बैंकों के लिए वसूली बनी जंजाल
सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद सार्वजनिक बैंकों की नॉन परफार्मिंग एसेट (एनपीए) में कमी नहीं आ पाई है.
बैंकों के लिए वसूली बनी जंजाल |
इस वर्ष मार्च के अंत तक यह 5.2 प्रतिशत थी, जो जून आते-आते बढ़कर 6.03 फीसदी पर पहुंच गई. मतलब यह कि मात्र तीन माह में यह घटने के बजाय 0.8 प्रतिशत बढ़ गई. इसी कारण वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सार्वजानिक बैंकों की समीक्षा बैठक में कहा कि यदि एनपीए के साथ-साथ रिस्ट्रकचर कर्जों को भी जोड़ दिया जाए तो गत मार्च माह तक बैंकों का कर्जदारों के पास 11.1 फीसदी पैसा फंसा हुआ था, जो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं. बैठक में बैंकों के शीर्ष अधिकारियों ने वित्त मंत्री को अपनी परेशानियों से अवगत कराया किन्तु सिवाय शीतकालीन सत्र में दिवालिया कानून (बैंकरप्सी लॉ) पारित करवाने के, उन्होंने अन्य और कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया. हां, इतना जरूर कहा कि जो लोग या उद्योग जानबूझ कर ऋण नहीं लौटाते, उनके खिलाफ कड़ा कानून बनाया जाएगा.
खराब आर्थिक हालत के कारण ही आज उद्योग कर्जा लौटने में अक्षम हैं. अल्यारेज एंड मार्शल कंसल्टेंसी कंपनी के अनुसार वर्ष 2011 और 2015 के बीच भारत में खराब कर्ज के मर्ज में पांच गुना वृद्धि हो गई जो उसके पड़ोसी देशों की तुलना में भी कहीं अधिक है. ऐसे ऋण 2011 में 27 अरब डॉलर (करीब 18 खरब रुपये) थे, जो 2015 में बढ़कर 133 अरब डॉलर (करीब 99 खरब रुपये) हो गए. बैठक में ऐसे छह सेक्टर की निशानदेही की गई, जो कर्ज लौटाने में सबसे फिसड्डी हैं. फंसे हुए कुल कर्ज में इस्पात और स्टील, कपड़ा, उर्जा, चीनी, अल्युमिनियम और निर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी पचास फीसदी से अधिक है. इसका अर्थ यह भी है कि जब तक इनकी हालत नहीं सुधरती, तब तक बैंकों की एनपीए में विशेष सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
बैंकों के कर्ज वसूली पंचाटों (डेब्ट रिकवरी ट्रिबुनल-डीआरटी) का ढुलमुल कामकाज भी कमजोर वसूली का बड़ा कारण है. भारत सरकार के वित्तीय सेवा विभाग द्वारा कुछ समय पहले जारी जानकारी के अनुसार पिछले एक साल में इन पंचाटों में लंबित केसों की संख्या और रकम में तेजी से इजाफा हुआ है. महज एक वर्ष के भीतर 11,692 मामले बढ़ गए और रकम तो दो गुना से भी ज्यादा (19.6 खरब रुपये) हो गई है. यह बैंकों के लिए शुभ नहीं है.
डीआरटी का गठन रिकवरी ऑफ बैंक्स एंड फाइनेंशियल इंस्टिट्यूशनल्स एक्ट-1993 के तहत किया गया. उद्देश्य है फंसे कर्जों की वसूली में तेजी लाना. लेकिन मौजूदा हालात में लगता है कि मात्र दो दशक में अर्धन्यायिक अधिकार प्राप्त ये पंचाट अपनी उपयोगिता खो चुके हैं. नियमानुसार कोई केस आने के छह माह के भीतर उसका निपटारा हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं. फिलहाल, सारे पंचाट मिलकर एक साल में करीब 11-12 हजार केसों का निपटारा कर पाते हैं. इस हिसाब से आगे यदि एक भी नया केस न आए तब भी मौजूदा करीब 60 हजार मामले निपटाने में पांच साल लग जाएंगे. इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि निकट भविष्य में बैंकों की दुर्दशा सुधरने के आसार बहुत क्षीण हैं.
बड़े-बड़े कॉरपोरेट और उद्योगों पर आज बैंकों का खरबों रुपया बकाया है. इस जून में समाप्त तिमाही में देश में लिस्टेड 39 बैंकों का नॉन परफोर्मिंग एसेट (एनपीए) बढ़कर 32.1 खरब रुपये हो गया. एक साल के अंदर उनकी एनपीए में 27.69 फीसदी का इजाफा हो गया जो गहरी चिंता का विषय है. गत तीन साल में बैंकों से लिए ऋण न लौटाने की बीमारी का विस्तार तेजी से हुआ है. पिछले दो वर्ष से तो एक नया ट्रेंड नोटिस किया जा रहा है. इस अवधि में 10 लाख या इससे अधिक रकम के बड़े कर्जदार बैंकों से लिया उधार लौटाने में खुद को असमर्थ घोषित कर रहे हैं. डीआरटी में दर्ज नए केस इस तथ्य की पुष्टि करते हैं.
बैंक रिकवरी में सुधार की नीयत से वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में छह नए कर्ज वसूली पंचाट गठित करने की घोषणा की थी, किन्तु अब तक इस पर अमल नहीं हो पाया है. इतना ही नहीं, मौजूदा पंचाटों में से अनेक के प्रिसाइडिंग ऑफिसर सेवानिवृत हो चुके हैं किन्तु उनके स्थान पर नई नियुक्तियां नहीं की गई हैं. बैंक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं, और जब उनकी हालत खस्ता हो तब अर्थव्यवस्था में सुधार के दावे बेमानी माने जाएंगे. यहां दो बातों पर ध्यान दिलाना जरूरी है. पहली, देश के बैंकिंग उद्योग में सार्वजनिक बैंकों की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से अधिक है, और दूसरी, उनमें से अधिकांश आज बीमार हैं. भारतीय रिजर्व बैंक इस कड़वे सच से वाकिफ है और उसे सार्वजनिक बैंकों की सेहत की चिंता है. आज जिन 17 बैंकों की एनपीए पांच प्रतिशत का खतरनाक स्तर कूद चुकी है, उनमें से 15 सार्वजनिक और केवल दो प्राइवेट हैं. सबसे बुरी हालत यूनाइटेड बैंक (एनपीए-9.57 फीसदी) की है, और इसके बाद इंडियन ओवरसीज बैंक (एनपीए-9.4 फीसदी) का नम्बर है. दूसरी ओर निजी क्षेत्र के एचडीएफसी, इंडस और यस बैंक हैं, जिनकी एनपीए एक फीसदी से भी कम है.
सार्वजनिक बैंकों की दुर्दशा के लिए सीधे-सीधे सरकार ही जिम्मेदार है. बैंकों की कार्यप्रणाली में वित्त मंत्रालय का हस्तक्षेप रहता है. इससे वे पेशेवर रवैया नहीं अपना पाते. जनकल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने का भार उनके सिर रहता है. बाजार में निजी बैंकों की हिस्सेदारी 30 फीसदी है, लेकिन घाटे का कोई काम उन पर नहीं थोपा जाता. बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों की गहराई में जाने पर ही अर्थव्यस्था का असली चेहरा देखा जा सकता है. केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद बैंकों ने जो ऋण दिए हैं, उनमें केवल 25 प्रतिशत उद्योगों को मिले जबकि चालीस फीसदी कर्ज व्यक्तिगत हैं. इससे लगता है कि बैंक अब उद्योगों को कर्जा देकर और रकम फंसाने को तैयार नहीं हैं. जोखिम से बचने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत ऋण मुहैया कराने का सुरक्षित मार्ग अपना लिया है. सब जानते हैं कि व्यक्तिगत कर्ज की वसूली आसान होती है.
बैंकों के कर्ज फंसने की घटनाओं में वृद्धि और वसूली में विलंब का मुख्य कारण देश की आर्थिक विकास दर कमजोर पड़ जाना ही है. कई बार प्रोजेक्ट मंजूरी में होने वाले अनावश्यक विलंब से भी कंपनी समय पर ऋण नहीं लौटा पातीं. यदि बैंकरप्सी कानून पारित हो गया तो पैसा उधार देने वाले बैंकों को व्यापक अधिकार मिल जाएंगे. अभी तो किसी कंपनी को जानबूझकर ऋण न लौटाने का दोषी सिद्ध करने में बैंकों को पसीना आ जाता है. नया कानून बन जाने के बाद यह काम आसान हो जाएगा. लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि परिणाम कड़े कानून नहीं, उस पर ईमानदारी से अमल करने पर मिलता है. भ्रष्ट व्यवस्था में अच्छे से अच्छा कानून भी बेकार बन जाता है. किसी से छिपा नहीं है.
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