बेटियों को यहां जगह क्यों नहीं?

Last Updated 30 Nov 2015 05:58:06 AM IST

समाज में बिगड़ते लिंगानुपात के लिए हम चाहें तो विज्ञान और तकनीक को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं.


बेटियों को यहां जगह क्यों नहीं (फाइल फोटो)

सरोगेसी और अल्ट्रासाउंड मशीनों ने लोगों को वह सुविधा दे दी है कि अपने बच्चे के लिंग का चयन कर सकें, उसके लिंग का पता लगा सकें और यदि वह बेटी है, तो उसे गर्भ में ही मारने के प्रबंध कर सकें. हो सकता है कि भविष्य में डीएनए तकनीकों के सहारे लोग अपनी इस सोच के मुताबिक कि उन्हें बेटा ही चाहिए, गर्भ में ही बच्चे को डिजाइन भी करवा लें. लेकिन गर्भ की विकृतियों का पता लगाने के मकसद से अल्ट्रासाउंड मशीनों का जो इस्तेमाल दुनिया में शुरू हुआ था, उसके बारे में तो शायद उसके आविष्कर्ताओं ने भी नहीं सोचा होगा कि खास तौर पर भारत में इन मशीनों का ऐसा खराब इस्तेमाल होगा कि अदालतों से लेकर समाज को लेकर चिंतित हर शख्स को यह सवाल पूछना पड़ेगा कि बेटियां कहां हैं?

इधर यह सवाल सुप्रीम कोर्ट ने उन राज्य सरकारों से पूछा है जिन्होंने हर तीन महीने में बेटियों के जन्म पंजीकरण की रिपोर्टे केंद्र सरकार की संबंधित कमेटी को नहीं भेजी है. अदालत का आदेश है कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और मध्य प्रदेश समेत दूसरे राज्य ऐसी अनुपालन रिपोर्ट केंद्र सरकार की कमेटी को नियमित अंतराल पर भेजें, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसी प्रसंग में अदालत ने यह सवाल भी उठाया कि देश में जो लिंगानुपात 970 के आसपास था, वह 2011 की जनगणना में घट क्यों गया? इस जनगणना के अनुसार, 2011 में लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या 940 थी. अदालत का सवाल था कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? शायद इस सवाल का कोई मुकम्मल जवाब कोर्ट को आगे चलकर दिया जाए. पर इसके जवाब में यह पूछा जा सकता है कि सच में कोर्ट को इसका अहसास नहीं है कि देश में लिंगानुपात में गिरने की वजह क्या है?

संभवत: सवाल उठाकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी चिंता ही जाहिर की हो, क्योंकि लिंग परीक्षण को अपराध घोषित करने वाला कानून (प्रि-नैटल डायग्नॉस्टिक टेक्नीक (रेग्युलेशन एंड प्रिवेंशन ऑफ मिसयूज़) एक्ट, 1994) तो अदालत और सरकार की ही देन है. इसी कानून के तहत कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों को देखते हुए लिंग परीक्षण को अपराध घोषित कर रखा है. वह बात अलग है कि इस कानून पर सख्ती से अमल में लापरवाही के कारण देश भर में अल्ट्रासाउंड जांच करने वाले क्लीनिकों का धंधा जोरों पर चल रहा है. ये क्लीनिक गर्भ की जांच की आड़ में चोरी-छिपे यह सच जानने और बताने का काम करते हैं कि गर्भ में बेटा है या बेटी. और यदि बेटी है, तो उन्हें असल में करना क्या है. यह कानून अमल में आने के दशक भर बाद तक तो किसी को इन मामलों में पकड़कर सजा तक नहीं दी गई, जबकि इस बीच गर्भ में ही लाखों कन्या भ्रूणों को नष्ट करने की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती रहीं.

माना जाता है कि देश में करीब 50 लाख बेटियों की बलि चढ़ने के बाद इतिहास में पहली बार गर्भ में लिंग परीक्षण करने के दोषियों को वर्ष 2007 में सजा दी गई. हरियाणा के पलवल में एक क्लीनिक चला रहे डॉक्टर और उनके सहायक को दोषी मान कर हरियाणा की एक अदालत ने सजा सुनाई थी. उन्हें अपने क्लीनिक में भ्रूण की लिंग जांच करते हुए अक्टूबर, 2001 में रंगे हाथों पकड़ा गया था.यह उम्मीद भी की गई कि इससे हमारा समाज कुछ सबक लेगा और लैंगिक अनुपात में आते भयावह अंतर के सिलसिले पर कोई रोक लग सकेगी. लेकिन पकड़ में आने वाले मामले इतने कम हैं कि उससे इस अपराध के प्रति लोगों में कोई भय नहीं पैदा हो सका है. यही वजह है कि हमारा समाज बेटियों के साथ जो कुछ घृणित काम हो सकता है, वह कर रहा है. जैसे बताया जा रहा है कि देश की राजधानी दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में अस्पतालों में लगातार बेटों का ही जन्म होता है. यह सिलसिला इसलिए सतत जारी है, क्योंकि भ्रूण के लिंग की जांच का काम न सिर्फ बेहद आसान है, बल्कि इसमें किसी के फंसने की आशंका बेहद न्यूनतम है. हरियाणा, पंजाब और दिल्ली जैसे समृद्ध राज्यों में अगर कन्या भ्रूण हत्याओं के आंकड़े में सतत बढ़ोत्तरी हो रही है, तो इसकी मुख्य वजह संबंधित लोगों का पकड़ा नहीं जाना, सबूतों का अभाव होना, न्यूनतम खतरे के साथ अत्यधिक लाभ की संभावना होना और दोनों पक्षों (भ्रूण की जांच कराने आए अभिभावक और चिकित्सा तंत्र) की मिलीभगत होना है.



यह भी माना जा रहा है कि भ्रूण के लिंग की जांच के काम ने देश में एक वृहद व्यवसाय का रूप ले लिया है. अगर यह अनुमान लगाया जाए कि हर साल 10 से 15 हजार की फीस के बदले लगभग पांच से सात लाख कन्या भ्रूण हत्याएं होती हैं तो यह कारोबार करीब एक हजार करोड़ रु पयों का ठहरता है.

ऐसे में, स्वाभाविक है कि डॉक्टर इन खास मकसदों के लिए अल्ट्रासाउंड मशीनों का दुरु पयोग तब तक नहीं रोक सकते, जब तक कि ऐसा काम करने वालों की भारी संख्या में धरपकड़ नहीं होती और उन्हें कड़ी सजाएं नहीं दी जाती हैं. हमारे देश में दस-बीस बरसों में कन्या भ्रूण हत्याओं का घातक ट्रेंड स्थापित हुआ है. सभी जानते हैं कि लैंगिक अनुपात में आई इस घनघोर तब्दीली के सामाजिक-आर्थिक नतीजे बेहद डरावने हो सकते हैं, पर शायद ही कोई सबक लेने का इच्छुक है. हालांकि आदर्श स्थिति तो यह है कि समाज में बेटे और बेटियों की संख्या बराबर हो, लेकिन प्रति एक हजार बेटों पर 940-950 बेटियों की मौजूदगी को समाजशास्त्री भी व्यावहारिक मानने लगे हैं. 1991 की जनगणना में प्रति हजार बेटों पर बेटियों संख्या 945 थी, जो 2001 में 937 रह गई थी. 2011 की जनगणना में इस औसत में बेहद मामूली सुधार (एक हजार लड़कों पर 940 लड़कियां) ही दिखाई दिया.

इस राष्ट्रीय औसत के भीतर कई राज्यों के चौंकाने वाले आंकड़े भी छिपे हुए हैं. जैसे, पंजाब में बेटियों का औसत 800 से भी नीचे पहुंचे हुए अरसा हो गया. देश का सबसे खुशहाल राज्य ऐसे आंकड़ों के लिए फोकस में आ चुका है. इसके बाद ही भ्रूण परीक्षण पर रोक के लिए कानून बने हैं और अकाल तख्त जैसी धार्मिंक संस्था ने समाज को राह पर लाने की कोशिश की है. ये आंकड़े इस बात की घोषणा करते हैं कि संपन्नता से साथ-साथ बेटियों की गर्भ में ही हत्याओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है. अमीरी और बेटियों की गुमशुदगी के बीच जो प्रतिकूल रिश्ता बन गया, वह बेहद चिंताजनक है. इसका एक अर्थ यह है कि संपन्नता सदियों पुराने लैंगिक भेदभाव को हकीकत में बदलने का जरिया बन गई है.

यह पुत्र मोह की सामंती चाह का विस्फोट है, जो बताता है कि आधुनिक रहन-सहन, पब-बार, फैशन-हॉलीवुड, आईटी-आईआईटी और कार-मोबाइल के बावजूद हम सदियों पहले की किसी ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां बेटियों के लिए कोई जगह नहीं है. न हमारे दिलों में और न ही समाज और उसके विकास में उन्हें भागीदार बनाकर उन्हें भी जीने का बराबर हर दिलाने में. बेटियों के खिलाफ निपट आक्रामकता रखने वाला ऐसा समाज तो शायद पहले कभी नहीं था. क्या21वीं सदी में विकसित राष्ट्र का हमारा सपना हमसे बेटियों को बलि मांग रहा है?
 

 

 

मनीषा सिंह
लेखिका


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