बासी नजर आने लगे केजरीवाल

Last Updated 14 Feb 2016 01:46:11 AM IST

फूल की तरह आदमी भी बासी नजर आने लगते हैं. लेकिन बासी हो, इसके पहले वह अपना यौवन जी चुका होता है.


बासी नजर आने लगे केजरीवाल

आदमियों के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती. फूल की तुलना में आदमी की उम्र लंबी होती है. इसी अनुपात में उसका यौवन भी लंबा होता है. इसीलिए जब वह बहुत जल्द बासी लगने लगता है, तो आश्चर्य से अधिक दुख होता है.

आजकल दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की स्थिति के बारे में सोच कर कुछ ऐसा ही दुख हो रहा है. जब उन्होंने  कांग्रेस की सत्ता को चुनौती दे कर और नरेंद्र मोदी की विजय यात्रा को रोक कर दिल्ली की गद्दी संभाली थी, तब आशा और उत्साह का जैसा माहौल था, वैसा इसके पहले कभी भारत में देखा नहीं गया. सिवाय एक अवसर के जब, इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी को पराजित कर जनता पार्टी सत्ता में आई थी. दुर्भाग्यवश तब भी ऐसा ही हुआ था. पार्टी के विभिन्न घटक बहुत जल्द आपस में टकराने लगे थे और पार्टी अपनी दिशा खो बैठी. कुछ ही महीनों बाद पार्टी टूट भी गई और इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गई.

उम्मीद की एक नजर तब फूटी थी, जब मुख्यमंत्री की पहल से सड़कों पर सम-विषम गाड़ियों के चलने की योजना शुरू हुई थी. तब दिल्ली में काफी गरमजोशी आ गई थी. ज्यादातर लोग इस योजना का स्वागत कर रहे थे, पर कुछ उग्र आलोचक भी निकल आए थे. आलोचकों को लग रहा था कि दिल्ली सरकार उनकी आरामदेह जिंदगी में खलल डालने जा रही है. दूसरे आशान्वित थे कि अब दिल्ली में प्रदूषण का स्तर घटेगा और प्रदूषण-जनित बीमारियों से छुटकारा मिल सकेगा. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों ने भी घोषणा की कि यद्यपि सम-विषम का नियम उन पर लागू नहीं होता, पर वे इस नियम का स्वेच्छा से पालन करेंगे.

भरपूर आशंका थी कि इस योजना का सहयोग नहीं मिलेगा. लोग मनमानी करेंगे और दिल्ली सरकार के मनोरथ को पूरा नहीं होने देंगे. लेकिन जो हुआ, वह सर्वथा अप्रत्याशित था. दिल्ली की अराजक जनता ने पहली बार अनुशासन का परिचय दिया. मीडिया ने जिससे भी बात की, वह इस योजना की सराहना करता हुआ मिला. लेकिन मुख्यमंत्री अचानक भीगी बिल्ली बन गए. उन्होंने बिना किसी पूर्व-संकेत के यह घोषणा कर दी कि प्रारंभिक रूप से यह योजना सिर्फ पंद्रह दिनों के लिए है.

पंद्रह दिनों के बाद हम इसकी सफलताओं-विफलताओं का मूल्यांकन करेंगे और तब इसे नए, ज्यादा व्यावहारिक रूप में पेश करेंगे. लेकिन मूल्यांकन और समीक्षा का निष्कर्ष क्या निकला? इस बार पहले से ही घोषित कर दिया गया है कि सम-विषम संख्या की गाड़ियों की योजना 15 अप्रैल से फिर लागू होगी और इस बार भी सिर्फ पंद्रह दिन तक चलेगी. भविष्य के लिए भी कहा गया है कि यह योजना स्थायी रूप से कभी लागू नहीं होगी और प्रयोग के स्तर पर पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिए चलाई जाती रहेंगी. मैं समझता हूं कि सरकार अपनी ही एक उपयोगी योजना के साथ विश्वासघात करने जा रही है. यह प्रदूषणविहीन दिल्ली के स्वप्न के साथ एक ऐसा मजाक है, जिसके लिए दिल्ली सरकार को माफ नहीं किया जा सकता.

कुछ ऐसा ही खेल काररहित दिवस के साथ हुआ. छोटे-छोटे इलाकों में काररहित दिवस की घोषणा की गई और मुख्यमंत्री तथा उपमुख्यमंत्री स्वयं साइकिल चलाते हुए दिखे. लेकिन जल्द ही यह क्रेज खत्म हो गया. अब उसका कोई नाम तक नहीं लेता. मैं नहीं समझता कि महीने में एक दिन दिल्ली को काररहित रखने में कोई गंभीर बाधा है. ऐसी किसी भी योजना में  छोटी-मोटी व्यावहारिक बाधाएं आती हैं, लेकिन ये बाधाएं ऐसी नहीं होतीं कि उन पर काबू पाया जा सके. कोई भी यह कहेगा कि काररहित योजना और सम-विषम योजना से लाभ ही अधिक होगा, नुकसान बहुत कम. घरों, दफ्तरों और होटलों में समाजवाद आए न आए, सड़कों पर कुछ समय के लिए समाजवाद तो आ ही सकता है.

लेकिन अरविंद केजरीवाल क्या किसी भी किस्म का समाजवाद चाहते भी हैं? वे मध्य वर्ग की उपज हैं और मध्य वर्ग के अस्थायी हितों को छेड़ना नहीं चाहते. जनता की सुविधाओं की तुलना में मध्य और उच्च वर्ग की कुछ असुविधाएं उन्हें भारी लगती हैं. शायद वे भूल रहे हैं कि जिस तरह हमें सुविधाओं की लत लग जाती है, वैसे ही असुविधाओं का भी अभ्यास हो जाता है. इसलिए शुरू में कुछ लोगों को भले ही दिक्कत हो, पर बाद में यह सामान्य लगने लगेगा. दिल्ली एक बड़ा शहर है और लगातार फैलती जा रही है.

दिल्ली की समस्या सिर्फ  यह नहीं है कि झुग्गी-झोपड़ियों को तोड़ा न जाए, समस्या यह है कि दिल्ली बासी गरिमामय जीवन कैसे बिता सकते हैं. नि:संदेह इसमें झुग्गी-झेपड़ियों में रहने वाले ज्यादा शामिल हैं. अभी हाल तक केजरीवाल केंद्र सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल से जूझने में लगे हुए थे, अब उन्हें चाहिए कि वे अपनी सरकार की सीमाओं को समझते हुए निर्माण के काम में लगें. वैसे, संघर्ष और रचना दोनों बखूबी एक साथ चल सकते हैं. यह लोकपाल के लिए संघर्ष करने वाले से ज्यादा कौन जान सकता है?

राजकिशोर
लेखक


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