गंगा के लिए सब हों संजीदा

Last Updated 10 Feb 2016 02:22:26 AM IST

भारत में गंगा एक ऐसी नदी है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक लोगों की आस्था का केंद्र है, लेकिन इस नदी का पानी आज पीने लायक भी नहीं है.


गंगा के लिए सब हों संजीदा

मैं सोचता हूं कि ऐसा कैसे हुआ कि देश के ज्यादातर लोगों की आस्था जिस नदी पर है, उसकी दुर्दशा आखिर उन्होंने ही क्यों कर दी? बहुत से लोग मानते हैं कि गंगा की इस हालत के लिए सरकारें जिम्मेदार हैं, लेकिन मेरा उनसे सवाल है कि अगर सरकारें जिम्मेदार हैं, तो उन्होंने उनका विरोध क्यों नहीं किया?

क्या हम नदियों, तालाबों, झीलों में पूजा-पाठ की सामग्री प्लास्टिक की थैलियों में बांधकर फेंकने की अपनी छोटी-सी आदत बदल पाए हैं? मेरा साफ तौर पर मानना है कि बिना जन-भागीदारी के गंगा और दूसरी नदियों को गंदा होने से नहीं रोका जा सकता. अब केंद्र में मोदी सरकार ने भी जनता की मदद से गंगा को साफ करने की पहल की है, तो मैं इसका स्वागत करता हूं. 30 जनवरी को दिल्ली में गंगा किनारे वाले इलाकों के 1600 से ज्यादा ग्राम प्रधानों और सरपंचों का सम्मेलन बुलाया गया. इसमें केंद्र सरकार के कई मंत्रालयों ने शिरकत की.  सम्मेलन में सरकार ने माना कि गंगा में प्रदूषण के लिए खासतौर पर बड़े-बड़े शहरों के सीवर और औद्योगिक कचरा जिम्मेदार है, लेकिन गंगा किनारे बसे गांवों का कचरा भी इसकी बड़ी वजह है. साफ है कि बिना जन-भागीदारी के यह प्रोजेक्ट कामयाब नहीं हो सकता.

गंगा को पूरी तरह साफ-सुथरी बनाने में करीब 50 हजार करोड़ रु पये का खर्च आने का अनुमान है. इसमें पांच साल लग सकते हैं, लेकिन प्रोजेक्ट के पूरी तरह सफल होने में 15 से 20 साल लग सकते हैं, क्योंकि केवल पानी की सफाई की ही बात नहीं है, बल्कि गंगा किनारे घाट बनाने, उनके सौंदर्यीकरण और पर्यटन और व्यापार के लिहाज से गंगा में यातायात बहाल करने का भी काम होना है. मोदी सरकार इसके लिए कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘नमामि गंगे’ प्रोजेक्ट के लिए 20 हजार करोड़ का बजट आवंटित किया गया है.

इससे पहले तीस साल तक गंगा की सफाई पर करीब चार हजार करोड़ रुपये ही खर्च किए गए थे. वह रकम भी ज्यादातर अफसरों और ठेकेदारों की जेब में ही चली गई. अगर तब गंगा की साफ-सफाई का बेसिक काम भी शुरू हुआ होता, तो अब मोदी सरकार के सामने इतनी दिक्कत नहीं होती. गंगा किनारे 118 शहर बसे हैं, जिनसे रोज करीब 364 करोड़ लीटर गंदगी और 764 उद्योगों से होने वाला प्रदूषण गंगा में मिलता है. यह बहुत बड़ी चुनौती है और बिना लोगों के जागरूक हुए इससे निपटा नहीं जा सकता.  अब अच्छी बात यह कि मोदी सरकार के सात मंत्रालयों ने इस गंभीर चुनौती को फतह करने के लिए हाथ मिला लिए हैं. ये मंत्रालय हैं- मानव संसाधन विकास, पोत परिवहन, ग्रामीण विकास, पेयजल और स्वच्छता, पर्यटन, आयुष और युवा व खेल मामले.

पहले योजना थी कि गंगा की सफाई पर खर्च का 75 फीसद केंद्र और 25 फीसद बोझ राज्य उठाए, लेकिन मोदी सरकार ने दरियादिली दिखाते हुए सारे खर्च का जिम्मा अपने पर लिया है. हालांकि मैं फिर जोर देकर कह रहा हूं कि बिना देश के आम लोगों की भागीदारी के इस दिशा में हमें पूरी कामयाबी नहीं मिल सकती. हमारी आस्था की नदी गंगा की स्थिति दुनिया के दूसरे देशों की बड़ी नदियों के मुकाबले अलग है. मॉनसून में गंगा का पाट औसतन करीब 15 फीट तक बढ़ जाता है, जबकि सर्दियों में यह बहुत कम हो जाता है. माना जाता है कि गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं, लिहाजा रोज लाखों लोग इसमें डुबकी लगाते हैं. करोड़ों लोग महाकुंभ, अर्धकुंभ और दूसरे मौकों पर गंगा में डुबकी लगाने के लिए कई-कई दिनों तक गंगा किनारे जुटते हैं.

जाहिर है कि सैकड़ों टन पूजा सामग्री गंगा में फेंकी जाती है. इसके अलावा, बड़े पैमाने पर अंतिम संस्कार भी गंगा के किनारे किए जाते हैं. साथ ही, देश के दूसरे हिस्सों से लोग अस्थि विसर्जन के लिए भी बड़ी संख्या में गंगा पहुंचते हैं. अगर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर औद्योगिक कचरे की समस्या का हल निकाल लें और सख्ती से इस पर अमल कर भी लें, तब भी रोज करोड़ों लोगों के संपर्क में आने वाली गंगा प्रदूषित ही रहेगी, जब तक कि लोगों के मन में इसकी साफ-सफाई को लेकर पुख्ता भावनाएं नहीं पनपती.

यह भी कड़वा सच है कि आज के आर्थिक दौर में केवल आस्था के नाम पर ही आप लोगों को किसी सामाजिक मुहिम से बहुत दिनों तक जोड़े नहीं रख सकते. ज्यादातर लोगों में गंगा को लेकर आस्था आज भी घटी नहीं है. हां, पहले की तरह अब ऐसा नहीं होता कि सच-झूठ का फैसला गंगाजल हाथ में लेकर होता हो. ऐसे में अगर गंगा को साफ रखना है, तो इसे लोगों के कर्त्तव्यों के साथ-साथ रोजगार से भी जोड़ना होगा. गंगा किनारे नदी से जुड़े रोजगार के मौके पैदा करने होंगे. केंद्र सरकार ने यह पहल भी शुरू कर दी है. लोगों को जैविक खेती के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा. इस तरह ‘नमामि गंगे’ केवल गंगा के पानी की साफ-सफाई तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह एक समग्र आंदोलन होना चाहिए.

अभी तक ज्यादातर तो गंगा पंडे-पुजारियों के पेट भरने का ही जरिया है, लेकिन अब मोदी सरकार चाहती है कि श्रद्धालुओं को विकास के कामों के लिए दान देने के लिए प्रेरित किया जाए. विकास कार्यों में दानदाताओं के नाम के शिलापट्ट लगाए जाएं. मॉडल धोबी घाट बनाने के साथ-साथ आधुनिक शवदाह गृह विकसित किए जाएं. लोगों को बताया जाए कि वे अपनों का अंतिम संस्कार आधुनिक पद्धति से करें, तो उनके रिश्तेदारों को सौ फीसद मोक्ष मिलेगा. प्रधानमंत्री चाहते हैं कि इस मुहिम में आम लोगों की भागीदारी के साथ देश के नामचीन लोग भी जुड़ें.

हाल ही में मैंने किसी अखबार में पढ़ा कि कश्मीर घाटी की डल झील की सफाई एक स्वयंसेवी संस्था ने बिना किसी सरकारी मदद के की. यह अपनी तरह की अनोखी पहल थी. लोगों से अपील की गई कि वे डल झील की सफाई में मदद करें, बदले में उन्हें कपड़े दिए जाएंगे. बड़ी संख्या में लोग सफाई में जुट गए.

कपड़े देने का पल्रोभन नहीं दिया जाता, तब भी लोग डल की सफाई करते ही. इसे ‘वस्त्र सम्मान’ का नाम दिया गया. झीलों की नगरी राजस्थान के उदयपुर शहर के लोगों ने पिछले दिनों श्रमदान कर झीलों की सफाई की. उन्होंने बाकायदा ‘झील हितैषी नागरिक मंच’ बना रखा है. मंच की शिकायत है कि राजस्थान हाईकोर्ट की सख्ती के बावजूद प्रशासन इस तरफ कड़ाई नहीं कर रहा है. अभी हाल ही में राजस्थान हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने राज्य सरकार को एक मार्च, 2016 तक राजस्थान झील विकास प्राधिकरण बनाने का आदेश दिया है. 26 जनवरी को केरल में कोझिकोड के जिलाधिकारी ने फेसबुक पर लोगों से अपील की कि, शहर की बड़ी झील की अगर वे सफाई करेंगे, तो उन्हें बिरयानी खिलाई जाएगी.

अपील रंग लाई और लोगों ने झील को निर्मल बना दिया. यह बेहद गंभीर बात है कि इंसानों की करतूत का असर पूरे कुदरत पर पड़ रहा है. मैं चाहता हूं कि न केवल गंगा, बल्कि देश की सभी नदियों की पवित्रता लौटाने की जरूरत है. मोदी सरकार ने अपना काम पूरी ईमानदारी से शुरू कर दिया है. अब बारी आम आदमी की है, हमारी और आप की है. जो नदियां हमें जीवन देती हैं, उन्हें मिटाने का काम हम न करें. सरकार के कंधे से कंधा मिलाकर काम करें.
(लेखक भाजपा के राज्य सभा सांसद हैं)

विजय गोयल
लेखक


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