सफर लंबा पर वक्त है कम

Last Updated 08 Feb 2016 05:19:56 AM IST

पड़ोसी देश म्यांमार में हाल ही में जो चुनाव संपन्न हुए हैं, उनके नतीजे उस देश में जनतंत्र की बहाली के ही संदर्भ में नहीं, भारत के साथ उसके संबंधों के सिलसिले में भी महत्त्वपूर्ण समझे जाने चाहिए.


सफर लंबा पर वक्त है कम

इसीलिए यह बात जरा अटपटी लगती है कि इनकी तरफ विश्लेषकों का ध्यान अभी तक नहीं गया है. 2010 के चुनाव में भारी घोटाले के कारण इनका बहिष्कार किया गया था. अत: यह कहा जा सकता है कि 1990 में निरस्त चुनाव के बाद यह पहले चुनाव निर्भय-निष्पक्ष-आजाद चुनाव हैं. अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में अक्टूबर-नवम्बर 2015 में यह चुनाव संपन्न हुए, जिनमें आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने भारी जीत हासिल की.

पिछली बार कि तरह इस बार भी उन्हें कुल मतों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ और ऊपरी सदन \'हाउस ऑफ नेशनलटीज\' तथा निचले सदन \'हाउस ऑफ रिप्रसेंटेटिव्स\' के साथ-साथ  प्रांतीय संसदों के लिए हुए चुनाव में भी सेना के लिए आरक्षित सीटों के अतरिक्त सभी पर सूची की जीत हुई. सत्तारूढ़ सेना की पार्टी यूनियन सॉलिडैरिटी  एंड डेवलपमेंट पार्टी को यह कबूल करना पड़ा है कि सू की के साथ सत्ता की साझेदारी के बिना देश शांत और सुस्थिर नहीं रह सकता. तब भी इस नतीजे तक पहुंचने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए कि आगे का मार्ग सहज है.

म्यांमार में लागू संविधान के अनुसार सू की राष्ट्रपति पद की दावेदार नहीं हो सकतीं, भले ही उनकी  पार्टी अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद पर नामजद-निर्वाचित करने की हालत में है क्योंकि उनकी संतानें विदेशी नागरिक हैं. संविधान का यह प्रावधान सू की को सत्ता से वंचित रखने के लिए ही रखा गया है. यों सू की ने एलान किया है कि नए निजाम में वह राष्ट्रपति से ऊपर होंगी, पर यह व्यवस्था जनतांत्रिक कतई नहीं कही जा सकती. इसके अलावा, इसी संविधान के अनुसार रक्षा, सीमा तथा गृहमंत्री की नियुक्ति निर्वाचित राष्ट्रपति नहीं; सेना के जनरलों की मंडली ही करेगी. यह देखने लायक होगा कि इन तीन \'सामरिक दृष्टि से संवेदनशील\' मंत्रालयों तथा अति महत्त्वपूर्ण आर्थिक मंत्रालयों की गतिविधियों में तालमेल कैसे बैठाया जाता है.


विदेशी पूंजी का निवेश हो या आधारभूत ढांचे का सुधार, आयात-निर्यात हो अथवा रोगग्रस्त खेती एवं उद्योग धंधों में तत्त्काल सुधार का प्रयास सबसे बड़ी चुनौती; सेना के उस असरदार तबके पर अंकुश लगाने की है, जिसके न्यस्त स्वार्थ अब तक फौजी तानाशाही के भ्रष्टाचार में फलते फूलते रहे हैं. \'सामरिक\' जोखिम की ढाल-तलवार का इस्तेमाल कर किसी भी वक्त आर्थिक सुधारों के प्रयास को ध्वस्त करने की साजिश रची जा सकती है या जनतंत्र की जडें कुतरी जा सकती हैं. सू की के \'विदेशी\' रिश्तों के कारण ऐसे आरोपों की आशंका निरंतर बनी रहेगी. इतनी ही विकट दूसरी समस्या देश के अल्पसंख्यकों को सार्वजनिक जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की है. कुछ वर्ष पहले तक म्यांमार में दर्जनों जनजातियां-करेन, कचिन, शान, मौन, अराकानी-बहुसंख्यक बर्मनों के खिलाफ हिंसक बगावत के पथ पर उतर चुकी थीं. आज इनमें अनेक का दमन-शमन हो चुका है, पर आज भी करेन उपद्रवी सीमांती क्षेत्र को अस्थिर अराजक बनाए हैं. शायद इससे भी बड़ा सरदर्द रोहिंगियाइयों का है.



भारत-बांग्लादेश की सरहद वाले इलाके के यह जनजातीय इस्लाम का अनुसरण करते हैं और इनकी शिकायत है कि इनका अमानवीय उत्पीड़न बहुसंख्यक बौद्ध बर्मन करते रहे हैं. दूसरी तरफ, शांतिप्रिय और अहिंसक समझे जाने वाले बौद्ध भिक्षुओं की शिकायत है कि यह रोहिंगिया कट्टरपंथी इस्लामी अलगाववादियों के असर में हैं और म्यांमार से इन्हें कोई लगाव नहीं. इनकी अराजक असामाजिक-आपराधिक गतिविधियां देश को कमजोर ही करती रही हैं. जो भी हो, रोहिंगिया समूह को सांप्रदायिक हिंसा का सामना करना पड़ा है. इस वक्त करीब 140,000 रोहिंगिया शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं और काफी बड़ी संख्या में जर्जर नावों में सवार थाईलैंड, मलेशिया आदि देशों में पनाह लेने निकलते रहते हैं.
 
अभी हाल तक मानवाधिकारों के इस उल्लंघन के लिए म्यांमार की सैनिक सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है पर अब सू की से यह अपेक्षा है कि वह सभी नागरिकों के प्रति न्याय करेंगी. कई आलोचकों का मानना है कि इस बारे में सू की के वक्तव्य निराशाजनक रहे हैं. उनका यह कहना कि म्यांमार की आंतरिक समस्या को अतिरंजित तरीके से पेश नहीं किया जाना चाहिए यही दर्शाता है कि वह निष्पक्ष नहीं समझी जा सकतीं. इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि सू की की जनतंत्र की बहाली के लिए मुहिम में म्यांमार के बौद्ध संघ ने हमेशा हाथ बंटाया है और फौजी दमन को झेला है. उसकी आशंकाओं को अनदेखा करना, सूची के लिए कठिन होगा.

वैसे, यह सवाल भी उठाया जा सकता है कि क्या पिछले दो दशक के अनुभवों ने म्यांमार के समाज को शहरी-देहाती, धार्मिंक तथा कमोबेश धर्मनिरपेक्ष भाग में नहीं बांट दिया है? सेना ने सू की को सत्ता से बाहर रखने के लिए राजनैतिक व्यवस्था पर अपनी सख्त जकड़ बनाए रखी, पर उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के सीमित प्रवेश की अनुमति क्रमश: आर्थिक सुधारों के नाम पर दी है. इस नरमी को कुछ टिप्पणीकार भूमंडलीकरण के अनिवार्य प्रसार का प्रभाव बतलाते हैं तो अन्य नई पीढ़ी के जनरलों की \'आधुनिक\' परिवर्तन कामी सोच का नतीजा. बहुत सारे विदेशी पत्रकारों, पर्यटकों ने म्यांमार के \'बदलते माहौल\' में उत्साही छोटे उद्यमियों की सक्रियता को रेखांकित किया और उन संभावनाओं का जिक्र किया है, जो बरसों बाद प्रकट हो रही हैं.

यहां एक बार फिर यह याद दिलाने की जरूरत है कि आर्थिक विकास, व्यक्तिगत लाभ और शहरी जीवन में भोग विलासी आजादी का सीधा नाता राजनैतिक व्यवस्था के जनतांत्रिकीकरण से नहीं होता. रूस और चीन  के अनुभव यही दर्शाते हैं. यह भी ना भूलें की सू ची ने नजरबंद रहते बहुत लंबी लड़ाई लड़ी हैं. वह अपने समर्थकों से अलग-थलग रही  हैं. नौजवानों की एक नई पीढ़ी इस बीच वयस्क हुई है, जो उनके करिश्माई व्यक्तित्त्व से परिचित तो है, पर जिसकी सीधी हिस्सेदारी उन संघर्ष में नहीं रही, जिनका शानदार नेतृत्व सू की ने अतीत में किया है.

दूसरे शब्दों में, चुनावी जीत के बाद सत्ता-सुख भोगने को आतुर सहयोगी-समर्थक भी सू की की परेशानियां बढ़ा सकते हैं. भारत में आपातकाल की समाप्ति के बाद कुछ ऐसा ही घटनाक्रम लोकनायक जयप्रकाश नारायण को देखने को मिला था. पिछली बार चुनाव जीतने के बाद सू की ने कहा था-\'यह पहला कदम है, एक लंबे सफर का!\' आज हम जोड़ सकते हैं-सफर लंबा है और समय कम है; निर्विघ्न मंजिल तक पहुंचने को!

 

 

 

पुष्पेश पंत
लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं


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