सियाचिन : तब भी जमी रहेगी सेना

Last Updated 06 Feb 2016 04:06:31 AM IST

सियाचिन ग्लेशियर. देखने में बिल्कुल ही धवल, निचाट, बर्फ की अनन्त चादर ओढ़े और नीरव शान्ति समेटे दुनिया का सबसे ऊंचाई पर स्थित रणक्षेत्र.


सियाचिन : तब भी जमी रहेगी सेना

यानी कि युद्धभूमि; जहां सैनिक दुश्मन की गोलियों से नहीं, बल्कि अत्यधिक ठंड और प्रतिकूल मौसम से उपजे विकार, हिमस्खलन और अचानक आने वाली बर्फ की आंधियोंसे असमय काल के गाल में समा जाते हैं.

बुधवार को भी कुछ ऐसा ही हुआ. हिमस्खलन के चलते 10 भारतीय सैनिक सैकड़ों फुट बर्फ में दब गए और उन्हें प्रयास के बाद भी नहीं निकाला जा सका. वे शहीद हो गए.

भारतीय सेना द्वारा वहां वर्ष 1984 से ‘ऑपरेशन मेघदूत’ चलाया जा रहा है, जिसके तहत समुद्र तल से 5753 मीटर (तकरीबन 19,000 फुट) की ऊंचाई पर स्थित इस बर्फ के रेगिस्तान में सेना ने चौकियां स्थापित कर रखी हैं और वहां नियमित पेट्रोलिंग की जा रही है. तब से अब तक वहां 879 सैनिकों की मौत इन्हीं तरह की परिस्थितियों में हो चुकी है और ज्यादातर के तो शव भी प्राप्त नहीं हो सके हैं. सियाचिन में तापमान -50 डिग्री सेल्सियस से भी नीचे चला जाता है. प्रतिकूल और खतरनाक मौसम की वजह से ही वहां किसी भी सैनिक की तैनाती तीन माह से अधिक नहीं की जाती.

यह बात भी काबिल-ए-गौर है कि वहां पाकिस्तान ने भी अपने सैनिक तैनात कर रखे हैं और उस तरफ भी तकरीबन इतनी ही मौतें हुई हैं. तो ऐसा क्या है सियाचिन में कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही वहां एक-दूसरे के खिलाफ खम ठोके हुए हैं और सैनिकों की मौतों के बाद भी हटने के लिए तैयार नहीं हैं. आंकड़ों के मुताबिक भारत सरकार वहां सैनिकों की तैनाती और उनके रख-रखाव पर प्रतिदिन पांच करोड़ रुपये खर्च करती है?

माना जा सकता है कि पाकिस्तान सेना भी कमोबेश इतना ही खर्च करती होगी.क्या दोनों देश सियाचिन को एक शांतिस्थल बनाने पर राजी नहीं हो सकते; जहां से दोनों ही अपनी सेनाओं को वहां से रुखसत कर लें? भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह कहते हैं, ‘यह संभव नहीं है. कत्तई संभव नहीं है. सामरिक रूप से यह हमारे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. यहां से लेह, लद्दाख और चीन के कुछ हिस्सों पर नजर रखने में मदद मिलती है. सियाचिन ग्लेशियर पर अगर भारत और पाकिस्तान दोनों की ही सेना की उपस्थिति न हो तो किसी के लिए भी दिक्कत वाली बात नहीं हो सकती है, लेकिन अगर दुश्मन का कब्जा हो गया तो वह सामरिक रूप से दिक्कत वाली बात हो सकती है. इसलिए वहां सेना की उपस्थिति जरूरी है. रही बात सैनिकों के मौतों की, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. हम उनकी शहादत को सलाम करते हैं, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं है.’

सियाचिन ग्लेशियर को ‘सियाचिन हिमनद’ भी कहा जाता है, जो कि हिमालय के पूर्वी कराकोरम रेंज में भारत-पाक नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास स्थित है. यह कराकोरम के पांच बड़े हिमनदों में सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा हिमनद है. समुद्र तल से इसकी ऊंचाई इसके स्रोत इंदिरा कोल पर लगभग 5753 मीटर और अंतिम छोर 3624 मीटर है. यह लगभग 70 मीटर लम्बा है.

माना जा सकता है कि सियाचिन विवाद कहीं न कहीं भारत-पाक के बीच 1972 में हुए ऐतिहासिक शिमला समझौते में छिपा हुआ है. जब यह समझौता हुआ तो सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान पर युद्ध विराम की सीमा तय हो गई, लेकिन इस बिन्दु के आगे के हिस्से के बारे में कुछ नहीं कहा गया. अगले कुछ वर्षो में बाकी के हिस्से में पाकिस्तान की तरफ से गतिविधियों को अंजाम दिया जाने लगा तो भारत के कान खड़े हुए. दरअसल, पाकिस्तान ने अपने कुछ पर्वतारोही दलों को वहां जाने की अनुमति भी दे दी और पाकिस्तान के कुछ मानचित्रों में यह भाग उनके हिस्से में दिखाया जाने लगा. इससे चिंतित होकर भारत ने 1984 में ‘ऑपरेशन मेघदूत’ के जरिए एनजे-9842 के उत्तरी हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया. उस हिस्से को ‘सालटेरो’ कहा जाता है.

सियाचिन का कुछ भाग चीन के नियंत्रण में भी है. दरअसल, एनजे 9842 ही दोनों देशों के बीच लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल यानी कि एलएसी है. शिमला समझौते में सियाचिन में जो शांति की अवधारणा की गई थी, उसका उल्लंघन पाकिस्तान सेना ने किया था, जिसकी पुष्टि पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा ‘डाटर ऑफ द ईस्ट’ में वर्णित इस कथ्य से भी होता है, ‘जिया (जनरल जियाउल हक- तत्कालीन फौजी शासक) की हुकूमत के दौरान, पाकिस्तान ने हिंदुस्तान से हारते हुए सियाचिन ग्लेशियर का इलाका गंवा दिया था.

हालांकि जनरल जिया ने यह कहकर उस नुकसान की भरपाई की थी कि वहां सियाचिन में, उस इलाके में कुछ उपजता नहीं है, लेकिन इससे पाकिस्तान की जनता और सेना को बहुत चोट पहुंची थी..’.  बेनजीर के इस वर्णन से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान सेना सियाचिन में मौजूद थी और भारतीय सेना ने उसे खदेड़ दिया, लेकिन सियाचिन विवाद को लेकर पाकिस्तान भारत पर उल्टे आरोप लगाता है कि 1989 में दोनों देशों के बीच यह कथित सहमति हुई थी कि भारत अपनी पुरानी स्थिति में वापस लौट जाए, लेकिन भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया.

पाक का कहना है कि सियाचिन में जहां पाकिस्तान सेना हुआ करती थी वहां भारतीय सेना ने 1984 में कब्जा कर लिया. उस समय पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक का शासन था. पाक यह रट लगाए हुए है कि भारतीय सेना ने 1972 के शिमला समझौते और उससे पहले 1949 में हुए कराची समझौते का उल्लंघन किया है. पाकिस्तान चाहता है कि भारतीय सेना 1972 की स्थिति पर वापस जाए, लेकिन भारत सरकार ने इससे साफ इनकार कर दिया है, क्योंकि सियाचिन में पहले सैन्य गतिविधि शुरू करने का काम पाकिस्तान ने ही किया था, तो उसकी बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता. करगिल का हश्र सबके सामने है.

राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर सियाचिन में सैन्य गतिविधियों को बंद करने के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन बेनतीजा ही रही है. इसकी खास वजह रही है विश्वास की कमी. भारत और पाक दोनों को ही इस बात का भरोसा नहीं है कि अपनी-अपनी सेनाओं को वहां से हटा लेने के बाद चुपके से बाद में कोई अपनी सेना तैनात नहीं करेगा. क्योंकि दोनों ही देशों के लिए सियाचिन सामरिक लिहाज से उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि आबादी से भरापूरा समूचा कश्मीर.

भारत के लिए सियाचिन कितना महत्त्वपूर्ण है, इसका अंदाजा भारत के तत्कालीन रक्षा राज्यमंत्री राव इंदरजीत सिंह द्वारा दिसम्बर 2015 में संसद में लोक सभा में दिए गए उस लिखित बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार ने सियाचिन में सैनिकों के साजो-सामान, कपड़ों और ऊंचे इलाकों में रिहाइश पर 7500 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. उन्होंने यह भी बताया कि वहां अब तक की तैनाती में 869 सैनिकों ने प्राण गंवाए हैं, जिसकी वजह विपरीत मौसम और प्राकृतिक हलचल रही.

संजय सिंह
लेखक


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