जेएनयू : ऐसी अभिव्यक्ति के खतरे

Last Updated 12 Feb 2016 01:29:54 AM IST

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में दस फरवरी को अफजल गुरु और मकबूल बट की स्मृति में आयोजित कथित सांस्कृतिक संध्या ‘देशभक्ति’ बनाम ‘अभिव्यक्ति’ की बहस का नया मुद्दा बन गया है.


जेएनयू : ऐसी अभिव्यक्ति के खतरे

जेएनयू छात्रसंघ के पदाधिकारी भी आपस में बंट गए हैं. एक तरफ एआईएसएफ के अध्यक्ष हैं, जो संविधान द्वारा मिली हुई अभिव्यक्ति की आजादी को अनुल्लंघनीय मानते हैं. दूसरी तरफ, एबीवीपी के उपसचिव हैं, जो देशभक्ति को अभिव्यक्ति से ऊपर मानते हैं.

वामपंथी छात्र संगठनों की राय में किसी भी विषय पर शांतिपूर्वक अपना विरोध दर्ज करना गलत नहीं है. दक्षिणपंथी छात्र संगठन का कहना है कि देश के विरुद्ध किसी तरह की भावना को व्यक्त नहीं होने देना चाहिए. मामला यह है कि अफजल गुरु  और मकबूल बट कश्मीर पर भारत के अधिकार को कब्जा मानते थे. उन्हें आतंकवादी गतिविधियों के समर्थन के आरोप में फांसी की सजा मिली. बट को 1984 में और अफजल को 2013 में. बहुत-से लोग यह मानते रहे हैं कि अफजल पर आरोप सिद्ध नहीं हुए थे फिर भी उसे राजनीतिक कारणों से फांसी दी गई. ऐसा मानने वालों में अनेक वामपंथी भी हैं.

दूसरी तरफ, राजनीतिक दक्षिणपंथ की राय में इन दोनों का देशद्रोह सिद्ध है और इनसे सहानुभूति रखना भी देशद्रोह के सिवा कुछ नहीं है. स्वभावत: यह एक विचारधारात्मक प्रश्न है, केवल राष्ट्रवाद का नहीं. जहां तक दस फरवरी की घटना का मुद्दा है, निस्संदेह उसमें कुछ अतिवाद प्रकट हुआ. आयोजकों ने एक पोस्टर में लिखा था कि ‘कश्मीर पर कब्जे और उसके विरु द्ध जनता के संघर्ष को चित्रित करने वाली एक कला और फोटो प्रदर्शनी’ होगी. सांस्कृतिक-प्रतिरोध का मुद्दा ‘अपने लोकतांत्रिक और आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए कश्मीरी जनता के संघषर्’ का समर्थन है. किन्तु जैसा शोर-शराबा किया जा रहा है, सब कुछ उतना निर्विवाद नहीं है. पुलिस का कहना है कि वीडियो फुटेज के निरीक्षण से वह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि किस तरह के नारे लगे हैं और उसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं.

आरोप यह है कि सांस्कृतिक संध्या के आयोजकों ने अफजल-मकबूल को ‘शहीद’ बताया और नारे लगे कि ‘कश्मीर की आजादी तक जंग चलेगी/भारत की बरबादी तक जंग चलेगी.’ अगर यह सच है तो देशभक्ति के नाम पर आग भड़काने के लिए पर्याप्त सामग्री है और वामपंथ पर आक्रमण का यथेष्ट बहाना भी है, लेकिन इसके आधार पर जेएनयू को देशद्रोहियों का जमघट बतानेवालों को यह  मौका मिला कि वे विश्वविद्यालय को ही बंद करने का नारा लगाने लगे. इसमें संदेह नहीं कि वामपंथी छात्र नेताओं को इस तरह के आयोजन से अपना संबंध बहुत सावधानी के साथ कायम करना चाहिए, लेकिन जेएनयू को लेकर एक गंभीर समस्या है.

पूरे देश में दक्षिणपंथ की लहर के बीच भी वह वामपंथ का दुर्ग बनकर मौजूद रहा. इसलिए वह ‘राष्ट्रवादियों’ के निशाने पर रहा है. कुछ ही दिन पहले एक केंद्रीय मंत्री ने जेएनयू को देशद्रोहियों का अखाड़ा बताया था,  लेकिन जेएनयू-ब्रांड वामपंथ का कुलीनतावादी रवैया यह नहीं देखता कि एक विश्वविद्यालय पूरे देश के आम वातावरण से अलग-थलग द्वीप नहीं है. इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा ‘भारत की बरबादी’ के नारे तक नहीं जा सकती. साथ ही, यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला का मामला इसी से संबंधित था. वहां भी अफजल गुरु के स्मरण के लिए सभा होनी थी. वहां भी एबीवीपी ने देशद्रोह का आरोप लगाते हुए अभियान छेड़ा था. उसी अभियान के कारण बंडारू दत्तात्रेय ने मानव संसाधन मंत्री को पत्र लिखा था.

जेएनयू में भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने एबीवीपी के एतराज के बाद सांस्कृतिक संध्या का आयोजन करने कि अनुमति वापस ले ली थी. आयोजन करनेवाले छात्र अपनी योजना पर आगे बढ़े. वामपंथी छात्र नेताओं का कहना है कि वे भले आयोजक न रहे हों, लेकिन आयोजकों के प्रतिरोध के अधिकार का समर्थन करते हैं. दिलचस्प बात यह है कि प्रशासन का कहना है कि आयोजकों ने अधूरी सूचना देकर अनुमति मांगी थी इसलिए यह अनुशासनहीनता का मामला है. किंतु एबीवीआईपी कहती है कि सीधे देशद्रोह का मामला है और यदि सप्ताह भर में आरोपितों को बर्खास्त नहीं किया गया तो गंभीर परिणाम होंगे.

यह बात वामपंथी संगठनों के समझने की है कि ‘देशभक्ति’ की आंधी में कोई तर्क, कोई विवेक ठहर नहीं सकता, लेकिन विश्वविद्यालय की एक संस्था के द्वीप में बंद होकर व्यापक यथार्थ से मुंह चुराना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी खतरे में डालने वाला सिद्ध होगा. यह बराबर देखा जा रहा है कि स्वतंत्र विचार पर हमले बढ़ रहे हैं, खुद जेएनयू पर निशाना सधा हुआ है. माहौल यह है कि दाभोलकर-कलबुर्गी की हत्या का विरोध भी देशद्रोह की श्रेणी में रख दिया जाता है. आज मतभेद माने देशद्रोह बनता जा रहा है.

ऐसे में कोई भी रणनीति आत्मघाती होगी यदि वह ऐसे आरोपों और हमलों को आमंत्रित करती है. जेएनयू में जो हुआ, वह महज अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है बल्कि उसका दुरु पयोग है.
जेएनयू उन्नत अध्ययन की एक सम्मानित संस्था है. उसने स्वतंत्र बौद्धिक गतिविधि के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है. इस गतिविधि के केंद्र में मूलत: वामपंथी और लोकतांत्रिक विचार-परम्पराएं रही हैं. आज स्थिति बदल गई है. वामपंथियों और ‘फ्री-थिंकर्स’ के बीच बंटवारा नहीं है. वह वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच है. अगर जेएनयू के स्वतंत्र बौद्धिक वातावरण की रक्षा होगी तो वह उन लोगों के द्वारा नहीं होगी जो उसे बंद करने की मांग कर रहे हैं. उसे बचाने की जिम्मेदारी वामपंथ की है.

अफसोस यह है कि वामपंथ अपनी ऐतिहासिक गलतियों के चलते खुद अपना अस्तित्व बचाए रखने में लोहे के चने चबा रहा है; फिर भी गलतियां कर रहा है. अगर यह सच है, जैसा जेएनयू के कई प्राध्यापकों ने बताया कि भारत-विरोधी नारे कुछ बाहरी लोगों ने लगाए थे, तब यह और जरूरी हो जाता है कि वामपक्ष अपनी स्थिति अधिक स्पष्ट रखे. अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होना और ‘भारत की बरबादी’ का विरोध करना साथ-साथ आवश्यक होगा. इस नाजुक संतुलन के बिगड़ने पर न केवल जेएनयू के स्वतंत्र बौद्धिक वातावरण के लिए विनाशकर होगा बल्कि देश में वामपक्ष के लिए व्यापक रूप में हानिकर होगा. और यह तय है कि उसे इस स्थिति से बचाने में उसके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी सहायक न होंगे.

डॉ. अजय तिवारी
लेखक


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