समाज : सजा लड़कियों को क्यों?

Last Updated 29 Apr 2016 05:48:28 AM IST

गुजरात के पाटीदार समाज ने अपनी लड़कियों के लिए फरमान जारी किया है. यह कि वे बाहरियों से शादियां न करें.


समाज : सजा लड़कियों को क्यों?

माता-पिता को भी चेताया गया है कि अपनी लड़कियों पर नजर रखें. अपनी बेटियों की शादी सिर्फ अपने समाज में करें. पटेल समुदाय इन दिनों सरकार से आरक्षण को लेकर उलझा हुआ है. सिर्फ  बेरोजगारी ही उसकी अकेली  समस्या नहीं है. एक और बड़ी समस्या है-लिंगानुपात. समुदाय में लड़के ज्यादा हैं, लड़कियां कम. बेटियों की बजाय बेटों से मोह हमारे समाज की सच्चाई है, और पटेल इस सच्चाई के अछूते नहीं हैं. इसलिए यह फरमान जारी किया गया है.

समुदाय को डर है कि उनकी लड़कियां समाज के बाहर शादी करेंगी और समाज के लड़के कुंवारे रह जाएंगे. पटेल नेताओं का कहना है कि लड़कियां नासमझी में बाहरियों से शादियां कर लेती हैं. उन्हें समझना चाहिए कि उनके समाज में बिगड़ता लिंगानुपात कितनी बड़ी समस्या है. आखिर, समस्या होने पर लड़कियों को ही तो सब कुछ संभालना होता है. समाज का संतुलन न बिगड़े, यह जिम्मेदारी सबसे पहले लड़की की ही होती है.

वैसे पटेल ही नहीं, ज्यादातर समुदायों में लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है. देश में हर 1000 पुरु षों पर 944 औरतें हैं. बेशक, बेटियों को गर्भ में ही गिरा देने के कारण ऐसा हुआ है. इस प्रवृत्ति का शिकार लड़कियां ही हैं, और अब इसके नतीजों को भी उन्हें ही भुगतना पड़ रहा है. शादी-ब्याह का फैसला लेने का हक वैसे भी लड़कियों को कहां दिया जाता है. ज्यादातर कोई भी फैसला करने का हक उन्हें नहीं होता. कपड़े-लत्ते चुनने से लेकर घूमने-फिरने तक की आजादी. स्कूल-कॉलेज ही नहीं, डिस्को-पब में भी अपनी पसंद के कपड़े नहीं पहनने चाहिए. किसी की भावनाएं न भड़क जाएं. इसी तरह, शाम के बाद घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए क्योंकि शोहदों का कुछ पता नहीं. इसी बात को लेकर दिल्ली में यूनिर्वसटिीज की लड़कियों ने ‘पिंजड़ा तोड़’ जैसी मुहिम चलाई थी क्योंकि हॉस्टलों में उनके रात को बाहर निकलने पर पाबंदी है.

लड़कियां क्या पहने, क्या खाएं, किससे बात करें, ये सब मामले इस बात से कतई अलग नहीं हैं कि लड़कियां किससे शादी करें. बीते दिनों शादी-ब्याह को सामाजिक हथियार बनाकर अपना उल्लू सीधा करने की लगातार कोशिश की गई है. प्रेम संबंधों को एक बड़े अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का नतीजा माना जा रहा है. हाल ही में मैसूर में एक कपल की शादी पर खूब हंगामा मचा. लड़की के नाम से हिंदू होने और लड़के के नाम से मुसलमान होने का बोध होता था.

दोनों के निजी फैसले पर दक्षिण के कई राज्यों को आग में झोंकने की कोशिश की गई. हमारा समाज अजब दोराहे पर खड़ा प्रतीत होता है, जहां विरोधाभासों का समुंदर है. जिस राजस्थान के उदयपुर में बेटियों पर प्यार उंडेलते हुए ‘बेटी गार्डन’ बनाया जाता है, उसी राजस्थान के चित्ताैड़गढ़ में दो नाबालिग लड़कियों का बाल विवाह करा दिया जाता है. इन दो सच्चाइयों को साथ-साथ देखना बहुत मुश्किल काम है. पर तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देखना जरूरी है. लड़कियां खुद अपने फैसले लेना चाहती हैं. वे अपने फैसलों से होने वाले नतीजों का बोझ उठाने को भी  तैयार हैं.

उन पर तमाम तरह की पाबंदियां हैं-यहां मत जाओ, उसके साथ मत जाओ, सिर ढंक कर रहो, टांगें छुपाओ, पीरियड्स के समय रसोई में मत जाओ, अचार मत छुओ, जंग के मैदान में मत जाओ, गाड़ी ना चलाओ, वगैरह-वगैरह. यही मसला आगे चलकर शादी-ब्याह की तरफ बढ़ता है, फिर मंदिर, मस्जिद और दरगाह तक. लड़कियों के लिए तय किया जाता है कि वे मंदिरों में पूजा नहीं कर सकतीं, मस्जिद में नमाज नहीं पढ़ सकतीं. कब्रिस्तान और शमशान घाट पर नहीं जा सकतीं. पर अब लड़कियों को इन पाबंदियों से इनकार है. वे खुद तय करना चाहती हैं कि उनके लिए क्या सही है, और क्या गलत.

जैसा कि झुंझनू की प्रियंका ने किया. चार दिन पहले उसने दहेज मांगने वाले दूल्हे को मंडप में ही नकार दिया. फिर मौके पर मौजूद दूसरे युवक से ब्याह रचा लिया. यह किसी लड़की का मजबूत इरादा ही है कि तुरंत अपनी जिंदगी का फैसला ले. कोई शक नहीं कि इस तरह के फैसलों में हमें लड़कियों का साथ देना होगा. क्यों न यह लड़कियों को ही तय करने दिया जाए. उन्हें ही तय करने दिया जाए कि उन्हें खुले आसमान में कितना उड़ना है. इस उड़ान में उनके पंख घायल हो सकते हैं, लेकिन अपने पर तोलने की ताकत भी उनमें है. लड़कियां बहुत समझदार हैं. उन पर सिर्फ  भरोसा कीजिए.

माशा
लेखिका


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