परत दर परत : राज्यों को वयस्क होने दीजिए
उत्तराखंड में लगाए गए राष्ट्रपति शासन की वैधता पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सब कुछ पूछा, बस यही नहीं पूछा कि आखिर अनुच्छेद 356 की जरूरत क्या है?
राजकिशोर |
संविधान की यह सब से बदनाम धारा है जिसका प्रयोग अवांछित राज्य सरकारों को विपत्ति में डालने के लिए किया जाता रहा है. इसका दुरुपयोग नेहरू के समय से ही शुरू हो गया था. जैसे ही यह संदेह करने का जरा भी मौका मिला कि राज्य सरकार के पास बहुमत है या नहीं, दिल्ली ने उस पर धावा बोल दिया और राज्य का शासन अपने हाथ में लिया. संविधान का निर्देश है कि जैसे ही विधानसभा भंग हो, छह महीनों के भीतर नए चुनाव हो जाने चाहिए. लेकिन कुछ राज्यों में तो साल भर से ज्यादा समय तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा. जिस धारा का मकसद राज्य में राजनीतिक स्थिरता लाना था, उसी का इस्तेमाल राजनैतिक अस्थिरता लाने के लिए किया जाता रहा है.
हम समझते थे कि बोम्मई केस में 1994 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस मामले में सारे विवाद को खत्म कर देगा. वह फैसला यह था कि किसी भी सरकार का बहुमत संदिग्ध हो जाने पर उसका निर्णय विधानसभा में ही होगा,राज्यपाल भवन या कहीं और नहीं. लेकिन इसका डर कुछ ही वर्षो तक बना रहा. बाद में मनमोहन सरकार ने 356 का अनुचित इस्तेमाल करने का प्रयास किया और अब वही काम मोदी सरकार कर रही है. उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने जब उत्तराखंड में मोदी सरकार द्वारा लगाए गए राष्ट्रपति शासन को निरस्त कर दिया और मुख्यमंत्री हरीश रावत को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने को कहा, तो कानून एकदम पटरी पर था. उत्तराखंड हाई कोर्ट ने अपने फैसले में बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त निर्णय का हवाला भी दिया था. लेकिन पता नहीं क्यों सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को मुलतवी कर दिया. अब मामला, एक तरह से, सुप्रीम कोर्ट बनाम सुप्रीम कोर्ट का है. देखते हैं, इस द्वंद्व में पहले वाला सुप्रीम कोर्ट जीतता है या वर्तमान सुप्रीम कोर्ट. कायदा तो यही है कि समय के साथ लोकतंत्र को आगे बढ़ना चाहिए, न कि पीछे.
अनुच्छेद 356 का जन्म, मेरे विचार से, एक डर से हुआ था. जब तक भारत विभाजन नहीं हुआ था, पूरी तैयारी भारत को एक संघराज्य बनाने की थी. अभी भी भारत को परिभाषित करने के उपक्रम में उसका एक प्रमाण बचा हुआ है. संविधान में कहा गया है कि भारत, अर्थात इंडिया, राज्यों का संघ होगा. भारत नाम के देश की मूल इकाई राज्य ही है, राज्यों के मिलने से जो बना है, वह संघ है. संघ है तो संघ की सरकार भी होगी, लेकिन उसकी इयत्ता उसके अपने लिए नहीं, बल्कि राज्यों के लिए है. राज्य सरकारें संघ सरकार को बल प्रदान करेंगी, न कि संघ सरकार राज्य सरकारों पर शासन करेगा. लेकिन इसके बाद जो संविधान बना, वह केंद्र को ज्यादा अधिकार देता है और राज्यों को उसका लगभग अनुगत बनाए रखता है. राज्यों को यह अधिकार नहीं है कि वे बहुमत से संघ सरकार को भंग करवाएं पर संघ सरकार को यह अधिकार है कि वह परिभाषित स्थितियों में किसी भी राज्य सरकार को भंग कर सकता है.
संघ सरकार को यह अधिकार इस डर से दिया गया था कि भारत जिस तरह दो टुकड़ों में बंट गया और कुछ राज्यों ने अलग हो कर पाकिस्तान बना लिया, वैसे ही कहीं फिर शेष भारत का विभाजन न हो जाए. खतरा खास तौर से दक्षिण और उत्तर-पूर्व से था. तमिल क्षेत्र में अलगाववादी मानसिकता के कुछ अवशेष अभी भी दिखाई देते हैं. खासकर केंद्र की राजभाषा हिंदी से संबंधित मामलों में, पर उत्तर-पूर्व की आग बरकरार है. ऐसी समस्याएं उन सभी देशों के साथ बनी हुई हैं, जिन्होंने राष्ट्र-राज्य का यूरोपीय मॉडल स्वीकार किया. चीन के साथ भी यह है. दिलचस्प यह है कि टूटा तो वह पाकिस्तान, जिसके पीछे एक जिद थी, भारत नहीं टूटा. अपने भीतर की तमाम अशांतियों का शिकार होने भी कोई उदार, बहुलतावादी गणतंत्र समय-समय पर लचक भले ही जाए, पर वह खंड-खंड नहीं होता.
इसलिए मांग यह उठनी चाहिए कि राज्यों को वयस्क होने दीजिए उनकी इस क्षमता पर भरोसा कीजिए कि अपने राजनैतिक विवाद वे अपने स्तर पर सुलझा सकते हैं. ज्यादातर मामलों में विवाद यही होता है कि सरकार के पास बहुमत है या नहीं. यह विवाद तब पैदा होता है, जब सत्तारूढ़ दल या गठजोड़ से कुछ दल-बदल होता है. दल-बदल रोकने के लिए बहुत स्पष्ट कानून हैं. इसलिए केंद्र अगर धीरज दिखाए, तो विधानसभा की तुरंत बुलाई गई बैठक में बहुमत का फैसला आसानी से हो सकता है. हां, मुख्यमंत्री या विधानसभा अध्यक्ष अगर विधानसभा की बैठक बुलाने से इनकार कर दे, तब राज्यपाल को यह अधिकार दिया जाना चाहिए. तब राज्य में राज्यपाल शासन होगा, न कि राष्ट्रपति शासन. जम्मू-कश्मीर की तरह. भारत के अन्य राज्यों की स्थिति में जम्मू-कश्मीर को लाने के प्रयास से बेहतर है कि भारत के अन्य राज्यों को जम्मू-कश्मीर जैसी मजबूत स्थिति में लाएं. आज जो जितना लचीला होगा, वह उतना ही ज्यादा टिकेगा. और हां, यह भी लिख लीजिए कि विकेंद्रीकरण से राष्ट्रीयता मजबूत होती है, कमजोर नहीं.
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