मीडिया : सेल्समैन बनते बच्चे

Last Updated 01 May 2016 05:37:28 AM IST

एक बच्चा बैठा अपने माता-पिता, दादा-दादी के साथ बैठा टीवी देख रहा है, जिसमें गाना आ रहा है:‘शादी के बाद क्या क्या हुआ...’ गाना सुनकर बच्चा अचानक पूछ बैठता है:


सुधीश पचौरी

शादी के बाद क्या-क्या होता है? उसका सवाल पूछना होता है कि सारा परिवार सकते में आ जाता है. इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता बल्कि इस सवाल से सब बचते नजर आते हैं. दादा-दादी, माता-पिता सब अचकचा जाते हैं. क्या कहें और क्या न कहें? एक एक करके सब बहाना बनाकर उठकर चल देते हैं ताकि सवाल का जवाब न देना पड़े.

बच्चे के सवाल से किनारा करने वाले माता-पिता, दादा-दादी को भागता देख कर हम दर्शक  उत्फुल्ल महसूस करते हैं. यहीं कहीं विज्ञापन में पुराने एसी और नए एसी के कंप्रेसर की तुलना करते बताया जाने लगता है कि पुराने ढंग के एसी से काम लोगे तो ऐसा ही होगा यानी कमरे में गरमी रहेगी और ऐसे गरम सवाल पूछे जाते रहेंगे और आप भागते रहेंगे. आपके लिए बेहतर यही है कि आप टीवी के कमरे को ऐसे नए एसी से ठंडा करें ताकि ऐसे परेशान करने वाले सवाल ही पैदा न हों. 

पूरे विज्ञापन में बच्चे का सवाल बिना जवाब के रह जाता है, और पब्लिक के लिए इतना ही जवाब आता है कि आप बढ़िया ब्रांड का नया एसी लगाएं और ऐसे सवालों से निजात पाएं. बच्चे को एसी का सेल्समैन बनाना बच्चे के साथ ज्यादती है. यही नहीं उसके एडल्ट सवाल को करने देना और उसका जवाब न देकर, एक नया एसी मार्केट करना एक प्रकार का ‘दमन’ है. इसी तरह एक और विज्ञापन है, जिसमें दो बच्चों में से एक की आवाज पढ़ाई के मदार एक ‘पापा’ की खूबियां बताती रहती हैं. एक बच्चा अपने पापा को प्यार भरा उलाहना देता है कि पता नहीं आजकल पापा को क्या हो गया है?

वे इतिहास खोजने के लिए कहां-कहां नहीं जा रहे और गणित का सवाल करने के लिए कोई क्या चार सौ किलोमीटर दूर जाता है भला? अब तो सवाल पूछने से भी डर लगता है..पता नहीं आजकल पापा को क्या हो गया है. इसके बाद एकदम नई गाड़ी फोकस में आ जाती है, जिसमें बच्चे बैठे हैं, पापा खुशी-खुशी चला रहे हैं. गाड़ी एक शहर के किसी ऐतिहासिक स्थल पर खड़ी है.

यहां भी कार का सेल्समैन प्रकारांतर से एक बच्चे को ही बनाया गया है. संदेश यह है कि यह नई ब्रांड कार इस कदर आरामदेह और बढ़िया स्पीड वाली है कि आप हजारों किलोमीटर दूर चले जाएं तो भी आप थकेंगे नहीं, न चिड़चिड़ाएंगे. कार आपको अच्छे मूड में रखेगी. आप बच्चों के सवालों से विचलित नहीं होंगे, न उनको डांटेंगे बल्कि वह आपका उत्साह बढ़ाएगी और बच्चे स्वयं सवाल पूछने से कतराएंगे क्यों कि बढ़िया गाड़ी ने हर सवाल को सरल बना दिया और आनंददायक भी बना दिया है. यहां भी क्या ये बेहतर न होता कि बच्चे को बच्चा ही रहने दिया जाता. कार की तारीफ करने वाला सेल्समैन न बनाया जाता. सेल्समैन बनने के लिए क्या अब बच्चे ही बचे हैं?

इसी क्रम में तीसरा विज्ञापन ‘दिल्ली में ऑड- इवन’ फिर से वाला है, जिसमें एक स्कूल टीचर  अपने क्लास के बच्चों को ऑड-इविन के बारे में बताना चाहती है. बताने से पहले भी वह टीचर बेहद  खुश नजर आती है, और जब क्लास को बता लेती है यानी जब क्लास हम सबको ऑड-इविन के बारे में बता लेती है, और हमसे पूछ लेती है कि बच्चों को मालूम है, क्या आपको भी मालूम है, तो भी उसकी बत्तीसी खिली होती है. पूरे विज्ञापन को देख ऐसा लगता है कि ऑड-इविन किसी चॉकलेट की तरह है, और हर बच्चा उसे लकर बेहद खुश है.

ऑड-इविन को पापूलर करने के इस विज्ञापन में बच्चों के माता-पिता की ऑड-इविन से पैदा हुई सारी समस्याएं छिप जाती हैं, जबकि मीडिया में वे बार बार कही गई हैं. यहां भी बच्चों को एक योजना का सेल्समैन बनाया गया है. कई विज्ञापन ऐसे भी हैं, जिनमें बच्चों का कद बढ़ाने उनको तुरंता ताकत देने वाले कई हेल्थ ड्रिंक्स और हेल्थ फूड बच्चों द्वारा ही बेचे जाते हैं. ऐसे तमाम विज्ञापन बच्चों के प्रति घोर अन्याय हैं. वे उनको सेल्समैन बनाने के साथ-साथ प्रीमेच्योर कंज्यूमर भी बनाते हैं. बच्चों में इस तरह ‘ब्रांड लॉयल्टी’  पैदा करना उनको कंज्यूमर मार्केट का गुलाम बनाना है, जो किसी भी तरह से उचित नहीं है. क्या हमारे विज्ञापन बनाने वाले हमारे स्पांसर्स हमारे ब्रांड्स और हमारे प्रशंसक हमारे बाल कल्याण मंत्रालय आदि इस ओर घ्यान देंगे?



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