मुद्दा : ग्रामोदय से ही भारत उदय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ग्रामोदय से भारत उदय की योजना अनायास ही नहीं है.
मुद्दा : ग्रामोदय से ही भारत उदय |
आबादी के हालिया ऑकड़े भी इस बात की तजदीक करते हैं कि भारत की प्राण-प्रतिष्ठा और उसकी आत्मा यहां के छह लाख गांवों में ही बसती है. पिछले दिनों 2011 के बाद की देश की आबादी से जुड़े विभिन्न आयामों को लेकर जो रिपोर्ट सामने आई उसको देखने से पता लगा कि देश की एक अरब 25 करोड़ की आबादी में से 83.3 करोड़ आबादी गांव में तथा 37.7 करोड़ आबादी शहर में निवास करती है.
रिपोर्ट बताती है कि शहरों में पिछले एक दशक में आबादी में तो 9 करोड़ की वृद्धि हुई परन्तु दूसरी ओर गांव की आबादी में पिछले दस सालों में 2.35 प्रतिशत की कमी आई. जो लोग शहरीकरण की बढ़ती प्रक्रिया को विकास के पर्याय के रूप में देख रहे हैं, उनके लिए ये आंकड़े निश्चित ही उत्साहवर्धक हो सकते हैं. परन्तु दूसरी तरफ पिछले एक दशक में गांव की आबादी जिस अनुपात में घटी है, उसके बावजूद गांव अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले एक दशक में रोजगार से जुड़े अनेक अवसरों की तलाश में गांव से शहरों की ओर लोगों के पलायन करने की रफ्तार तेज हुई है. यहां इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश की कुल आबादी के 58.4 फीसदी से भी अधिक लोगों की आजीविका का मुख्य साधन आज भी खेती ही है. देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान पांचवे हिस्से के बराबर है. साथ ही खेती कुल निर्यात का 10 फीसदी हिस्सा होने के साथ-साथ अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराती है.
खेती-किसानी से जुड़े अनेक विरोधाभासी आंकड़े भी साक्षी हैं कि खेती अब घाटे का सौदा रह गई है. चालीस फीसदी किसानों ने तो खेती करना छोड़ ही दिया है. देश के विभिन्न हिस्सों में किसान आत्महत्या करने तक को मजबूर हो रहे हैं. पिछले दिनों फैडरेशन ऑफ इण्डियन फार्मर्स आर्गनाइजेशन (फिफो) की रिपोर्ट में कहा गया है कि विभिन्न प्रकार के भूमि अधिग्रहणों के कारण देश में अब तक 12 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि कम हो चुकी है. लगता है कि भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकारें भी अब प्रापर्टी डीलर का कार्य कर रही हैं. अधिग्रहण के मामलों से जुड़े संघर्ष इस तथ्य की स्वत: ही पुष्टि करते हैं. सरकारें जिस प्रकार एक्प्रेस-वे, हाईवेज व महानगरीय विस्तार के लिए बिल्डर्स को बढ़ावा दे रही हैं उससे परोक्ष रूप से ही सही यह किसानों को खेती छोड़ने का स्पष्ट संकेत ही है. बारहवी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में भी 2017 तक लगभग एक करोड़ से भी अधिक लोगों को खेती-किसानी से अलग करके उन्हें दूसरे अन्य काम-धंधों की ओर उन्मुख करना अधिक परिलक्षित होता है. भविष्य में खेती से जुड़े जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, उनसे लगता है कि बढ़ती आबादी में लोगों की बुनियादी जरूरत पूरी करने के लिए खेती की उत्पादकता बढ़ाना मजबूरी होगी. इसलिए खेती में हाई ब्रिड बीज व तीव्र यंत्रीकरण करने से कृषि कार्य और कृषि मजदूरी करने के अवसर स्वत: ही कम हो जायेगें. इन हालात में छोटे खेतिहर मजदूर व किसानों का शहर की ओर पलायन मजबूरी बन जाएगा.
इतिहास गवाह है कि फिरंगियों की षडयंत्रकारी रणनीति के तहत गांवों व शहरों के बीच विषमताओं की खाई और चौड़ी होती गई. सड़कों का निर्माण, यातायात के साधनों की विभिन्नता, विदेशी शिक्षा का विस्तार इत्यादि के प्रभाव ने नगरों की तो काया पलट कर दी, परंतु गांव लगातार पिछड़ते गए. यही कारण रहा कि गांव आज गदंगी और पिछड़ेपन तथा नगर, उच्च नगरीय जीवन व उच्चता के प्रतीक बन गए. साथ ही गांव-नगर की निरंतरता के स्थान पर इन दोनों के बीच भारतीय जीवन की सांमजस्यता और विषम होती चली गई. देश में गांवों से जुड़ी आबादी के आंकड़ों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के मूल विकास की संकल्पना को खोजने के लिए हमें एक बार फिर से गांवों की ओर चलना ही होगा. मोदी सरकार का ग्रामोदय के रास्ते भारत उदय लाने का यह खाका एक उम्मीद का प्रकाशपुंज है. इसलिए कि भारत की आत्मा आज भी गांवों में बसती है. हमारे नगरों का तो धीरे-धीरे स्तरीय विकास हो ही रहा है. परंतु अब गांवों के विकास के बारे में एक अर्थपूर्ण विमर्श छेड़ने की भारी जरूरत है. आइये, एक बार फिर हम भारत के लोग गांवों के विकास से जुड़ें. बढ़ती आबादी के नकारात्मक स्वरूप को प्रस्तुत न करके स्तरीय विमर्श के जरिये भारत उदय की संकल्पना को साकार करने में भूमिका अदा करें.
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