गैर-भाजपा मोर्चा अभी तो नहीं

Last Updated 29 Apr 2016 05:43:01 AM IST

भाजपा के राजनीतिक दबदबे को चुनौती देने की गरज से भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने को लेकर एकमत हों लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने का विचार संभवत: ज्यादा फलीभूत न हो.


गैर-भाजपा मोर्चा अभी तो नहीं

भले ही विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों के नेता, आगामी लोक सभा चुनावों में भाजपा को शिकस्त देने की इच्छा के चलते, भाजपा के राजनीतिक दबदबे को चुनौती देने की गरज से भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने को लेकर एकमत हों लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने का विचार संभवत: ज्यादा फलीभूत न हो. जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां बेहद मजबूत और सत्ता में हैं, वहां तो यकीनन इस विचार को हाथोंहाथ नहीं ही लिया जाएगा. कहने की जरूरत नहीं कि लोक सभा में सत्ताधारी भाजपा के पश्चात सबसे बड़ी 144 सदस्यों वाली कांग्रेस को तो यह विचार कतई नहीं जंचेगा. बेशक, बिहार में कांग्रेस के पास गठबंधन और तत्पश्चात गठबंधन सरकार में जूनियर सहयोगी के रूप में शामिल होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. संभव है कि उत्तर प्रदेश में भी यही कहानी दोहराई जाए. उसने क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी (एसपी) या बहुजन  समाज पार्टी (बसपा) में से किसी एक के साथ गठजोड़ करने का प्रयास किया तो उसे उसी स्थिति का सामना करना होगा जैसी का उसे बिहार में करना पड़ा था.

लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर गैर-भाजपा गठजोड़ किए जाने के प्रयासों में कांग्रेस  किसी भी सूरत दूसरे पायदान पर नहीं रहना चाहेगी. संभव है कि प. बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में जयललिता, ओडिसा में नवीन पटनायक जैसे कुछ क्षेत्रीय नेता इस प्रकार का गठजोड़ किए जाने को लेकर उत्साहित ही न हों. इसलिए कि उन्होंने अपने-अपने राज्यों में 2014 के लोक सभा चुनावों में बड़े आराम से भाजपा को पराजित कर दिया था. वह भी उस समय जब भाजपा की लोकप्रियता चरम पर थी,  और कई राज्यों में उसने अपने प्रतिद्वंद्वियों का सफाया ही कर दिया था. गैर-भाजपा  गठजोड़ का विचार छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को ही अपील कर सकता है, जैसा कि नीतीश कुमार द्वारा इस बाबत विचार व्यक्त किए जाने के बाद इन नेताओं ने प्रतिक्रिया जतलाई है. इनमें से अधिकांश नेता उन राजनीतिक दलों से संबद्ध हैं, जिनके सिद्धांत कमोबेश समान हैं. इनमें से अनेक कुछ दशक पूर्व एक ही पार्टी में साथ-साथ भी रहे थे.

मोर्चा मुश्किल
इस विचार में निहित अर्थ को समझा जा सकता है, लेकिन इस विचार के साथ आगे बढ़ना आसान नहीं है. पूर्व-जनता परिवार के नेताओं का एक साथ आकर भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाना बेहद मुश्किल काम है. इस काम में तमाम बाधाएं और अवरोध हैं. जैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने की ओर बढ़ेंगे वैसे ही सबसे बड़ा अवरोध नेतृत्व के सवाल के रूप में उभरेगा. नीतीश के आह्वान/अपील को उनके द्वारा खुद को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश किए जाने के प्रयास के रूप में देखा जाएगा. इसे गैर-भाजपा मोर्चा गठित करने के लिए उनकी ईमानदार कोशिश के रूप में नहीं देखा जाएगा. निस्संदेह इस समय राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष में नेतृत्व का अभाव है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी पासंग भी नहीं समझे जा रहे. वह खुद को प्रभावशाली नेता के रूप में पेश करने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं. बड़े स्तर पर मतदाताओं में उत्साह का संचार नहीं कर पाए हैं.

अनेक क्षेत्रीय दलों के नेता भारत में नेतृत्व के संकट के तर्क से सहमत हैं. इस बात से भी सहमत हैं कि ऐसे नेतृत्व का अभाव है, जो नरेन्द्र मोदी के वर्चस्व/लोकप्रियता को चुनौती दे सके. लेकिन इन नेताओं में शायद ही कोई हो जो नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी के एकमात्र विकल्प के तौर पर स्वीकार करने को तत्पर हो. कुछ राज्यों में ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री के रूप में भले ही ज्यादा समय न हुआ हो, लेकिन उनकी लोकप्रियता निर्विवाद रही है. कुछ ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिनकी पार्टी  के संसद में ज्यादा सदस्य हैं. कुछ ऐसे हैं जिन्हें भले ही ज्यादा अनुभव न हो और उनकी पार्टी के संसद में सदस्य भी कम हों परंतु उनकी छवि न केवल साफ है,बल्कि आम मतदाताओं में उनकी अच्छी अपील भी है. इतने विविध नेतृत्व के मद्देनजर और इन तमाम नेताओं में राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी के विकल्प के रूप में पेश किए जाने की ललक के चलते क्षेत्रीय दलों के नेताओं द्वारा गैर-भाजपा मोच्रे के विचार को स्वीकार करना संभव नहीं जान पड़ता.

दबी महत्त्वाकांक्षाओं के नेता
इनमें से अनेक नेता ऐसे हैं, जिनके दिल में दबी महत्त्वाकांक्षा है, और इनमें से कुछ तो सार्वजनिक रूप से विकल्प के तौर पर खुद को पेश भी कर चुके हैं. गैर-भाजपा मोर्चा बनाने की दिशा में बढ़ने का प्रयास होता है, तो विश्वास कर पाना मुश्किल है कि ममता बनर्जी, जयललिता या नवीन पटनायक नीतीश कुमार के नेतृत्व को स्वीकार कर ही लेंगे. फिर, अरविंद केजरीवाल को क्यों भूला जाए जो मतदाताओं को यकीन दिलाने का कोई मौका नहीं चूकते कि राष्ट्रीय स्तर पर वह नरेन्द्र मोदी का  एकमात्र विकल्प हैं. मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद को भले ही आगे बढ़कर त्यागा हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व पाने की जरा भी गुंजाइश बनती है, तो वह इस अवसर को भुनाने में तनिक भी देर नहीं करेंगे. नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को चुनौती देने के लिए किसी मजबूत नेता की तलाश होती है, तो कद्दावर मराठा नेता शरद पवार इस दौड़ में भला क्यों पीछे रहना चाहेंगे.

भारत में 1970 के दशक के मध्य (जनता प्रयोग) तथा 1980 के दशक के आखिर (1988 में वीपी सिंह का जन मोर्चा प्रयोग) में कांग्रेस-विरोधी मोर्चा बने हैं, और वह भी उस समय जब कांग्रेस की लोकप्रियता अपने चरम पर थी, और वह अजेय समझी जाती थी. लेकिन ये दोनों ही प्रयोग विफल रहे. इसलिए नहीं कि लोगों ने इन  प्रयोग में विश्वास नहीं जतलाया था. वास्तव में जनता पार्टी 1977 में चुनकर सत्ता में आई थी. ऐसे ही वीपी सिंह का जनमोर्चा भी 1989 में चुनकर सत्ता में आया था. लेकिन इनमें से कोई भी प्रयोग ज्यादा समय तक नहीं चल पाया. कारण इतना भर रहा कि इनके नेता अपने अहं को परे नहीं रख सके. होना तो यह चाहिए था कि वे दशकों तक सत्ता पर काबिज रही पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिए अपने अहं की आवाज सुननी ही नहीं चाहिए थी.

बहरहाल, गैर-भाजपा गठजोड़ के  रूप में यह पहला प्रयास हो सकता है, लेकिन पूर्व-जनता परिवार में शामिल रहीं पार्टियों द्वारा एक साथ आने के लिए पूर्व में कई बार प्रयास हो चुके हैं. बिहार विधान सभा चुनाव के ठीक पहले भी ऐसा प्रयास किया गया था, लेकिन यह मूर्तरूप नहीं ले पाया. अब किया जाने वाला प्रयास कहीं बड़ा प्रयास है. मेरा मानना है कि इस प्रकार का गठजोड़ करने के लिए चुनौती भी कहीं बड़ी होगी. प्रश्न है कि क्या ऐसा हो सकेगा? मुझे नहीं लगता कि निकट भविष्य में ऐसा हो पाएगा.

प्रो. संजय कुमार
निदेशक, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस), दिल्ली


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