जाति से विमुक्त समाज की ओर

Last Updated 19 Apr 2016 04:30:46 AM IST

इस साल भारत ने पहली बार संयुक्त राष्ट्र में बाबा साहेब अम्बेडकर का जन्मदिन प्रायोजित किया.


जाति से विमुक्त समाज की ओर

संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में भारत के स्थायी मिशन ने दलितों के मसीहा की 125वीं जयंती उनके जन्म दिन 14 अप्रैल से एक दिन पूर्व 13 अप्रैल को मनाई. इस अवसर पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया. विषय था : ‘सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए असमानताओं पर समाघात-एसडीजी’. कार्यक्रम में भारतीय मिशन द्वारा वितरित नोट में कहा गया कि यह राष्ट्र-पुरुष समूचे विश्व में सामाजिक न्याय और समानता के लाखों लाख पैरवीकारों और भारतीयों के प्रेरणा स्त्रोत बने हुए हैं.

यकीनन, हालांकि यह संयोग ही है, हम देख सकते हैं कि 2030 तक गरीबी-उन्मूलन, भूख और सामाजिक-आर्थिक असमानता को समाप्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की आम सभा द्वारा अंगीकृत एसडीजी में बाबा साहेब की क्रांतिकारी सोच की झलक मिलती है.’ इसके बरक्स जाति-आधारित भेदभाव को लेकर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर जो विशेष रिपोर्ट, जिसने भारत सरकार को कुपित कर दिया और वह संयुक्त राष्ट्र की इस संस्था में ‘कार्य के प्रति गंभीरता के अभाव’ और विशेष रिपोर्ट के प्रतिवेदक के अधिदेश को लेकर अनेक सवाल उठाने को उद्वेलित हो गई. भारत के संविधान निर्माता अम्बेडकर निश्चित ही इससे खुश नहीं होते. न ही भारत और विदेश में  सक्रिय दलिताधिकार कार्यकर्ता ही इससे खुश हैं.

अवधारणा और व्यवहार
संयुक्त राष्ट्र की किसी संस्था में जाति संबंधी मुद्दे पर चर्चा के दौरान भारत की अति-संवेदनशीलता का यह बेहद हाल का उदाहरण है, जिस पर मार्च, 2016 में जेनेवा में भारत के स्थायी मिशन ने तमाम आपत्तियां उठाई थीं. इस विशेष रिपोर्ट की प्रतिवेदक हंगरी की रीटा आइजक-नडिये थीं. अपनी रिपोर्ट में उन्होंने बढ़ते जाति-आधारित भेदभाव का जिक्र करते हुए श्रम विभाजन, छुआछूत भरे व्यवहार तथा जबरन सगोत्रीय विवाह का उल्लेख किया. कहा कि ये ‘वैश्विक परिघटनाएं’ हैं, जिनने विश्वभर के 250 मिलियन लोगों-जिनमें से ज्यादातर भारत में हैं-को प्रभावित किया है. यमन और जापान जैसे देशों के लोग भी इनसे प्रभावित हुए हैं.

उनकी रिपोर्ट में भारत के नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए ध्यान दिलाया गया है कि भारत में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अन्याय की घटनाएं बढ़ रही हैं. बताया है कि 2014 में इस प्रकार के अपराधों में उससे पूर्व वर्ष की तुलना में 19 प्रतिशत का इजाफा हुआ.  रिपोर्ट में कहा गया है कि कानूनन प्रतिबंध के बावजूद सिर पर मैला ढोने की प्रथा को खत्म नहीं किया जा सका है. सरकार ने इस प्रथा का संस्थानीकरण ही कर दिया है क्योंकि ‘स्थानीय निकाय शासन और नगर निगम सिर पर मैला ढोने वालों को धड़ल्ले से नियुक्त करते रहे हैं.’

इससे पूर्व, 2001 में डर्बन में आयोजित नस्लवाद के खिलाफ विश्व सम्मेलन में जब भारत की प्रमुख एनजीओ ने जातिवाद को इसके एजेंडा में शामिल कराने का प्रयास किया था, तब भारत सरकार ने इसका जोरदार तरीके से विरोध किया था. नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी आर्गनाइजेशंस के अध्यक्ष अशोक भारती ने  हाल में एक वेब पब्लिकेशन को बताया था : ‘पूरी सरकार उन उच्च जातियों के पूर्वाग्रह की शिकार है, जो अपने अपराध के बोध से ग्रस्त हैं, और इसलिए अपने दोषों को छिपाए रखना चाहती हैं.’ वह कहते हैं कि भारत सरकार ने दलितों को सहायता मुहैया कराने के लिए इतना कुछ किया है तो ‘बीते 25 सालों में उत्पीड़न के  हजारों मामले क्यों सामने आए? कितने दोषियों को सजा दिलाई जा सकी? अगर घरेलू दबावों और उपायों से काम नहीं बनता है, तो समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण किया जाना दलितों के हालात बेतहर करने की गरज से एक विकल्प हो सकता है.’

भारत को इस सबसे जो सबक सीखना चाहिए वह संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक की रिपोर्ट में भी स्पष्ट हुआ है. नस्लवाद, नस्ली भेदभाव, देश-इतर लोगों को नापसंद करना और उससे जुड़ी असहिष्णुता के मौजूदा रूपों की बाबत विशेष  प्रतिवेदक सेनेगल के डोडय़ू डियेन ने कोई एक दशक पूर्व नवम्बर, 2006 में हेग में संपन्न विश्व सम्मेलन-‘दलित महिलाओं के मानवाधिकार एवं सम्मान’-में कहा था : ‘आपको कानून के पार देखना होगा. पहचान संबंधी बातों पर ध्यान देना होगा.

ध्यान देना होगा कि सदियों के दौरान किस प्रकार से भारत की पहचान उभरी है. तमाम भेदभाव की जड़ें इतिहास में खोजी जा सकती हैं. नस्लवादी और भेदभाव करने वाले समुदाय विश्वास दिलाने की भरसक कोशिश करते हैं कि भेदभाव तो कुदरती होता है, यह प्रकृति का हिस्सा है, और इसे स्वीकार करना ही होगा. भेदभाव उनका वैचारिक हथियार है, जो सच नहीं है. भेदभाव किसी दूसरी दुनिया से नहीं आता. जाति-आधारित भेदभाव का बखूबी मुकाबला किया जा सकता  है. इतना भरकर दीजिए कि उस नस्ली और जहनी रणनीति को उखाड़ फेंकिए जो भेदभाव की संस्कृति और मनोभाव को बना रही है.’

आजादी के 68 साल बाद भी दलितों और आदिवासियों को देशभर में सिर चकरा देने वाले सामाजिक भेदभाव और रूह कंपा देने वाले उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. प्रत्येक चार में से एक भारतीय स्वीकार करता है कि घरों में वह किसी न किसी रूप में जातिगत छुआछूत बरतता है. झटका देने वाला यह निष्कर्ष नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनामिक रिसर्च (एनसीएईआर) तथा अमेरिका की मैरीलैंड यूनिवर्सिटी द्वारा देश भर में किए सव्रेक्षण से निकला है. इंडिया ह्यूमन डवलपमेंट सव्रे (आईएचडीएस-2)-2011-12 बताता है कि मुस्लिमों, ईसाइयों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों समेत करीब-करीब प्रत्येक धार्मिक और जातीय समूहों  से जुड़े भारतीय छुआछूत भरा बतार्व करते रहे हैं. जुबानी जमा खर्च से ही काम नहीं चलेगा. भारत को सदियों से हमें गिरफ्त में लिए जातिवाद के अमानवीय कलंक को झटके से परे धकेल देना होगा. बस इतना भर करना है कि सच्चाई से मुंह न मोड़े. जातिगत मुद्दों से आगे बढ़कर सुलटे.

कायाकल्प की ओर
यदि भारत को जाति-विहीन राष्ट्र की ओर पग बढ़ाने हैं, तो सामाजिक-सांस्कृतिक कायाकल्प के लिए समूचे देश में समेकित और सबको साथ लेकर सामाजिक आंदोलन की राह पर बढ़ चलना होगा. अम्बेडकर ने रास्ता दिखा दिया है : ‘किसी भी मनचाही दिशा की तरफ बढ़ चलिए जाति नाम की शै का आपसे पाला पड़ना लाजिम है. जब तक इस शै का खात्मा नहीं कर दोगे तब तक न तो आप राजनीतिक सुधार कर पाएंगे और न ही आर्थिक सुधार.’

दरअसल, दलित राजनीतिक छतरी तले आज न केवल सर्वाधिक उत्पीड़ित, शोषित और हाशिये पर धकेल दिए तबके ही समाहित हैं, बल्कि 1970 और 1980 के दशकों में ब्राह्मणवाद का बढ़कर सामना करने वाली पिछड़ी जातियां और आदिवासी भी शामिल हैं. दलित राजनीतिक दृष्टि आज बहुजन समाज पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी के कुछ हिस्सों तथा दलित राजनीति के नाम पर कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) और  अन्य पार्टियों यहां तक कि निचली-जाति-आधारित माओवादी संगठनों की सजावटी दुकानों से लगाए जाने वाले नारों से पार पहुंच गई है.

गुजरात में सेवा (सेल्फ इम्पलॉयड वीमैन‘स एसोसिएशन), मध्य प्रदेश में एनबीए (नर्मदा बचाओ आंदोलन) और राजस्थान में एमकेएसएस (मजदूर किसान शक्ति संगठन) के अलावा अन्य अनेक संगठनों ने दलित राजनीतिक चिंतन को व्यापक आधार दे दिया है. 
रोहित वेमुला की आत्महत्या ने इस सच को उजागर कर दिया है कि अंबेडकर को ‘हिंदू सुधारवादी’ के रूप में उभारा जाना सफल नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रकार के प्रयासों के आड़े वैचारिक विरोधाभास पसरे हुए हैं. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन की ओर से ब्राह्मणवादी अधिनायकवाद को मुखर करने वाले हिंदुत्व की प्रतिनिधि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को पेश चुनौती ने दलित राजनीतिक चिंतन को बेहद तार्किक ठहरा दिया है.

अब आर्थिक विकल्प के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक कायाकल्प किया जाना एक महत्त्वपूर्ण प्रयास होगा. नियति से हमारी लुकाछिपी चलती रह सकती है, लेकिन हमें अभी इसी पल सत्य का  दामन थाम लेना होगा. इसलिए कि ऐसा करके ही हम ‘अपने उस संकल्प को पूरा’ कर पाएंगे जो बीते 68 सालों से अधूरा पड़ा है. इसी से हम आदिवासियों और दलितों, भारत के गरीब और  हाशिये पर पड़े लोगों को वह सब मुहैया करा पाएंगे जिन पर उनका  हक है. यही वह बड़ी चुनौती है, जो भारत के लोगों के सामने अरसे से बनी हुई है.

सुहास बोरकर
संयोजक, वर्किंग ग्रुप आन अल्टरनेटिव स्ट्रेटिटीज, नई दिल्ली


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