाकों में सूखा की वजह से रबी की फसल बोई ही नहीं गई; वहां के किसानों का क्या होगा? वह अपनी अगली फसल कैसे बो पाएंगे, बच्चों की फीस, दवा आदि का इंतजाम और पशुधन की हानि की भरपाई कैसे होगी, इस सवाल का जवाब फिलहाल तो नहीं मिलता दिख रहा है. कुल मिलाकर सरकार के पास इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए कोई कारगर योजना नहीं है. फसल बीमा योजना को लेकर दावे तो काफी बड़े-बड़े किए जा रहे हैं, लेकिन यह कितनी कारगर साबित हो पाएगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा.
ठोस योजना जरूरी
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे यहां सूखा की समस्या बेहद जटिल है. यदि सरकार इस पर काबू पाने की ठान ले तो यह कोई नामुमकिन काम नहीं है. इंदिरा नहर योजना का उदाहरण सबके सामने है. वि की सबसे लंबी इस नहर के निर्माण से राजस्थान के हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, बीकानेर और जोधपुर के रेतीले इलाकों में फसलें लहलहा रही हैं. इससे राजस्थान और गुजरात के कई इलाकों में पेयजल की समस्या काफी हद तक दूर हो गई है. फसलों की पैदावार में कई गुना का इजाफा हुआ है. जब रेतीले इलाकों में यह योजना सफल हो सकती है, तो मराठवाड़ा और बुंदेलखंड के सूखाग्रस्त इलाकों के लिए इस तरह के प्रयास आखिर क्यों नहीं किए जा रहे? सरकार को सूखे की समस्या पर काबू पाना है, तो इसके लिए ‘समग्र जल विकास योजना’ शुरू करने की जरूरत है. योजना के तहत सूखा पीड़ित क्षेत्रों को तीन-चार श्रेणियों में चिह्नित किया जाए. पहली श्रेणी में ऐसे क्षेत्रों को शामिल किया जाए जहां सूखा की समस्या प्राय: बनी रहती है. इन इलाकों में जल भंडारण के ठोस उपाय किए जाएं. साथ ही पूरे भारत में जल की एटलस बनाई जाए. लंबित 300 से अधिक योजनाओं को जल्द से जल्द पूरा किया जाए. पूर्वी भारत, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और सभी पूर्वोत्तर राज्यों के लिए लघु सिंचाई योजनाओं के व्यापक उपाय किए जाएं. इससे इन इलाकों में फसलों की पैदावार में गुणोत्तर वृद्धि हासिल की जा सकती है.
बेजा दोहन पर अंकुश
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध था. इन इलाकों में गेहूं, गन्ना, और धान जैसी ज्यादा पानी की जरूरत वालों फसलें लगातार बोने से यहां भूजल स्तर खतरनाक स्तर तक नीचे चला गया है. यहां गेहूं और धान की बहुतायत मात्रा में बुवाई की जाती है, जिसे लगातार बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत पड़ती है. यही स्थिति गन्ना की खेती की है. सरकार को ऐसे इलाकों में पानी के बेजा दोहन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है. साथ ही, यहां किसानों को ज्वार, बाजरा, मक्का और दलहन जैसी फसलों की बुवाई के लिए प्रोत्साहित किया जाए. साथ ही, इन फसलों को उचित मूल्य पर खरीदने की व्यवस्था भी की जाए. फसल चक्र बदलने से खेती की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी और भूजल स्तर को व्यवस्थित करने में मदद मिलेगी. साथ ही, दलहन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आएगी. अभी तक सरकार सालाना करीब 40 लाख टन दलहन का आयात करती है. इस वजह से अरहर, मूंग और उड़द जैसी दालों के भाव 150 रुपये से ऊपर पहुंच गए हैं. यदि इस दिशा में साफ नीयत के साथ कदम उठाए जाएं तो निश्चित रूप से जल्द ही सकारात्मक परिणाम आने शुरू हो जाएंगे.
सिंचाई के साधन
हमारे यहां अब भी करीब 55 फीसद खेतीबाड़ी मॉनसून के भरोसे है. समय पर बारिश हो गई तो किसान को कुछ आमदनी हो गई वरना लागत मिलना भी मुश्किल हो जाता है. देशभर में सिंचाई के साधन विकसित करने के लिए अगले दस साल में छह लाख करोड़ रुपये की जरूरत है. इसके जरिए जल विकास योजना शुरू की जाए. इसका खाका मैंने अपने कृषि मंत्री के कार्यकाल में तैयार किया था. इसके लिए अगले दस साल तक प्रति वर्ष 60,000 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी. इसमें केंद्र और राज्यों को 30-30 हजार रुपये का योगदान करना चाहिए. यदि इस व्यापक योजना पर अमल शुरू हो जाए तो देश में सालाना 15 से 18 करोड़ टन अनाज की अधिक पैदावार की जा सकती है. इससे किसानों की आय में अच्छा खासा इजाफा हो सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की क्रयशक्ति बढ़ेगी. मांग में इजाफा होने से कारखानों में ज्यादा उत्पादन होगा. जाहिर तौर पर रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे.
..तो दूर होगी गरीबी
ऐसे में सरकार को किसानों को झांसा देने के बजाय राष्ट्र हित में जल विकास योजना की दिशा में जल्द कदम उठाने चाहिए. चालू वित्त वर्ष के बजट में कहने को सरकार ने सिंचाई के साधन विकसित करने के लिए 17,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है. यदि तह में जाकर देखा जाए तो इस मद में वास्तविक आवंटन 1024 करोड़ रुपये ही किया गया है. इसमें भी 40 फीसद धनराशि बाढ़ नियंत्रण के लिए है. इस तरह, कुल 600 करोड़ रुपये ही बचते हैं जबकि सालाना 60,000 करोड़ रुपये की जरूरत है. ऐसे में जो काम एक साल में होना चाहिए उसे पूरा होने में 100 साल लगेंगे. जो काम दस साल में पूरा होना था, उसे 1000 साल लग जाएंगे. इस तरह बजट में सिंचाई के आवंटन के नाम पर सिर्फ सब्जबाग दिखाए गए हैं जबकि सिंचाई के संसधान विकसित होने से देश से गरीबी और कुपोषण जैसे कलंक को मिटाने में मदद मिलेगी. पैदावार बढ़ने से महंगाई पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है. सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को रफ्तार मिल जाएगी. कुल मिलाकर जल विकास योजना से देश में खुशहाली आएगी. इसके वाबजूद जल विकास योजना के मुद्दे पर सरकार निष्क्रिय है, तो यह समझ से परे है.
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