गरीब देशों को भी मिले विकास का मौका

Last Updated 02 Dec 2015 12:55:05 AM IST

पेरिस में इस समय जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक सम्मेलन हो रहा है.


गरीब देशों को भी मिले विकास का मौका

सोमवार को प्रधानमंत्री ने विकासित और विकासशील देशों की जरूरतों और भारत की प्रतिबद्धताओं पर वैश्विक बिरादरी को सम्बोधित किया. यहां प्रस्तुत है, प्रधानमंत्री के भाषण का मूल पाठ---

महामहिम राष्ट्रपति ओलांद! पेरिस का जख्म अभी भरा नहीं है. लेकिन मैं आपकी सहनशीलता और संकल्प की प्रशंसा करता हूं. पूरी दुनिया आज जिस मजबूती के साथ फ्रांस और पेरिस के साथ खड़ी है, इसके लिए मैं उसे सलाम करता हूं.

अगले कुछ दिनों तक हम इस पृथ्वी का भाग्य तय करेंगे. हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हमें जीवाश्म ईंधन से चलने वाले औद्योगिक युग के परिणाम खास कर गरीबों के जीवन में पड़ने वाले इसके परिणामों के बारे में पता है. समृद्ध लोगों के पास मजबूत कार्बन फुटप्रिंट हैं. लेकिन इसके साथ ही विकास की सीढ़ी पर नीचे मौजूद लोग भी आगे बढ़ने के लिए जगह मांग रहे हैं. इसलिए विकल्प आसान नहीं है. लेकिन हम जागरूक हैं, और हमारे पास प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) भी है. अब हमें राष्ट्रीय इच्छाशक्ति और वास्तविक वैश्विक साझेदारी की जरूरत होगी. लोकतांत्रिक भारत को 1.25 अरब लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए तेजी से तरक्की करनी होगी. भारत की इस आबादी के 30 करोड़ लोगों की ऊर्जा तक पहुंच नहीं है.

हम ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. पृथ्वी और इसके लोगों को अलग नहीं किया जा सकता. यह हमारी प्राचीन मान्यता है. हमारे यहां माना जाता है कि मानव और प्रकृति एक हैं, इसलिए हमने 2030 तक के लिए महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए हैं. इस समय तक हम प्रति इकाई जीडीपी के लिए उत्सर्जन सघनता को 2005 के स्तर से 33 से 35 फीसद तक घटा देंगे. और हमारी स्थापित क्षमता का 40 प्रतिशत गैर-जीवाश्म ईंधन से पैदा होगा.

हम इस लक्ष्य को नवीकरणीय ऊर्जा के विस्तार के जरिए हासिल करेंगे. उदाहरण के लिए 2022 तक हम 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन करेंगे. हम अपने वन क्षेत्र को इतना बढ़ा देंगे कि यह कम से कम 2.5 अरब टन कार्बनडाइ ऑक्साइड को सोख ले. हम लेवी लगा कर और सब्सिडी घटा कर जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता घटा रहे हैं. जहां भी संभव है हम ईंधन स्रोतों में बदलाव कर रहे हैं. शहरों और सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को बदल रहे हैं. मैं यह आशा करता हूं कि दुनिया के विकसित देश महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित कर उनकी ओर पूरी गंभीरता से बढ़ेंगे. यह सिर्फ ऐतिहासिक जिम्मेदारी का सवाल नहीं है. उनके पास कार्बन उत्सर्जन में कटौती और बेहद मजबूत प्रभाव पैदा करने की गुंजाइश भी है और जलवायु-न्याय इस बात की भी मांग करता है कि जो थोड़े कार्बन स्थल हमारे पास बचे हैं, उनमें विकासशील देशों को तरक्की करने की पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए.

इसका मतलब यह है कि विकसित देशों को 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए बढ़-चढ़ कर कदम उठाने पड़ेंगे. इसमें क्योटो समझौते की दूसरी प्रतिबद्धता का समर्थन, शर्तों को हटाना और लक्ष्यों का दोबारा निर्धारण शामिल है. समानता का सिद्धांत सबके लिए बराबर है, लेकिन कार्बन उत्सर्जन, इसे लागू करने और इसके नए तरीके अपनाने में अलग-अलग जिम्मेदारियां हमारी साझी कोशिश का आधार हैं. इसके अलावा और कोई भी चीज नैतिक तौर पर गलत होगी और असमानता पैदा वाली साबित होगी. समानता का मतलब यही है कि राष्ट्रीय प्रतिबद्धता कार्बन जगह घेरने वाले देशों के हिसाब से भी तय होनी चाहिए, इसलिए किसी भी अनुकूलन और क्षति और हानि पर एक मजबूत समझौते की जरूरत है.

विकसित देशों को पूरी विकासशील दुनिया में स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध कराने, इसे सस्ता करने और इस तक पहुंच आसान करने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी. इसलिए हम 2020 तक हर साल 100 अरब डॉलर जुटाने के लिए विकसित देशों से उम्मीद लगाए हुए हैं ताकि विकासशील देशों में कार्बन उत्सर्जन में कटौती और अनुकूलन का काम पूरा हो सके. उन्हें यह काम विश्वसनीय, पारदर्शी और अर्थपूर्ण ढंग से करना होगा.

ऊर्जा मनुष्य की मूलभूत जरूरत है. इसलिए हमें महत्त्वाकांक्षी तकनीकी पहल की जरूरत है. लेकिन इसका उद्देश्य सिर्फ  बाजार का फायदा नहीं होना चाहिए. इससे सार्वजनिक उद्देश्य भी पूरा होना चाहिए. इसके लिए हमें ग्रीन क्लाइमेट फंड को बढ़ाना होगा ताकि यह प्रौद्योगिकी और बौद्धिक संपत्ति तक हमारी पहुंच बढ़ा सके. हमें अभी भी पारंपरिक ऊर्जा की जरूरत है. हमें इसे स्वच्छ बनाना चाहिए न कि इसके इस्तेमाल को खत्म कर देना चाहिए. ऐसे इकतरफा कदमों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए जो दूसरों के लिए आर्थिक रोड़ा बन जाएं. हम हालात के उस आकलन का स्वागत करते हैं, जो पारदर्शी हो और समर्थन और प्रतिबद्धता को कवर करता हो और जो अलग-अलग जिम्मेदारियों पर आधारित हो.

आखिरकार, सफलता के लिए हमारी जीवनशैली में बदलाव जरूरी है. कम कार्बनयुक्त भविष्य के लिए ऐसा करना संभव है.

महामहिम ! यहां 196 देशों की उपस्थिति यह साबित करती है कि हमारे पास एक साझा उद्देश्य के लिए एक होने का अवसर है. अगर हम विवेक और साहस के साथ एक ईमानदार सामूहिक साझेदारी खड़ी कर पाते हैं, तो सफल होंगे. यह साझेदारी ऐसी होनी चाहिए जो जिम्मेदारियों और क्षमताओं का आकांक्षाओं और जरूरतों के साथ संतुलन बिठा सके. मुझे पूरा विश्वास है कि हम ऐसा कर सकेंगे.
धन्यवाद



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