एड्स को मारना बाकी है
राजू सखाराम पटोले अपनी बस्ती में दया, सहयोग और सद्व्यवहार के लिए मशहूर था.
एड्स को मारना बाकी है |
बरबस कोई यकीन नहीं कर रहा था कि उसने अपनी बीवी और चार मासूम बच्चों की सिलबट्टे से हत्या कर दी. वह खुद भी नहीं जीना चाहता था, लेकिन उसे बचा लिया गया, तिल-तिल मरने के लिए. समाजसेवी के रूप में चर्चित राजू के इस पाशविक स्वरूप का कारण एक ऐसी बीमारी है, जिसके बारे में अधकचरा ज्ञान समाज में कई विकृतियां खड़ी कर रहा है. राजू को 1995 में डाक्टरों ने बताया था कि उसे एड्स है. इसके बाद अस्पतालों में उसके साथ अछूतों सरीखा व्यवहार होने लगा. वह जान गया था कि उसकी मौत होने वाली है. उसके बाद उसके मासूम बच्चों और पत्नी का भी जीना दुार हो जाएगा. फिलहाल, राजू जेल में है, और पुलिस ने उसे ‘कड़ी सजा’ दिलवाने के कागज तैयार कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली है. यह ऐसा पहला मामला नहीं है, जब एड्स ने कई बेगुनाहों को जीते-जी मार डाला.
हाल में यूनीसेफ ने बताया है कि अफ्रीका में 10 से 19 साल के युवाओं की मौत की सबसे पहली और दुनियाभर में दूसरी सबसे बड़ी वजह एड्स ही है. यूनीसेफ की रपट में कहा गया है कि प्रत्येक घंटे 15-19 आयु वर्ग के 26 नए एचआईवी पीड़ित सामने आ रहे हैं. इस बीमारी से पीड़ित इस आयु वर्ग के 20 लाख लोगों में से आधे छह देशों के हैं. इनमें भारत भी है. बाकी अफ्रीका के हैं. ये हैं-द. अफ्रीका, नाईजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया. यूनीसेफ की चेतावनी है कि लापरवाही के कारण मां के गर्भ से ही एड्स के जीवाणू नवजात में आने के मामलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. अति गंभीर स्वास्थ्य समस्या घोषित हो चुकी एड्स की बीमारी ऐसी ही अनेक सामाजिक समस्याएं और जटिलताएं पनपा रही है. यह संक्रामक रोग मनुष्य की बिगड़ी हुई जीवन शैली का परिणाम है. अवांछित, अनैतिक, अप्राकृतिक और उन्मुक्त यौनाचार इस संक्रमण के प्रमुख कारण हैं. साझा सूइयों से नशा करना, रक्तदान में बरती लापरवाहियां भी एड्स की जनक हैं. एशिया और तीसरी दुनिया के अविकसित या विकासशील देशों में इस संक्रमण का असर कुछ अधिक ही है. यह बात इंगित करती है कि एड्स के प्रसार में कहीं आर्थिक विषमता भी एक कारण है.
एड्स से पीड़ित देशों की जनता अलबत्ता पहले ही गरीबी, कुपोषण से जूझ रही है, ऐसे में यदि वहां हालात पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाले सदी में ये देश भीषण तबाही, जनहानि और घोर त्रासदी से ग्रस्त होंगे. इसके कारण उद्योग, व्यापार, कृषि, पर्यटन के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था पर भी खतरे के बादल मंडरा सकते हैं. ऐसा कई अफ्रीकी देशों में हो भी चुका है. जांबिया का बार्कलेस बैंक केवल इसलिए बंद करना पड़ा क्योंकि उसके दस फीसद कर्मचारी एड्स के शिकार होकर मारे गए थे. युगांडा, केन्या, सूडान और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में हालात बेहद नाजुक हैं. वहां का समूचा प्रशासनिक और चिकित्सा तंत्र ‘एड्स’ के हमले के सामने अकर्मण्य और असहाय स्थिति में है. सामाजिक ढ़ांचा तो अस्त-व्यस्त होने की कगार पर है. औद्योगिक इकाइयां लगातार वीरान होती जा रहीं हैं. दूर क्यों जाएं, हमारे देश के पूर्वोत्तर राज्यों की युवा पीढ़ी का बड़ा हिस्सा इसकी चपेट में है, और सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी ना तो वहां की आर्थिक स्थिति सुधर पा रही है, और ना ही सरकारी योजनाएं सफल हो पा रही हैं. मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसी योजनाएं वहां कहीं दिखती तक नहीं हैं.
विशेषज्ञों की राय में इक्कीसवीं सदी का मध्य बेहद खौफनाक और त्रासदपूर्ण होगा. एक ओर जहां सामाजिक और प्रशासनिक वयवस्था पर गहरा संकट आसन्न होगा वहीं दूसरी ओर आर्थिक व्यवस्था पर चौतरफा दबाव और दिक्कतों की मार होगी. ‘एड्स’ के बारे में सर्वाधिक चिंताजनक बात यह है कि आज तक उसका कोई सटीक इलाज नहीं खोजा सका है, ऐसे में नए-नए प्रयोग और झूठे-सच्चे दावों के फेर में पड़ कर लोग घोर निराशा और धोखे का शिकार होते जा रहे हैं. ऐसी घटनाएं आये रोज पूरे देश से सुनाई देती हैं, जिनमें एड्स से हुई एक मौत के बाद मृतक के परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. मृतक के परिवारजनों के खून में एचआइवी पॉजिटिव पाया गया हो या नहीं, इसकी परवाह किए बगैर उनको स्कूल से भगा दिया गया. ऐसे लोग गांव-बस्ती से दूर एकाकी जीवन जीने को मजबूर हैं. यही नहीं ऐसे गांवों में दूसरे गांव के लोग शादी-ब्याह संबंध करने को राजी नहीं होते हैं. यह बानगी है कि एड्स किस तरह के सामाजिक विग्रह उपजा रहा है.
दुनियाभर में एचआईवी वाइरस से ग्रस्त 90 फीसद लोग तीसरी दुनिया के देशों से हैं. अकेले भारत में इनकी संख्या 40 लाख से अधिक है. विकासशीलता के दौर में जब वहां प्रगति, विकास, शिक्षा व अन्य मूलभूत सुविधाओं के लिए अधिक धन व मानव संसाधन की जरूरत है, तब वहां के संसाधनों का एक हिस्सा एड्स से जूझने पर खर्च करना पड़ रहा है. भारत को 1990 से ही इसके लिए विदेशी कर्ज मिल रहा है. अनुमान है कि आज इस बीमारी पर होने वाला खर्चा सालाना 11 अरब डालर पहुंच गया है. एड्स को लेकर फैली भ्रांतियों के हालात इतने गंभीर हैं कि महानगरों के बड़े अस्पताल व डाक्टर एचआईवी संक्रमितों का इलाज अपने यहां करने से परहेज करते हैं. ऐसे लोगों को काम नहीं मिलता, ऐसे में एचआईवीग्रस्त लोगों की बड़ी संख्या बेरोजगार के रूप में अर्थव्यवस्था को आहत कर रही है. यहां जानना जरूरी है कि अभी तक उजागर एड्स के मामलों में 78 फीसद अलग-अलग तरह के यौन संबंधों से पनपे हैं. गौरतलब है कि 20 से 45 वर्ष आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक यौन सक्रिय होते हैं. चिंता का विषय है कि जब इस आयुवर्ग के लोग एड्स जैसी बीमारी से ग्रस्त होंगे तो देश को सक्रिय मानव पंक्ति का कितना नुकसान होगा.
एशियन विकास बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ता हुआ एड्स संक्रमण कोरिया, मलयेशिया, ताईवान जैसे आर्थिक रूप से संपन्न और भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन्स जैसे उभरते देशों के विकास में बड़ा अड़ंगा बन सकता है. एड्स का वाइरस कई साल तक शरीर में छिप कर अपना काम करता रहता है. संक्रमित व्यक्ति में बीमारी पूरी तरह फैलने में पांच से दस साल लगते हैं और फिर उसकी मृत्यु छह महीने से दो साल के बीच हो जाती है यानी एक इंसान को कई साल तक बीमारी से लड़ने, बेरोजगारी, सामाजिक उपेक्षा से जूझना होता है. एड्स पीड़ितों की देखभाल, उसके संक्रमण को फैलने से रोकने, उनके परिवार के बचाव और अंतिम संस्कार पर प्रति हजार व्यक्ति पर कोई 3000 करोड़ रुपये के व्यय का अनुमान विश्व स्वास्थ्य संगठन का है. कहीं भी कोताही बरती तो इसका संक्रमण तेजी से विस्तार पाता है. मुल्क में स्कूल, शौचालय, सड़क, जननी सुरक्षा जैसे मदों में ध्यान की अत्यधिक जरूरत है, एड्स पर इतना व्यय विकास की गति अवरुद्ध करता प्रतीत होता है. बहरहाल, जागरूकता और सुरक्षा ही इस रोग व उससे उपजी त्रासदियों से बचाव का एकमात्र तरीका है.
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