प्रकृति प्रदत्त अधिकार है प्रार्थना करना

Last Updated 07 Feb 2016 01:05:14 AM IST

मंदिर भारतीय सभ्यता के शिखर हैं. हम उत्कृष्टता के लिए भी मंदिर शब्द का प्रयोग करते हैं. घर को उत्कृष्ट बताने के लिए कहे हैं, घर एक मंदिर है.


हृदयनारायण दीक्षित

हम संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं. हम शुद्ध हृदय को दिल एक मंदिर कहते हैं. मंदिर की सर्वोत्कृष्टता हमारे प्राणों में रची-बसी है. श्रद्धालु रेल या बस यात्राओं में होते हैं, दूर दिखाई पड़ रहे मंदिरों को नमस्कार करते रहते हैं. मंदिर हमारा गौरव रहे हैं. सोमनाथ की लूट इसीलिए इतिहास का कष्टपूर्ण अध्याय लगती है. दिल्ली के भी तमाम मंदिर ध्वस्त किए गए थे. अयोध्या का श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आज भी राष्ट्रीय आकांक्षा है. दक्षिण भारत के तमाम मंदिर अपनी सम्पदा, स्थापत्य और सौन्दर्य के लिए विख्यात हैं.

ओडिसा के सूर्य मंदिर को देखने लाखों लोग जाते हैं. मंदिरों में भाव, सौन्दर्यबोध और आस्था एक साथ मिलते हैं, लेकिन अव्यवस्था और अराजकता भी कम नहीं. उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के विंध्यवासिनी मंदिर में लाखों श्रद्धालु प्रति बरस आते हैं. यहां अव्यवस्थाओं का चरम है. अधिकांश मंदिरों के पुरोहित, पंडे और प्रबंधक तमाम रूढ़ियों के आधार पर जनसामान्य को पीड़ित करते हैं. शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विषय राष्ट्रीय चर्चा में है. प्रबंधकगण वैदिक सभ्यता और संस्कृति के तत्वों की भी उपेक्षा कर रहे हैं.

ईर के होने या न होने का विचार विज्ञान और दर्शन में बहस का विषय है और अनिर्णीत है. ईर भी होगा तो स्त्री या पुरुष नहीं होगा. मां प्रकृति की आदि अनादि अनुभूति है. गीताकार ने विराट रूप की चर्चा की है. अर्जुन ने उस रूप को नमस्कार किया और बोला त्वमेव माता च पिता त्वमेव-आप मां हैं और आप ही पिता. मां प्रथमा है. ऋग्वेद में सृष्टि का जन्म देने वाली जलमाताएं ही हैं. वैदिक चिन्तन में परमसत्ता के लिए पुरुष, अज, हिरण्यगर्भ और ब्रह्म आदि नाम आए हैं. वे पुल्लिंग नहीं हैं, स्त्री लिंग भी नहीं हैं. वैदिक मंत्रों के ऋषियों कवियों में अनेक महिलाएं भी हैं. यज्ञ परंपरा में पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य है. पत्नी न आ सके तो उसकी प्रतिमा या कुश आदि से बना प्रतीक यज्ञकार्य में प्रयुक्त होता है, लेकिन ये सारी बातें आस्था और कर्मकांड की हैं. स्त्री जननी है, माता है, पालक है और पोषक भी है. प्रथम आचार्य और गुरु भी है. स्त्री को मंदिर प्रवेश से रोकने का सीधा अर्थ है कि हम अपने इस संसार में होने के वास्तविक माध्यम का भी अपमान कर रहे हैं.

वैदिक परंपरा में स्त्री सम्मान से भरी-पूरी है. यहां ढेर सारे देवता हैं तो ढेर सारी माताएं देवियां भी हैं. दुर्गा सप्तशती के एक लोक में विश्व की सभी स्त्रियों व विद्याओं को देवी ही जाना गया है-विद्या समस्तास्तव देवि भेदा/स्त्रिया समरत्ता: सकला जगत्सु. सारी स्त्रियां यहां देवी हैं. मूलभूत प्रश्न है कि, क्या हम देवियों को भी मंदिर प्रवेश से रोक सकते हैं. हमारी आस्था और आराधना को कोई प्रबंध तंत्र या पुरोहित प्रतिबंधित नहीं कर सकते. वैदिक परंपरा पुरुष और स्त्री में भेद नहीं करती. कुछ सेमेटिक पंथों में स्त्री को पसली से पैदा कहा गया है. उपनिषद् के एक मंत्र में कहा गया है कि सर्वप्रथम वह परमतत्व अकेला था. उसे एकाकी होने के कारण आनंद नहीं आया. एकाकी को आनंद आता भी नहीं. परमसत्ता ने स्वयं को समविभाजित किया. आधा स्त्री हुआ और आधा पुरुष.

मंदिरों में स्त्री प्रवेश के निषेध का विषय दुर्भाग्यपूर्ण है. देवता प्रकृति की शक्तियां हैं. दिव्यता और ऊर्जा के प्रतीक. मैंने अनुभव किया है कि मंदिरों में स्त्रियां मंदिरों में अपने लिए कम मांगती हैं. परिवार के कल्याण के लिए ही देवस्तुतियां करती हैं. वे पति की दीर्घायु की कामना करती हैं. परिवार के सुखद भविष्य की प्रार्थना करती हैं. वे घर को मंदिर बनाने के लिए खटती हैं. उन्हें मंदिर प्रवेश से रोकना आहतकारी है. ऐसी परंपरा को हम ‘कालबाह्य’ ही नहीं कह सकते. यह प्राचीन परंपरा नहीं है. प्रार्थना प्रकृति प्रदत्त अधिकार है. कृपया सबको स्तुतियां गाने दीजिए. सबको मंदिर की घंटियां बजाने दीजिए. सबको आनंदित होने का अवसर दीजिए. भारत भी एक मंदिर है. यहां सब रहते हैं. सबको अपनी रीति-प्रीति-नीति में स्तुति वाचन का अवसर दीजिए.



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