शरीफ की कूटनीतिक रणनीति
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अगर कहें कि वह भारत से बातचीत करने को तैयार हैं, और इसके लिए उनकी कोई पूर्व शर्त भी नहीं है, तो इससे हर भारतवासी को हैरत होगी.
शरीफ की कूटनीतिक रणनीति |
भारतवासी ही क्यों स्वयं पाकिस्तान में एक बड़े वर्ग को इसमें आश्चर्य होगा कि आखिर, उनके प्रधानमंत्री यह क्या बोल रहे हैं! माल्टा के वैलेटा से उनका यही बयान अचानक सुर्खियां बन गया है. भारत एवं पाकिस्तान दोनों देशों में. ऐसा प्रधानमंत्री, जिसने बातचीत को आगे बढ़ाने की हर कोशिश को किसी न किसी कारण से नाकाम किया, अगर कह रहा है कि बातचीत हो और उसके लिए हमारी कोई शर्त ही नहीं है, तो फिर यह विचार करना पड़ता है कि आखिर, इसके पीछे कारण क्या है? क्या अचानक उनका हृदय परिवर्तन हो गया? क्या पाकिस्तान को आभास हो गया कि शर्तों से पड़ोसी के साथ संबंध स्थापित नहीं हो सकता?
क्या वह यह तत्व समझ गए हैं कि अनावश्यक तनाव एवं अशांति से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है? या इसके पीछे कोई गहरी रणनीति है, जिसे समझने की आवश्यकता है? ये सारे प्रश्न वाजिब हैं, और इनका उत्तर हमें शरीफ और पाकिस्तान के अतीत में बातचीत के प्रति रवैये तथा वर्तमान की उनकी आंतरिक एवं बाह्य स्थितियों के आलोक में ढूंढ़ना होगा. ध्यान रखने की बात है कि उन्होंने यह बयान राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन के दौरान दिया. तो एक प्रश्न यह भी जुड़ जाता है कि आखिर, पाकिस्तान से बाहर ऐसे शिखर सम्मेलन में, जहां भारत के प्रधानमंत्री उपस्थित नहीं हैं, उन्हें ऐसा बोलने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
ज्यादा दिन नहीं हुए जब उन्होंने कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच सर्वप्रमुख मुद्दा बताया था. प्रश्न है कि क्या कश्मीर की शर्त से भी वह पीछे हट गए हैं? पिछले अगस्त में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत लगभग तय थी. पूरी तैयारी हो चुकी थी. उसे अंतिम समय में पाकिस्तान ने ही तो रद्द किया था. कारण सिर्फ इतना था कि भारत तयशुदा परिधि में आतंकवाद पर बात करना चाहता था. भारत का तर्क था कि उफा में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच आतंकवाद पर बातचीत तय हुई थी.
इसके उलट पाकिस्तान उसमें न केवल कश्मीर शामिल कर रहा था, बल्कि हुर्रियत नेताओं से भी मुलाकात पर अड़ गया था. यह स्वीकार नहीं किया जा सकता था. भारत ने इसके पूर्व पिछले वर्ष हुर्रियत नेताओं से बातचीत करने के रवैये पर ही विदेश सचिव स्तर की बातचीत रद्द की थी. भारत का स्पष्ट कहना था, या तो आप भारत से बात करिए या फिर अलगाववादियों से. यदि आप अलगाववादियों से बातचीत करते हैं, तो हम बातचीत नहीं करेंगे. इस पृष्ठभूमि में हुर्रियत नेताओं से बातचीत करने पर अड़ने का क्या अर्थ था? वह भी तब जब उफा में सब कुछ तय हो गया था. ऐसे अतीत को देखते हुए हम, शरीफ जो कुछ कह रहे हैं, उनसे उसी अनुसार आसानी से नहीं ले सकते.
अभी बीती 30 अक्टूबर को ही तो संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा के अपने भाषण में उन्होंने कश्मीर राग अलापा था. कहा था कि 1947 से अब तक कश्मीर मुद्दा सुलझा नहीं है. विश्व संस्था को कदम उठाना चाहिए. आखिर, ऐसे व्यक्ति को एकाएक यह कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो गया कि सभी पड़ोसियों के साथ उसे शांति और स्थिरता के लिए मिलकर काम करना चाहिए. न भूलिए कि यह महाज्ञान भी उनको ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन से मुलाकात के दौरान हुआ. नहीं मालूम कि कैमरु न ने उनको क्या कहा, लेकिन शरीफ का यह बयान अवश्य सामने आया है कि पाकिस्तान भारत-अफगानिस्तान सहित सभी देशों से दोस्ताना संबंध कायम रखना चाहता है. तभी तो अफगानिस्तान ने निराशा प्रकट करते हुए कहा है कि आप अपनी सीमा से निकल कर हमला करने वाले तालिबानों को रोक नहीं रहे हैं.
शरीफ का रवैया अभी तक बातचीत के प्रति ईमानदार नहीं रहा है. पिछली जुलाई में उफा में मोदी के साथ मुलाकात में शरीफ ने जब बातचीत पर सहमति दी थी, तो उसमें कश्मीर शामिल नहीं था. जैसे ही पाकिस्तान पहुंचे, उनकी सरकार की ओर से बयान आ गया कि जब तक कश्मीर नहीं होगा, बातचीत नहीं होगी. अतीत के आलोक में माल्टा से आने के बाद वह पुन: पलट नहीं जाएंगे, इसकी कोई गारंटी है क्या? पाकिस्तान भारत की तरह सामान्य लोकतांत्रिक देश नहीं है, जहां सारे फैसले केवल राजनीतिक नेतृत्व करता है.
उसके समानांतर एवं कई मामलों में उससे ज्यादा प्रभाव वहां की सैनिक सत्ता का है. इस समय तो शरीफ लाचार प्रधानमंत्री की तरह सैन्य नेतृत्व के साथ सामंजस्य बनाकर अपनी सरकार बचाए रखने के रास्ते पर चल रहे हैं. यह भी नहीं पता कि ऐसे बयान के पूर्व उनने सैन्य नेतृत्व को विश्वास में लिया या नहीं. सैन्य नेतृत्व को उनकी बिना शर्त बातचीत का प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ तो मानकर चलिए कि वह उफा से लौटने के बाद की पुनरावृत्ति करेंगे यानी पलट जाएंगे. इसके लिए भी उनके पास कोई बहाना होगा. हो सकता है कि इसके लिए कोई आरोप भारत पर ही मढ़ दिया जाए.
इसलिए भारत की ‘प्रतीक्षा करो और देखो’ की रणनीति ही उपयुक्त व व्यावहारिक है. ज्यादा संभावना तो इसी बात की है कि शरीफ ने पाक के बाहर राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन में जानबूझकर ऐसे बयान देने की छलपूर्ण कूटनीतिक रणनीति अपनाई हो. वह विश्व के देशों को संदेश देना चाहते हों कि अरे, हम तो बिना किसी शर्त के भी बातचीत के लिए तैयार हैं, फैसला तो भारत को करना है. वह कहना चाह रहे हों कि हम तो शांति कायम करना चाहते हैं, भारत ही है जो बातचीत को शर्तों में बांध कर बाधा पहुंचाता है. लेकिन पाकिस्तान के संदेश को विश्व समुदाय उसी तरह लेगा जैसा शरीफ चाहते हैं, यह संभव नहीं.
पाकिस्तान की साख दुनिया में इतने नीचे जा चुकी है कि भारत को कठघरे में खड़ा करने की कोई रणनीति सफल नहीं होगी. वैसे, शरीफ की रणनीति का असर हो, नहीं हो, भारत के लिए सीमा पार से आतंकवाद का रुकना प्राथमिकता है, और यदि पाकिस्तान इसे शर्त मानता है, तो माने. भारत के लिए युद्ध विराम का उल्लंघन रोकना प्राथमिकता है, और कोई बातचीत इससे परे कैसे हो सकती है? तो आतंकवाद का निर्यात और युद्व विराम का उल्लंघन दो ऐसी शत्रे हैं, जो किसी बातचीत की सफलता की नींव हैं. इसलिए हम पाकिस्तान की तरह नहीं कह सकते कि बिना शर्त बातचीत के लिए तैयार हैं. भारत ने तो पाक-अधिकृत कश्मीर में कभी आतंकवाद या अलगाववाद को प्रायोजित नहीं किया है, इसलिए पाक के लिए भारत समस्या नहीं है. लेकिन पाक हमारे कश्मीर में ऐसा कर रहा है, इसलिए हमारे लिए वह समस्या है.
| Tweet |