समझनी होंगी अपनी हदें

Last Updated 09 Feb 2016 01:47:23 AM IST

दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (एमसीडी) की आड़ में दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, वह निहायत ही मूर्खतापूर्ण कार्रवाई का हिस्सा है.


समझनी होंगी अपनी हदें

जब से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तब से राजधानी दिल्ली सियासी, मनोवैज्ञानिक और नैतिक रूप से कमजोर हुई है. अनर्गल विवाद इसकी दिनचर्या में शामिल हो गया है. आए दिन बेवजह की दलीलों और कुतरे के कारण देश की राजधानी हांफने लगी है. ताजा मसला म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के अंतर्गत आने वाले कर्मचारियों की हड़ताल का है. हड़ताल की वजह वेतन बकाया है, लेकिन दरअसल लड़ाई के केंद्र बिंदु में सियासत है.

देखिए, एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि दिल्ली में जो भी सरकार आई, उसने तलवार नहीं भांजी. उसने तय नियम और कानून के तहत ही विकास का एजेंडा आगे बढ़ाया और राज किया. 1993 के बाद से अब तक दिल्ली में चार मुख्यमंत्रियों ने शासन किया. सभी लोगों ने नियम के तहत ही कानून बनाए और राज्यपाल के माध्यम से उन्हें महामहिम राष्ट्रपति से पारित भी कराया. हां, जुदा बात यह है कि केजरीवाल की सरकार ऐसा नहीं कर रही है और न वे ऐसा करने की चाहत रखती है. इस सरकार को यह भ्रम हो गया है कि इनकी ताकत बेशुमार है और हमें किसी भी काम के लिए केंद्र के आगे नहीं जाना है. भाई, जो नियम बने हैं, कम-से-कम उसका पालन तो केजरीवाल सरकार को करना ही चाहिए.

देखिए संविधान का अनुच्छेद 239 साफ तौर पर कहता है कि, ‘सभी केंद्र शासित प्रदेशों का संचालन भारत के राष्ट्रपति करेंगे एक प्रशासक के माध्यम से जिसका नाम होगा उप राज्यपाल.’ यह भी स्पष्ट है कि दिल्ली का शासन राष्ट्रपति ही चलाते हैं उप राज्यपाल के जरिये. यह उन्हीं का शासन है. चूंकि राष्ट्रपति सीधे शासन नहीं चला सकते तो उन्होंने उप राज्यपाल को रखा है. दिल्ली में अगर किसी की बादशाहत है तो वह राज्यपाल के जरिये राष्ट्रपति की ही है. इस तय नियम को कोई भी बदल नहीं सकता. न तो दिल्ली की सरकार, न राज्यपाल, न केंद्रीय गृहमंत्री, न उप राज्यपाल और न राष्ट्रपति. इसे सिर्फ संसद बदल सकती है. वह भी दो तिहाई बहुमत के दम पर.

इसलिए, फिलहाल जो व्यवस्था है, उसमें दिल्ली सरकार जो उछल-कूद मचा रही है, उसका कोई भी अर्थ नहीं है. यह समय और ऊर्जा की बर्बादी है. हैरत की बात यह है कि दिल्ली सरकार इस बात को नहीं समझ रही है. एक खास बात का जिक्र यहां करना गलत नहीं होगा. जब दिल्ली सरकार और केंद्र की खींचतान को लेकर कुछ माह पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलने गए, तो राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें संविधान की प्रति दी. दरअसल, राष्ट्रपति इन्हें राज्य और केंद्र शासित राज्यों के बारे में संविधान में दर्ज नियमों के बारे में बतलाना चाहते थे. संविधान की प्रति देने का आशय यह था कि, आप पहले नियम को समझें, लेकिन इस संकेत को भी ये लोग नहीं समझे.

जहां तक बात एमसीडी और और अन्य विभागों की है तो, इस मामले में सिवाय राजनीति के कुछ नहीं हो रहा. एमसीडी दरअसल एमसीडी एक्ट1956 के तहत अस्तित्व में आया. यहां काम करने वालों के लिए वेतन आदि का खर्च केंद्र सरकार के जरिये दिल्ली सरकार को जाता है. चूंकि केंद्र सीधे निगमों का काम अपने हाथ में नहीं रखती, इसलिए वह दिल्ली सरकार के हाथों यह काम कराती है. इसलिए केजरीवाल सरकार की यह दलील भी बेमानी लगती है कि वह एमसीडी कर्मियों के वेतन के लिए लोन लेगी. कहने का आशय है कि हमेशा से दिल्ली की सरकार केंद्र से टकराव के मूड में रही है. चाहे वह पुलिस का मसला रहा हो, जमीन यानी डीडीए का मसला रहा हो या कानून-व्यवस्था का मसला रहा हो.

जब संविधान ने यह लिखित में बता दिया कि इन तीन विभागों पर सिर्फ और सिर्फ केंद्र का दखल रहेगा, फिर बेवजह की बत्तगंड़बाजी करने का मकसद साफ समझा जा सकता है. 1979 में बनी बालकृष्णन कमिटी ने भी काफी माथापच्ची करने के बाद बिल्कुल स्पष्ट तौर पर दो बातें कही. पहला, दिल्ली सरकार कोई भी कानून नहीं बना सकती और दूसरा, कोई भी बिल/विधेयक पास कराने से पहले उसे उप राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार को भेजना होगा. आश्चर्य की बात है कि, इसे जानते हुए भी सिर्फ विवाद बढ़ाने और टकराव लेने के लिए केजरीवाल सरकार ने लोकपाल बिल और वेतन बढ़ाने संबंधी बिल विधानसभा में पारित कर दिया. अब, इसे क्या कहा जाए?

देखिए, एक बात जो मैंने पहले भी कही कि केंद्र शासित राज्य और पूर्ण राज्य दोनों अलग-अलग नियमों से संचालित होते हैं. भारत में 29 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं. 29 राज्यों में चुनाव होते हैं और वहां के शासन का मुखिया मुख्यमंत्री होता है, जबकि केंद्र शासित राज्यों जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, यह ऐसे राज्य हैं जो राज्य नहीं बनाए जा सकते थे या राज्य नहीं बनाए गए या जिनको राज्य बनाना संभव नहीं था. इसलिए इन्हें केंद्र के पाले में डाल दिया गया. केंद्र ने यह साफ कर दिया कि इन केंद्र शासित प्रदेशों का शासन भारत के राष्ट्रपति एक प्रशासक के माध्यम से करेंगे जिनका नाम होगा उप राज्यपाल. तो एक बात स्पष्ट होनी चाहिए कि जो लोग भले बहुमत के साथ लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर आए हों; न तो उन्हें और न उनके सलाहकार को संविधान समझ में आता है और न ही संघ की प्रक्रिया समझ में आती है. जिसका नाम ही केंद्र शासित प्रदेश है; उस पर किसी और का राज्य कैसे हो जाएगा? दूसरी बात, दिल्ली भारत की राजधानी है, दिल्ली केंद्र सरकार का मुख्यालय है तो उस पर किसी और का शासन कैसे हो जाएगा?

मैंने 1993-2013 तक चार मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया. इस दौरान कुल 202 बिल पारित हुए. उसके बाद केंद्र सरकार से होते हुए राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद प्रभावी भी हुए. न जाने क्यों दिल्ली की सरकार इस बात की गंभीरता को क्यों नहीं समझती है? मेरा मानना है कि हमेशा टकराव, वाद-विवाद करने से होने वाला काम पर भी विराम लग जाता है. दिल्ली के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है. उसे अपनी हद समझनी होगी और फिर उसके दायरे में ही अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना होगा. इस मामले में मैं पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का जिक्र करना चाहूंगा. उन्हें मालूम था कि काम कैसे कराना है. वह केंद्र के पास पांच-छह मांगों के साथ जाती थी जिसमें से दो-तीन मांगों पर मुहर लग जाती थी. मुख्यमंत्री इसे अपनी जीत के तौर पर देखती थीं तो केंद्र इसे अपनी विजय के रूप में देखता था. खास बात यह थी कि इसमें नुकसान किसी का नहीं था. यही वजह है कि शीला जी के कार्यकाल में विकास होते हुए दिखा भी. काश! केजरीवाल भी कुछ ऐसा ही सोचें. आमीन.

(लेखक दिल्ली विधान सभा सचिव रहे हैं)

एस.के. शर्मा
लेखक


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