समाज : अधिकारी करें भी तो क्या करें

Last Updated 01 May 2016 05:41:08 AM IST

वैसे तो कई ऐसे मामले गिनाए जा सकते हैं, जो बताते हैं कि देश का सर्वशक्तिमान सर्वोच्च न्यायालय सब कुछ वैसा नहीं करवा पाता जैसा वह चाहता है.


विभांशु दिव्याल

लेकिन पिछले दिनों उसकी जो बेचारगी नजर आई, वह हैरत में नहीं, गहरी चिंता में डालने वाली थी. सर्वोच्च न्यायालय पिछले कुछ वर्षों से अपने एक आदेश का अनुपालन कराने का प्रयास कर रहा है, मगर करा नहीं पा रहा है. उसे राज्यों और उनके मुख्य सचिवों को कड़ी चेतावनी देनी पड़ी है कि अगर उन्होंने उसके आदेशों का अनुपालन नहीं किया तो उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए.

यह मामला है मागरे-उपमार्गों, पार्कों, खाली पड़ी सार्वजनिक जमीनों, रिहायशी-व्यावसायिक परिसरों में अवैध तरीके से मंदिर-मजारों के निर्माण का. इन्हें हटाने संबंधी एक याचिका को उचित ठहराते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने ऐसे धार्मिक स्थलों को तत्काल हटाने का आदेश जारी किया था. इस आदेश के विरुद्ध केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका दायर करते हुए कहा था कि ऐसा करना आसान नहीं है क्योंकि इससे कानून व्यवस्था के भंग हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है. सितम्बर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि उसने यह काम यह सुनिश्चित करने के लिए अपने हाथ में लिया है कि आगे से किसी भी सार्वजनिक भूमि, सार्वजनिक पार्क या सार्वजनिक मार्ग का धार्मिक स्थल बनाने के लिए अतिक्रमण न हो सके. सर्वोच्च न्यायालय ने सभी जिलाधीशों को निर्देश दिया था कि वे यह सुनिश्चित करें कि आगे से उनके जिलों में सार्वजनिक भूमि का अतिक्रमण न हो और अवैध तरीके से बनाये गये निर्माणों से किसी भी तरह की व्यावसायिक गतिविधि न चले. सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि इस संबंध में आदेश के अनुपालन की रिपोर्ट राज्यों के संबंधित मुख्य सचिव न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करेंगे; जो नहीं हुआ. तभी सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा ‘निर्देशरे के बावजूद मुख्य सचिवों का रवैया ऐसा है. क्या हमारे आदेश कोल्ड स्टोरेज में डालने के लिए पारित किये जाते हैं? मुख्य सचिवों के मन में शीर्ष न्यायालय के प्रति कोई सम्मान नहीं है. अब हम उन्हें बताएंगे कि न्यायालय क्या कर सकता है. वे किसी भी तरह की छूट के पात्र नहीं हैं?’

अगर राज्यों के शीर्ष अधिकारी ही शीर्ष न्यायालय के आदेशों की इतनी धृष्टताभरी अवहेलना करें तो छोटे न्यायालयों के आदेशों का अनुपालन अधिकारीगण किस तरह करते होंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन यह दीगर विषय है. मूल विषय तो वही है, जिसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को फटकार लगाई है यानी देश भर में सार्वजनिक स्थानों पर धर्मस्थलों का अवैध तरीके से कुकरमुत्तों की तरह उग आना. प्रत्यक्षत: तो यही दिखाई देता है कि ये अवैध धर्मस्थल सार्वजनिक प्रवाह में बाधा बन रहे हैं-कहीं मागरें को अवरुद्ध कर रहे हैं तो कहीं लोगों को जनसुविधाओं से वंचित कर रहे हैं तो कहीं पार्क जैसे स्थानों पर घूमने-टहलने-बैठने जैसी सहज मानवीय गतिविधियों में रुकावट डाल रहे हैं. वस्तुत: अवैध तौर पर निर्मित ये धर्मस्थल देश में चल रहे कुत्सित आस्था-व्यापार का हिस्सा हैं. यह आस्था-व्यापार वह बहुफनिया सांप है, जिसका हर फन दूसरे से ज्यादा खतरनाक है. जब कोई आस्था के नाम पर किसी जमीन को घेरता है और वहां मंदिर-मजार बना देता है तो फिर किसी की क्या मजाल कि विरोध कर सके. ऐसी कोई भी जमीन किसी अकेले व्यक्ति द्वारा नहीं घेरी जाती बल्कि गिरोह द्वारा घेरी जाती है, जिसे अनिवार्यत: स्थानीय नेताओं का आशीर्वाद प्राप्त रहता है.

जहां तक स्थानीय प्रशासन का सवाल है तो कोई भी प्रशासन ऐसे पचड़ों में हाथ नहीं डालना चाहता. धर्म का मामला होने के कारण भावनाओं के भड़कने में देर नहीं लगती और ये भड़की हुई भावनाएं कानून व्यवस्था की स्थिति को किस कदर खराब कर सकती है, इसे सभी प्रशासनिक अधिकारी जानते हैं. वह जानते हैं कि अगर उन्होंने नये-पुराने किसी भी अवैध धार्मिक स्थल के साथ कोई छेड़खानी की तो धर्मस्थल से संबंधित समुदाय की भावनाएं-जो हर क्षण भड़कने को तत्पर रहती हैं-तुरंत भड़क जाएंगी. जो लोग ये अवैध धर्मस्थल निर्माण कराते हैं, वे यह भी सुनिश्चित करते हैं कि अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई अनचाहा कदम उठाए तो तत्काल लोगों की भावनाओं को भड़काया जा सके. भावनाओं के भड़कने की आशंका वह आग होती है, जिसमें कोई भी अधिकारी अपना हाथ नहीं जलाना चाहता.

लगभग तीन वर्ष पूर्व की ग्रेटर नोएडा क्षेत्र की उस घटना को याद करिए जिसमें एक कर्तव्यनिष्ठ युवा महिला प्रशासनिक अधिकारी ने एक मस्जिद के अवैध निर्माण को ढहा दिया था. यह महिला अधिकारी खनन माफिया सहित तमाम कानूनी विरोधी लोगों के विरुद्ध कड़ा रुख अख्तियार किये हुए थी. लेकिन संप्रदाय विशेष से जोड़कर जो भावनाएं भड़काई गई उनकी कीमत इस अधिकारी को अपने निलंबन से चुकानी पड़ी. इस मामले में गनीमत यह थी कि समूचा नागर समाज इस युवा महिला अधिकारी के समर्थन में खड़ा हो गया था और सरकार को मीडिया समेत एक बड़े प्रबुद्ध वर्ग की तीखी आलोचना झेलनी पड़ी थी. फिर भी उसके निलंबन की वापसी में पर्याप्त समय लग गया था. यह घटना उदाहरण है कि कोई भी अधिकारी ऐसे निर्माण की ओर से आंखें क्यों मूंद लेता है. इसलिए कि वह जानता है कि वोट के भूखे नेता भूखे भेड़ियों की तरह उसके पीछे पड़ जाएंगे और उसकी बलि ले लेंगे. बलि देने के लिए कोई अधिकारी क्यों तैयार हो?

इस देश का धर्म माफिया राजनीतिक माफिया से गलबहियां करके चलता है. यह संयुक्त माफिया इतना मजबूत है कि कोई भी प्रशासनिक व्यवस्था स्वयं को इसके आगे निहायत ही मजबूर महसूस करती है. इसका एक ही उपचार है और वह है धर्म और आस्था के अवैध व्यापार के प्रति लोगों की जागरूकता-ऐसी जागरूकता जो धर्म और राजनीति की क्षुद्रताओं से ऊपर उठी हुई हो. मगर अधिकारीगण ऐसी नहीं पैदा कर सकते. अगर अधिकारीगण सर्वोच्च न्यायालय के धर्मस्थान संबंधी आदेश का अनुपालन नहीं करते, नहीं कर पाते या उसमें ढिलाई बरतते हैं तो इसके पीछे उनकी अकर्मण्यता या अनिष्ठा नहीं, बल्कि उनकी विवशता रहती है. और सर्वोच्च न्यायालय के पास उनकी इस विवशता का फिलवक्त कोई निराकरण नहीं है. आगे कभी होगा भी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है.



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