व्यापक साझेदारी की ओर बढ़ते कदम

Last Updated 25 Nov 2015 12:31:09 AM IST

बदलती वैश्विक स्थितियों और आतंकवाद के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में क्वालालंपुर में 10वें ईस्ट एशिया और 13वें भारत-आसियान सम्मेलन पर भी जी-20 की तरह आतंकवाद का मुद्दा प्रमुख रहा.


व्यापक साझेदारी की ओर बढ़ते कदम

लेकिन जिन अन्य विषयों पर व्यापक चर्चा और सहयोग की प्रतिबद्धता दिखी, वह दोनों के लिए सुनहरा संकेत है. हालांकि ये दोनों ही मंच पहले से ही परम्परा से रणनीति की ओर बढ़ चुके हैं इसलिए अब इन्हें निर्णायक स्थिति की ओर बढ़ना है.

भारत भी ‘लुक ईस्ट’ से ‘एक्ट ईस्ट’ के चरण में लगभग एक वर्ष पहले ही प्रवेश कर चुका है, इसलिए निर्णायक स्थिति तक जाने में अन्योन्याश्रित हित व चुनौतियां अहम साबित होंगी, लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी हो गया है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बन रहे नए समीकरणों के मध्य संतुलन कायम रहे अन्यथा कुछ शक्तिशाली चुनौतियों से भी सामना हो सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्वालालंपुर में अपनी सरकार की उपलब्धियों को बताते हुए जिन मुद्दों की ओर दुनिया का ध्यान आकषिर्त करने कोशिश की है, उनमें सबसे आगे आतंकवाद और इसके बाद इंडो-आसियान समुद्री परिवहन, दक्षिण चीन सागर विवाद, क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे प्रमुख रहे. आतंकवाद इस समय वैश्विक संकट की हैसियत प्राप्त कर चुका है इसलिए यह सबसे गंभीर चुनौती है, इस पर प्रधानमंत्री की चिंता जायज है. हालांकि उनका कहना है कि इस क्षेत्र के लिए यह दूर की समस्या है, लेकिन पेरिस, अंकारा, बेरूत, माली और रूस के विमान पर बर्बर आतंकी हमलों ने हमें इस कड़वी हकीकत की याद दिला दी है कि अब आतंकवाद का साया हमारे समाज और हमारी दुनिया तक पसर गया है.

इसलिए अब हमें राजनीतिक संतुलन के विचार को नजरअंदाज कर आतकंवाद से लड़ने के लिए नई वैश्विक प्रतिबद्धता और नई रणनीति से काम करना होगा. संभवत: इसकी वजह यह है कि इस समय एशिया, अफ्रीका व यूरोप के धर्म विशेष के युवाओं में तीव्र आकषर्ण है. ऐसी स्थिति में यदि उन्हें सामाजिक प्रयासों के जरिए रोका नहीं गया तो हालात और ज्यादा खराब हो सकते हैं. वैसे लुक ईस्ट के तहत भारत ने 1990 के दशक में जो कदम आगे बढ़ाए थे, उनका परिणाम यह हुआ कि भारत का अन्य क्षेत्र की तुलना में एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र से ज्यादा संपर्क हुआ है, लेकिन दिसम्बर 2013 में जब नई दिल्ली में पूर्वी एशिया के देशों ने भारत के साथ सामरिक संधि की तो भारत एशिया-पैसिफिक के साथ इसे स्थायी व मजबूत बांड बनाने में कामयाब हो गया.

इसका एक परिणाम यह हुआ कि भारत ने एशिया-पैसिफिक में एक ऐसी ‘स्ट्रैटेजिक स्ट्रिंग’ निर्मित करने में सफलता हासिल की जो चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ को काउंटर करने में समर्थ है. दूसरा यह कि भारत ‘पैसिफिक जोन’ में भी महत्वपूर्ण ताकत बन गया जिससे वैश्विक शक्तियां, विशेषकर अमेरिका और चीन भारत की अहमियत को इस क्षेत्र में स्वीकारने के लिए विवश हुई,  लेकिन यह वह दौर है जब वैश्विक कूटनीति एवं भू-राजनीति के जो दो वैश्विक क्षेत्र बनते दिख रहे हैं, उसमें एक ‘एशिया-पैसिफिक’ है और दूसरा ‘मिडिल ईस्ट’ इसलिए वैश्विक चुनौतियों और अनिश्चितताओं से निपटने के लिए दुनिया इन क्षेत्रों की ओर देखने को विवश हुई. हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने एशिया-पैसिफिक की यह कहकर प्रशंसा की कि हमारा क्षेत्र एक स्थिर, शांतिपूर्ण और समृद्ध भविष्य की तलाश में कई बदलावों से गुजर रहा है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में जिन 80 देशों का जिक्र किया था, जहां इस्लामी स्टेट किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है, उनमें इस क्षेत्र के भी कुछ देशों का नाम था.

1982 के समुद्री कानून संबंधी समझौते और मान्य अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्धांतों के तहत भारत और आसियान देशों के बीच समुद्र में संचालन, इसके ऊपर उड़ान और बगैर किसी बाधा के व्यापार करने की प्रतिबद्धता है. भारत और बांग्लादेश ने भी हाल में 1982 के समुद्री कानून संबंधी समझौते (यूएनसीएलओएस) के तहत मौजूद व्यवस्था के जरिये अपनी समुद्री सीमाओं का मसला हल किया है. इसलिए प्रधानमंत्री ने चीन से यह अपेक्षा की कि वह दक्षिण चीन सागर विवाद से जुड़े सभी पक्ष सुलझाने में इस क्षेत्र की गतिविधियों से जुड़े घोषणापत्र और इस संबंध में मौजूद निर्देशों के अनुसार काम करेगा. दरअसल चीन ने जब से आर्थिक क्षेत्र में लंबी छलांग मारी है, वह लगातार आक्रामक होता जा रहा है.

वह मुक्त रूप से किसी भी देश की आलोचना कर सकता है, किसी देश के लिए ऐसे व्यंग्यात्मक शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है जो अमर्यादित हों और किसी को भी आंखें दिखा सकता है. उसके इस रवैये से पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया के अधिकांश देश चिंता और भय से ग्रस्त रहते हैं, लेकिन अब भारत की ‘लुक ईस्ट’ और इससे आगे बढ़कर ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के बाद पूर्वी एशिया के देशों में आत्मविास बढ़ता दिख रहा है. भारत के जापान, म्यांमार, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, वियतनाम, कम्बोडिया, लाओस और थाईलैंड के साथ विकसित रणनीति संबंधों से चीन दबाव महसूस करता दिख रहा है.

प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि भारत आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में प्रमुख है. विकास दर 7.5 प्रतिशत को छू रही है और इसके बढ़ने की संभावना है. वास्तव में भारत-आसियान के पास करीब 1.9 बिलियन की आबादी है और 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की अर्थव्यवस्था. इसका लाभ उसे ही प्राप्त होगा जो आज की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की क्षमता रखता होगा. आसियान भारत का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और भारत इस ब्लॉक का छठा सबसे बड़ा देश. दोनों का संयुक्त जीडीपी 2.57 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है.

भारत और आसियान, दोनों ने ग्रेटर इकोनॉमिक इनगेजमेंट हासिल की है और 2015 तक 100 बिलियन डॉलर और वर्ष 2022 तक 200 बिलियन डॉलर के व्यापार का लक्ष्य सुनिश्चित किया है. रोजगार सृजन के लिहाज से निवेशों की आवश्यकता होती है. भारत के लिए इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि भारत के युवा वर्ग की आबादी जैसे-जैसे बढ़ रही है, बेरोजगारों की बढ़ती फौज भी चिंताजनक होती जा रही है. पिछले आठ वर्षो में आसियन देशों ने भारत 27.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया जबकि भारत ने 32.4 बिलियन डॉलर का. दोनों पक्ष ट्रांस-नेशनल आतंकवाद, तटीय दस्युता और परमाणु प्रसार के मुद्दे पर सहयोग की दिशा में काफी आगे बढ़ते हुए दिख रहे हैं.

भारत और पूर्वी एशियाई देशों के बीच त्रिपक्षीय राजमार्ग परियोजना प्रगति पर है, जो संभवत: 2018 तक पूरी हो जाएगी. इसके अतिरिक्त भारत-आसियान के बीच भौतिक डिजिटल संपर्क को प्रोत्साहित करने वाली परियोजनाओं के लिए 1.0 बिलियन अमेरिकी डॉलर की ऋण सहायता वाले प्रस्ताव पर प्रतिबद्धता प्रकट की गई है.  कुल मिलाकर दोनों के बीच आवश्यकता व सहकार के निर्णायक चर मौजूद हैं. इसलिए भारत और पूर्वी व दक्षिण पूर्वी एशिया के देश उस तरफ बढ़ सकते हैं जहां 21वीं सदी का इतिहास एशिया के नाम हो. लेकिन ‘दुनिया का शक्ति केंद्र’ बदलने से जुड़ी कुछ समस्याएं हैं और भारत द्वारा इनका आकलन किया जाना जरूरी है.

रहीस सिंह
लेखक


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