वर्तमान संदर्भ में भूगोल की बढ़ती महत्ता

Last Updated 08 Feb 2016 05:02:31 AM IST

परंपरागत रूप में भूगोल की परिभाषा यह थी कि यह वह शास्त्र है जिसके द्वारा पृथ्वी के ऊपरी स्वरूप और उसके प्राकृतिक विभागों (जैसे, पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, डमरूमध्य, उपत्यका, अधित्यका, वन आदि) का ज्ञान होता है.


वर्तमान संदर्भ में भूगोल की बढ़ती महत्ता (फाइल फोटो)

लेकिन अब भूगोल को सिर्फ इसी अर्थ में नहीं समझने की जरूरत है. अब यह भूसतही अध्ययन से मानव कल्याण की ओर अग्रसर है. कहने का मतलब है कि अब भूगोल का उपयोग हम मेक इन इंडिया, डिजीटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया समेत तमाम विकास की नीतियों को मजबूती देने में कर सकते हैं.  भूगोल इस वक्त समाज के मानवीय और जैव भौतिकी तबकों को स्थान व समय के अंत: संबंधों का अध्ययन कर रहा है. इसकी मदद से हमें स्थानीय दशाओं, प्रक्रियाओं तथा विभिन्न उपक्रमों के रूपांतर को स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर अध्ययन करने में मदद मिलती है.

वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने हमारी पृथ्वी के अध्ययन के लिए कुछ बड़े कदम उठाए हैं. उसमें प्रमुख है-मार्च 2015 में जापान के सेंडई शहर में आपदा के खतरों को कम करने से संबंधित पारित किया गया प्रस्ताव. इसी तरह, सितम्बर 2015 में संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा का-सस्टेनेबल डेवलपमेंट टूल्स (स्थायी विकास लक्ष्य) के 17 सूत्री कार्यक्रम तय करना साथ ही दिसम्बर 2015 में जलवायु परिवर्तन से जुड़ा \'कॉप 21\'. विश्व की आबादी काफी तेजी से बढ़ रही है. चूंकि आबादी के बढ़ने का असर तमाम आधारभूत संरचनाओं पर पड़ता है और दिक्कतें भी बढ़ती हैं.

इस नाते अक्टूबर 2016 में इक्वाडोर शहर में बढ़ते हुए नगरों की समस्याओं को देखते हुए \'संयुक्त राष्ट्र हैविटॉट-3\' का एक अहम सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है. प्राकृतिक आपदा पर संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूएनआईएसडीआर ने जनवरी 2016 में जेनेवा में एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें प्राकृतिक आपदा के निवारण के लिए विज्ञान और टेक्नोलॉजी के महत्त्व को अहम माना. इस सम्मेलन में सात सौ से ज्यादा विद्वान जुटे. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर, दुनियाभर के भूगोलविद् अपनी रणनीति के लिए कई सारे कार्यक्रम करने जा रही है.



इस कार्यक्रम में विकसित और विकासशील देशों के मध्य बढ़ती विषमता को कैसे दूर किया जाए, इस पर चर्चा होगी. इस बेहद महत्त्वपूर्ण समिट का प्रमुख केंद्रबिंदु-खाद्य तथा पोषण, ऊर्जा व कार्बन, जल सुरक्षा, जैव विविधता, आपदा प्रबंधन, स्वास्थ्य की देखभाल (हेल्थ केयर), कौशल विकास आदि है. उपरोक्त सभी बिंदुओं को (इंटिग्रेट) अविभाज्य करने के लिए (रिमोट सेंसिंग) सुदूर संवेदन तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली की मदद ली जाएगी. इन सबके लिए तीन बातों पर ध्यान रखने की जरूरत है.

पहला, भौगोलिक-स्थानिक वितरण; दूसरा, विभिन्न खंडों, मसलन कृषि, उद्योग आदि और तीसरा, विभिन्न सामाजिक समूहों जैसे-छोटे किसान, महिलाएं, बच्चे तथा असुरक्षित समूह. खास बात यह है कि भूगोल को इस्तेमाल अब व्यापक तौर पर होने लगा है. इन्हीं सब बातों को केंद्र में रखकर इन सब तथ्यों को हमारे नीति-निर्धारण में भी उपयोग किया जाएगा. इस संदर्भ में विज्ञान नीति अंतराफलक (एसपीआई) का जिक्र जरूरी है. अंतरराष्ट्रीय भूगोल संघ के उपाध्यक्ष प्रो. आर.बी. सिंह का मानना है अब शोध कार्य से आगे जाकर देखने और कुछ नया करने की जरूरत है.

संघ का साफ तौर पर मानना है कि एमए, एम फिल और पीएचडी में काम करने वाले शोध प्रबंध को नीति निर्धारण से जोड़ने का वक्त आ गया है. साथ ही रिहायशी इलाकों व आसपास के इलाकों के आपदा तथा संसाधनों का मानचित्रिकरण (मैपिंग) हो. यह आवश्यक है कि स्कूल, कॉलेज और विविद्यालयों में अध्ययनरत छात्रों को अपने अध्ययन स्थलों के आसपास के मानचित्रिकरण योजना के द्वारा प्रोत्साहित किया जाए जिससे जागरूकता में इजाफा हो साथ ही समाज का भी भला हो सके.

 

 

राजीव मंडल
लेखक


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