सीधी रेखा खींचने की कोशिश

Last Updated 30 Apr 2016 04:45:13 AM IST

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनता दल यूनाईटेड का अध्यक्ष पद संभालने के बाद भविष्य की अपनी राजनीति का संकेत यह कहकर दिया कि देश में संघ-मुक्त राजनीतिक ध्रुवीकरण की जरूरत है.


सीधी रेखा खींचने की कोशिश

संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी संघ का संसदीय मंच है, और खुद को वह सांस्कृतिक संगठन के रूप प्रचारित करता है. बहरहाल, एक बात बहुत स्पष्ट है कि उसके उद्देश्य राजनीतिक हैं, और उसने अपनी कार्ययोजना को लागू करने के लिए अपनी एक सांगठनिक रणनीति तैयार कर रखी है. उसका राजनीतिक उद्देश्य भारत को हिंदुत्ववादी राष्ट्र बनाना है. उसका मानना है कि 1925 में सांगठनिक स्तर पर शुरू किए गए अपने राजनीतिक उद्देश्यों को उसे पूरा करना है.

संघ अपने सौ वर्ष पूरे करने की तरफ बढ़ रहा है. उसकी संसदीय पार्टी ने पहली बार केंद्र में अपने बूते सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की है, और वह देश के प्रत्येक प्रांत में अपनी हैसियत एक मजबूत राजनीतिक संगठन के रूप में बनाने के इरादे से सक्रिय है. कांग्रेस ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष की अगुवाई करते हुए 1947 के बाद की सरकार का नेतृत्व किया. लेकिन उसकी सत्ता ने संसदीय राजनीति में एक ऐसी स्थिति पैदा की कि उसके खिलाफ राजनीतिक ध्रुवीकरण की जगह तैयार हो गई.

गैर-कांग्रेसवाद का नारा समाजवादी विचारधारा से जुड़े लोगों ने लगाया जिसकी अगुवाई डॉ. राम मनोहर लोहिया ने की थी. यह नारा 1967 में एक हद तक आकार ले चुका था, जब नौ राज्यों में संविद सरकारें बनीं. इनमें कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर हिंदुत्ववादी जनसंघ भी शामिल रही है, बल्कि कहा जा सकता है कि जनसंघ गैर-कांग्रेसवाद की राजनीतिक मुहिम का हिस्सेदार बनने में सफल रहा. 1974 में भी जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र-छात्राओं के आंदोलन के बाद जब गैर-कांग्रेस राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ तो उससे बनी जनता पार्टी में जन संघ भी शामिल थी.

नये ध्रुवीकरण का संकेत
भारतीय जनता पार्टी का पहला नाम जन संघ ही रहा है. इस पार्टी ने अपनी राजनीति गांधीवादी समाजवाद से शुरू की थी. बाद में कांग्रेस का आधार सिकुड़ता चला गया तो गैर-कांग्रेसवाद से निकली पार्टयिों ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल होने में कोई परेशानी महसूस नहीं की. उनमें नीतिश कुमार की पार्टी भी रही है. नीतिश ने बिहार में भारतीय जनता पार्टी के साथ साझा सरकार भी बनाई. लेकिन अब राजनीतिक स्थितियां दूसरी तरफ मुड़ रही हैं. संघ-मुक्त भारत की राजनीति नये राजनीतिक ध्रुवीकरण का संकेत दे रही है.

एक लंबे अरसे के बाद संघ की संसदीय पार्टी ने राजनीतिक छूत से अपने को मुक्त किया था. पहले उसे अटल बिहारी वाजपेयी की उदार छवि की आड़ लेकर ऐसा करने में सफलता मिली थी. लेकिन बाद के घटनाक्रमों में उदार और कट्टरपंथ की सुविधाजनक बहस भी दूर हो गई. धर्मनिरपेक्षता की जगह पर छद्म धर्मनिपरेक्षता के प्रचार ने अपना प्रभाव विस्तारित किया यानी वैचारिकता के पहलू दोतरफा राजनीतिक ध्रुवीकरण से दूर होते चले गए. संसदीय सत्ता में पहुंचने का गणित ही किसी भी राजनीतिक ध्रुवीकरण का केंद्र बिंदु बना हुआ है. लेकिन नीतीश ने इस बीच राजनीतिक माहौल का आकलन किया और संघ-मुक्त भारत की तरफ राजनीतिक भविष्य की बागडोर संभालने की योजना में लगे दिख रहे हैं. बिहार विधान सभा चुनाव के परिणामों के बाद ही नीतीश कुमार ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में देशभर के लोगों की प्रतिक्रियाओं का हवाला देकर भविष्य की इस राजनीति की तरफ संकेत दिया था.

लेकिन तब उन्होंने राजनीतिक ध्रुवीकरण की देशव्यापी जरूरत पर बल नहीं दिया था. लेकिन जेएनयू तक के घटनाक्रमों ने उन्हें अपने को संघ-मुक्त राजनीति की तरफ प्रेरित करने की भरपूर सामग्री दी. जाहिर है कि वे इसकी तैयारी कर रहे थे, तभी उन्होंने अपनी पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता शरद यादव को अध्यक्ष की कुर्सी खाली करने के लिए कहा. दूसरा यह भी कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की आपसी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में भी यह जरूरी रहा है कि नीतीश हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ अपने कड़े रुख का इजहार करें. लालू प्रसाद इस मायने में उनसे आगे रहे हैं, और इस मायने में धर्मनिरपेक्ष मतों के बीच उनकी अपील ज्यादा आकषर्क रही है.

संघ की तरफ से आते हैं फैसले
देश के किसी भी हिस्से में होने वाले राजनीतिक-सामाजिक कार्यक्रमों की समीक्षा करें तो पाएंगे कि भाजपा के बजाय संघ की पूरी योजना को लेकर बातचीत होती है. भाजपा की सरकार के वैचारिक फैसले संघ की तरफ से ही आते हैं, ये धारणा स्थापित हो गई है. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी संसद में अपने भाषणों में भाजपा के बजाय संघ की नीतियों को ही केंद्र में रखते रहे हैं. इस तरह संघ एक राजनीतिक संगठन के रूप में संसदीय राजनीति का विषय बनकर उभरा है. अब यह बात छुपाने की किसी भी रणनीति से बाहर निकल चुकी है कि वह एक सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन है. केवल तकनीकी तौर पर वह ऐसा दावा कर सकता है, लेकिन मतदाता वर्ग इस कागजी दावे तक उसकी भूमिका नहीं देखता.

संघ खुद के राजनीतिक संगठन के रूप में संबोधित होने से दूर भागता है, क्योंकि फिलहाल तक हिंदुत्ववाद का राजनीतिक दिमाग बनाने का उसका उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है. वह लोगों की सांस्कृतिक संरचना को जरूर खंडित कर चुका है, लेकिन वह संरचना एक अंतिम फैसले तक पहुंचने में काफी वक्त ले सकती है. इसीलिए संघ कई तरह की गतिविधियों के जरिये ही अपने राजनीतिक उद्देश्य की तरफ एक प्रभावशाली हिस्से को अपनी तरफ लाने की कोशिश करता है, या कर सकता है.

सीधे तौर पर हिंदुत्ववाद की राजनीति में उतरने से संघ को दिक्कत होती दिखती है. दरअसल, संसदीय राजनीति में हिंदुत्ववाद दोहरी सदस्यता की तरह सकिय रहा है. संघ छद्म धर्मनिरपेक्षता की बहस को धर्मनिरपेक्ष कहने वालों के साथ ही बैठकर आगे बढ़ाता रहा है. मसलन, कांग्रेस के साथ संबंध रखकर ही वह कांग्रेस को हिंदू-विरोधी पार्टी के रूप में पेश करने में कामयाब होता रहा है. देश में धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदुत्ववाद का राजनीतिक संघर्ष सीधे-सीधे हो तो देश के भविष्य की एक मुकम्मल तस्वीर सामने आ सकती है. लेकिन दिक्कत है कि यह संघर्ष धर्मनिरपेक्षता के दरवाजे में छुपकर करने की कोशिश होती है. नीतीश का राजनीतिक उद्देश्य इसमें कितना पूरा होगा? यह आकलन करने के बजाय यह कहना ज्यादा उचित होगा कि संघ-मुक्त भारत एक छद्म बहस से देश को बाहर निकालेगा और राजनीतिक संघर्ष के बीच एक सीधी रेखा खींचने में मदद करेगा.

अनिल चमड़िया
वरिष्ठ पत्रकार


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