भ्रामक विज्ञापनों का मायाजाल

Last Updated 25 Nov 2015 12:25:19 AM IST

हाल ही में एक याचिका की सुनवाई करते हए उच्चत्तम न्यायलय ने कहा कि मशहूर कंपनी की क्रीम लगाने से आप गोरे नहीं हुए तो अदालत क्या कर सकती है?




भ्रामक विज्ञापनों का मायाजाल

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताते हुए ऐसे मामलों को लेकर कंज्यूमर कोर्ट जाने की सलाह भी दी. भ्रमित करने वाले विज्ञापनों को लेकर दायर इस याचिका में अपील की गई थी कि कॉस्मेटिक्स सर्जरी व अंगों को सुंदर बनाने का दावा करने वाले प्रॉडक्ट्स को लेकर सुप्रीम कोर्ट गाइडलाइंस जारी करे. आरोप था कि कॉस्टेमिटक प्रॉडक्ट बनाने वाली कंपनियां लोगों को ठग रही है.

याचिका में कहा गया था कि इन उत्पादों के भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए और इससे संबंधित ठोस कानून भी बनना चाहिए.  विचारणीय बात यह है कि वाकई आमजन इन भ्रामक विज्ञापनों के जाल में फंसता जा रहा है. इसीलिए कोई ठोस कानून और निश्चित गाइडलाइन बनाना जरूरी है. इनमें से अधिकतर  विज्ञापन सीधे-सीधे आमजन की सेहत से खिलवाड़ करने वाले हैं. गौरतलब है कि इस साल भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) की ग्राहक शिकायत परिषद (सीसीसी) को फरवरी के दौरान  जिन 167 विज्ञापनों की शिकायतें मिलीं, उनमें से 73 शिकायतें पर्सनल एवं हेल्थकेयर वर्ग में भ्रामक विज्ञापनों को लेकर ही की गई थीं. अफसोस की बात यह है कि ये शिकायतें सही भी पाई गई. यानी इन उत्पादों की विज्ञापित बातें सच्चाई से परे थीं. शिकायतों के इन आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों की धोखाधड़ी किस स्तर पर हो रही है?  ऐसे में यह समझना भी कठिन नहीं कि इन विज्ञापनों के चमक-दमक भरे दावों पर लगाम लगाना कितना जरूरी है.   

दरअसल विज्ञापनों की मायावी दुनिया का खेल बरसों से ऐसे ही चला आ रहा है. आज के दौर में भी हम हर ओर से विज्ञापनों की मायावी चमक से ही घिरे हैं. यह ऐसी भ्रामक दुनिया है जो बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे जीवन के हर हिस्से पर अधिकार जमाये बैठी है. चाहे अखबार खोलिए या टीवी, इंटरनेट हो या रेडियो. इतना ही नहीं एक पल को घर की छत या बालकनी में आ जाएं जो साफ सुथरी हवा नहीं मिलेगी पर दूर-दूर तक बड़े-बड़े  होर्डिंग्स जरूर दिख जाएंगे जो किसी न किसी नई स्कीम या दो पर एक फ्री की जानकारी बिन चाहे आप तक  पहुंचा  रहे हैं, क्योंकि आक्रामक बाजारवाद के इस दौर में लोगों को अपने जाल  में  फंसाना ही विज्ञापनों की दुनिया का लक्ष्य बन गया है.

भारत में औसतन एक आम आदमी दिन में तीन घंटे टीवी देखने में लगाता और प्रतिदिन तकरीबन 600 विज्ञापनों से रू-ब-रू होता है. यह बारम्बारता इस हद तक मारक होती है कि लोग खुद ही इनका शिकार बन जाते हैं. ये विज्ञापन ऐसा कोई यकीन दिलाने वाला वादा लिये होते हैं, जिसकी चाल में हम चाहे-अनचाहे फंस ही जाते हैं. टीवी पर दिखाए जाने वाले ललचाऊ और भड़काऊ विज्ञापनों ने बच्चों से लेकर बड़ों तक, सभी की सोच की रूपरेखा ही बदल दी है. यही कारण है कि विज्ञापनों की रणनीति को समझने का आत्मबोध और जानकारी होने के बावजूद आमजन इनके चंगुल में फंसे बिना नहीं रह सकते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि हमारे यहां इस तरह के विज्ञापनों पर नजर रखने के लिए कोई सख्त रेगुलेटर ही नहीं है. हालांकि 2014 में कंज्यूमर अफेयर्स मंत्रालय ने जरूर एक वेबपोर्टल की शुरु आत की थी, जहां उपभोक्ता गलत विज्ञापन के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज कर सकते हैं. 

व्यावसायीकरण के इस दौर में हर कंपनी के लिए उपभोक्ता संस्कृति ही परम ध्येय है. इसके लिए उत्पादों को विज्ञापित करने के लिए अपनाई गई रणनीति में ये करिश्माई वादे करना भी शामिल है. भले ही इसके चलते उपभोक्ता को मानसिक और शारीरिक तकलीफ ही क्यों ना मिलें ?  यही वजह है कि भ्रामक विज्ञापनों के इस खेल पर रोक लगाने के लिए विज्ञापन उद्योग पर नजर रखने वाले भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई)  ने कुछ समय पहले कई बड़ी कंपनियों के 125 भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ शिकायतें सही पाई थीं, जिनमें  भ्रमित करने वाले वादों और दावों को गलत पाया गया. सेहत बढ़ाने वाले एक विज्ञापन में दिखाया गया कि परीक्षा के समय दूध में इसका सेवन करने से एकाग्रता बढ़ती है. दूसरी ओर एक खास ब्रांड का च्यवनप्राश प्रतिरोधक क्षमता तीन गुना कर देता है जिससे बच्चे अंदर से मजबूत होते हैं.

विज्ञापन उद्योग से जुड़ी इस संस्था का भी मानना था कि ऐसे दावों में कोई सच्चाई नहीं है और यह ग्राहकों को भ्रमित करने की चाल भर है . हैरानी की बात यह भी है कि विज्ञापन मानक परिषद तक पहुंची ज्यादातर शिकायतें नामचीन कंपनियों के बहुप्रचलित उत्पादों के विरुद्ध थीं. ऐसे में यह वाकई चिंता का विषय है कि सभी कम्पनियां और उत्पाद आमजन के साथ छल कर रही हैं. हर माध्यम के जरिये प्रकाशित-प्रसारित हो रहे ऐसे भ्रामक दावों वाले विज्ञापन आमजन के  मन पर मनोवैज्ञानिक असर भी डालते हैं. इन विज्ञापनों को ऐसी सोची समझी कूटनीति  के तहत तैयार किया जाता है कि ग्राहक इनके प्रभाव में आ ही जाते हैं. साथ टीवी-रेडियो जैसे माध्यमों में इनकी बारम्बारता दिमाग पर ऐसा असर डालती है कि उपभोक्ता उनके झांसे में आकर उस वस्तु या सेवा का ग्राहक बन ही जाता है.

मौजूदा समय में उत्पाद बेचने के लिए अपनाई जा रही आक्रामक पब्लिसिटी की होड़ एवं दौड़ को देख कई बार लगता है कि बाजार में अव्वल रहने के अलावा उत्पादकों  का और कोई  सामाजिक सरोकार ही नहीं.  इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि महज फेयरनेस क्रीमों का ही भारत में करीब 200 अरब रु पए के बाजार हो सकता है.

विज्ञापनों का मूल उद्देश्य किसी वस्तु या सेवा की जानकारी देना भर होता है, न कि उसके प्रभाव को लेकर बड़े-बड़े वादे करना. आमजन को सूचित या सचेत करने के बजाय यूं झूठे दावों के खेल में उपभोक्ताओं को उलझाने का खेल वाकई दुखद है. ऐसे में यह सचमुच यह विचारणीय विषय है कि दो सेकेंड में दी गई यह जानकारी ही अगर भ्रामक है तो उपभोक्ता के लिए वह उत्पाद कैसे लाभकारी सिद्ध हो सकता है ? 

इस प्रयोजन में भले ही व्यावसायिक सोच रखने वाले लोग सफल हैं पर देश के आम  नागरिकों के  साथ यह किसी धोखाधड़ी से कम नहीं. जरूरता इस बात की भी है कि इन भ्रामक विज्ञापनों के नकारात्मक प्रभावों को लेकर न केवल सरकार को गंभीरता से सोचना होगा  बल्कि आम जनता को भी  सतर्क रहना होगा.

डॉ. मोनिका शर्मा
लेखक


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