सिरे से सोचने की दरकार

Last Updated 06 Feb 2016 04:14:26 AM IST

सामाजिक कल्याण की कोई भी योजना चलती है तो उसकी चाहे जितनी खामियां हों लेकिन उनके कुछ अच्छे परिणाम अवश्य आते हैं.


सिरे से सोचने की दरकार

मनरेगा के खाते में भी रोजगार से लेकर ग्रामीण परिसंपत्तियों के निर्माण यानी तालाबों, नहरों, कुंओं के निर्माण या मरम्मती सहित कुछ सकारात्मक पक्ष है, लेकिन इसका दुष्परिणाम उससे कई गुना ज्यादा है और वह ऐसा है जिसकी भरपाई संभव नहीं. हालांकि जब चारों ओर किसी कार्यक्रम की उपलब्धियों के बखान किए जा रहे हों तो उनके बुरे पहलुओं को सामने लाना जोखिम भरा होता है और ऐसा करने वालों को कई प्रकार के खलनायकी विशेषणों से नवाजे जाने का चरित्र हमारे देश का है.

उसमें भी जब विदेशी एजेंसियां कार्यक्रम की प्रशंसा का प्रमाण पत्र दे दे तो कोई सच देखते हुए भी बोलने का साहस नहीं करता. विश्व बैंक ने 2015 की अपनी रिपोर्ट में इसे दुनिया का सबसे बड़ा जन रोजगार उपलब्ध कराने वाला कार्यक्रम बताया है, जो उसके अनुसार देश के लगभग 15 फीसद लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है. इससे बड़ा प्रमाण पत्र मनरेगा को और क्या चाहिए. बावजूद इसके इसका भयावह सच सामने लाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि यह देश को बचाने का प्रश्न है.

सैद्धांतिक तौर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून को बिल्कुल खारिज करने का प्रश्न नहीं है. किंतु इसका तरीका यह होना चाहिए जिससे लोगों को राज्य के संसाधनों के अंदर वाकई काम करने के अवसर यानी रोजगार मिले, उन रोजगारों से गांव के अन्य आर्थिक गतिविधियां यानी खेती और उससे जुड़े कार्य दुष्प्रभावित न हों. मनरेगा में इसका ध्यान रखा ही नहीं गया. परिणामत: सीमांत और मध्यम स्तरीय किसानों के लिए खेती करना कठिन हो गया.

उनके लिए ठीक खेती के समय श्रमिक मिलने बंद हो गए. अगर मिले भी तो उनकी मजदूरी की मांग इतनी अधिक कि देना ही संभव नहीं. इसके कई स्तरीय दुष्प्रभाव हुए हैं. एक, कुछ ने तो अपनी खेती पट्टे पर दे दी और स्वयं रोजगार के लिए पलायन कर गए. ध्यान रखिए इस योजना का एक लक्ष्य गांवों से पलायन को रोकना था. सरकार के पास इसकी रिपोर्टे हैं. इन्हें ध्यान में रखते हुए मांग की गई कि जो खेती का मुख्य समय है, उसे छोड़कर मनरेगा का कार्यक्रम चलाया जाए.

यह स्वीकार नहीं हुआ. हां, इतना हुआ कि मनरेगा के तहत किसानों के खेत में भी मजदूर काम कर सकते हैं. इससे कुछ अंतर आया है, लेकिन इसका अनुपालन व्यावहारिक तौर पर संभव ही नहीं है. तो मर रहा है किसान जिसके जिम्मे देश के पेट पालने की जिम्मेवारी है. कल्पना करिए, आने वाले समय के लिए हम कितनी खतरनाक स्थिति पैदा कर रहे हैं. खेती के लिए श्रमिकों का धीरे-धीरे अंत हो रहा है. छोटे किसानों की आंखों में आंसू बढ़ गए हैं और उनके चेहरे पर शिकन स्थायी हो गया है.

दूसरे, श्रमिक न मिलने के कारण पिछले दस वर्षो में खेती का तेजी से मशीनीकरण हुआ है. मशीन खरीदना सबके वश की बात नहीं थी, लेकिन बैंकों में खेत गिरवी रखकर लोगों ने मशीनें खरीदीं. उनकी किश्त चुकाने के लिए खेत बेचने पड़े हैं. मशीन एक बार खराब हुई तो उसकी मरम्मत का खर्च ही इतना कि किसान के लिए मशीन ही बोझ बन गई. मशीनीकरण के अनेक बुरे प्रभाव हुए हैं, जिन सबका वर्णन यहां संभव नहीं है. गांवों में जाकर आप आसानी से इन्हें देख सकते हैं. एक परिणाम तो यह आया है कि पहले जहां अनाज धीरे-धीरे तैयार होते थे और मंडियों तक पहुंचने में उसे समय लगता था वहीं अब एक ही सप्ताह में इतनी अनाजें आ जाती हैं कि मंडियों की व्यवस्था चरमरा जाती है, क्योंकि उनके अनुसार आधारभूत संरचना नहीं है. कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा हो जाती है जिसमें जिलाधिकारी तक को मंडियों में लगना पड़ता है.

इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि यह देश में परिश्रम करने वाले वर्ग को कामचोर एवं भ्रष्ट बना रहा है. गांव-गांव में लोग जानते हैं कि मनरेगा का अर्थ है बिना काम या कम काम के बदले निबंधित पुरु षों और महिलाओं को पारिश्रमिक देना. जाहिर है, इसमें सबका हिस्सा है. निबंधित मजूदरों को यदि बिना काम किए या कम काम पर ही कुछ राशि मिल जाती है तो फिर वे काम क्यों करें या पूरी राशि क्यों मांगें? तो यहीं से वह कामचोर एवं भ्रष्ट बनने लगता है.

फिर उनके लिए 2 रु पये गेहूं और 3 रु पये किलो चावल उपलब्ध हैं तो उनको किसानों के खेत में काम करने की आवश्यकता क्या है? 100 दिन के रोजगार में जितना धन हिस्से के रूप में मिल जाता है, उसमें इतना अनाज तो आ ही जाता है कि खाने की समस्या न हो. अगर परिवार में तीन ईकाई हो गई तो फिर तीन रोजगार की गारंटी. यानी 300 दिन का रोजगार. मनरेगा में भ्रष्टाचार की औपचारिक शिकायतों की पूरी सूची सरकार के पास उपलब्ध है और वह सार्वजनिक है. लेकिन जो शिकायतें नहीं हुई उनकी संख्या कहीं ज्यादा हैं.

2013 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने एक पूरी रिपोर्ट मनरेगा पर देते हुए इसे बड़े भ्रष्टाचार का कार्यक्रम बता दिया था. किंतु इसे परे रहकर सोचिए कि जिस देश का परिश्रमी वर्ग परिश्रम करना बंद कर दे या ऐसी स्थितियां हों कि उसे पसीना बहाने की आवश्यकता न रहे, ईमानदारी से जीवन जीने वालों को बेईमानी की आदत पड़ जाए, बिना काम किए भ्रष्ट तरीके से धन लेने की आदत पड़ जाए उस देश का भविष्य क्या होगा? क्या मनरेगा का स्तुतिगान करने वालों विद्वानों, एनजीओ और सरकारी अधिकारियों, नेताओं.. के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर है?

ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार इस कार्यक्रम के शुरू होने के बाद से इस पर 3 लाख 13 हजार 844 करोड़ रुपये खर्च हुआ है. ध्यान रखिए इसमें से 71 प्रतिशत मजदूरी का भुगतान करने में किया गया. यह रोजगार का कार्यक्रम है तो इसमें ज्यादा धन मजदूरी में ही जाएगा. लेकिन यदि 15 प्रतिशत प्रशासनिक खर्च होता है तो फिर परिसंपत्तियों के निर्माण के लिए केवल 14-15 ही बचता है. उसमें जो भी निर्माण होगा, उसका स्तर कैसा होगा; इसकी कल्पना की जा सकती है. निर्माण के लिए धन ही कहां बचता है.

वाजपेयी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री सड़क योजना आरंभ की गई जिसका बजट मनरेगा का आधा है. लेकिन उसमें जो निर्माण हो रहे हैं, वे ठोस हैं. उसमें चूंकि मरम्मती का भी प्रावधान है इसलिए उसकी उपलब्धियां आकषर्क हैं. उसमें भी तो रोजगार मिलता है. इंदिरा आवास का बजट तो उससे भी कम रहा, लेकिन उसका भी काम दिखाई पड़ता है और रोजगार उसमें भी. फिर इस मनरेगा को आगे जारी रखने पर पुनर्विचार का साहस नरेन्द्र मोदी सरकार को करना चाहिए. यह किसानों के हित में होगा.

अवधेश कुमार
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment