अन्नदाता की कद्र करनी ही होगी

Last Updated 14 Oct 2015 12:29:31 AM IST

फसल बर्बादी का सदमा बर्दाश्त न कर सकने की वजह से देश के विभिन्न इलाकों में किसान आत्महत्या करने को विवश हैं.


अन्नदाता की कद्र करनी ही होगी

हरियाणा पंजाब में सफेद कीटों के प्रकोप से कपास की फसल को भारी नुकसान होने के कारण बीते पंद्रह दिनों में 20 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. उधर तेलगांना में भी रोज किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. पिछले साल जून में तेलंगाना के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक 1,400 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. 

एनएसएसओ के ही अनुसार, पिछले एक दशक में कर्जदार किसानों की संख्या 48.6 फीसद से बढ़कर 51.7फीसद हो गई है. इनमें 40 प्रतिशत महाजनी कर्ज में दबे हैं जो 60 फीसद तक ब्याज वसूलते हैं. इस तरह की घटनाएं हर साल देश के विभिन्न इलाकों में देखने को मिलती है फिर भी सरकार कोई कारगर कदम नहीं उठाई पा रही है. सवाल है कि आखिर हमारे किसान ऐसा करने के लिए क्यों विवश है. साफ है, इस जानलेवा स्थिति के लिए सबसे पहला कारण फसलों ककी बर्बादी की स्थिति में क्षतिपूर्ति का न्यायोचित व त्वरित निष्पादन न होना है. किसानों को बचाने के लिए सरकार का क्षतिपूर्ति देने का तरीका निहायत दोषपूर्ण और अपर्याप्त है.

इस साल देश में 14 फीसद कम बारिश हुई है. देश 39 फीसद एरिया के 267 जिलों में सूखे की स्थिति है. गौर करने वाली बात यह है कि बीते दो दशकों में देशभर में तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं. यह बात सरकारी आंकड़े बताते हैं. ऐसे में कृषि आर्थिकी और ग्रामीण सामाजिकता की जटिलताओं के साथ उनकी विडंबनाओं पर बहुत ईमानदारी के साथ, पारदर्शी ढंग से सोचने और कार्ययोजनाएं बनाने की जरूरत है, ताकि किसान आत्महत्याओं को न्यूनतम किया जा सके और रोका जा सके. सच्चाई यह है कि आज कृषि एक अलाभकारी और घाटे का कारोबार बनकर रह गई है.

कौन नहीं जानता कि संयुक्त परिवारों के बिखराव और विघटन के बावजूद आज भी कृषि आधारित आर्थिकी पर जीवन जीने वाले परिवारों के मुखिया पर जिम्मेदारियों का इतना बोझ लदा होता है कि उसके कंधे हमेशा झुके रहते हैं. खेती की उत्तरोत्तर बढ़ती गई लागत, कृषि उत्पादनों के लिए लाभकारी बाजार का अभाव, मौसम की प्रतिकूलता समेत कई ऐसे कारण हैं, जिनके चलते किसान सरकारी और निर्जी कर्जों में डूब जाते हैं. इन्हीं चौतरफा दबावों में अकेला पड़कर किसान ऐसे भंवर में फंस जाता है, जहां से निकल पाने की उसे कोई राह नहीं सूझती. ऐसे हालात में बहुतेरे किसान टूट जाते हैं और आत्महत्या करने का रास्ता अख्तियार कर लेते हैं. महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा के इलाके में हुई सर्वाधिक आत्महत्याओं के मामले में जमीनी पड़ताल से यह सच्चाइयां बार-बार निकलकर सामने आई हैं.

बहरहाल, अगस्त 2014 से 2015 के बीच किसान आत्महत्याओं का आंकड़ा तेजी से बढ़कर 1,373 पर पहुंच गया. बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से देशभर में करीम दो करोड़ हेक्टेयर में खड़ी फसल का भारी नुकसान होने और सरकार के इस संकट के प्रति उदासीन बने रहने के चलते किसानों की आत्महत्याओं में और तेजी आई है.

हालांकि भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इसका वादा किया गया था और खुद नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि भाजपा की सरकार किसानों के ‘अच्छे दिन’ लाएगी और किसानों की आत्महत्याएं खत्म कराएगी. वादा किया गया था कि भाजपा की सरकार खेती के लिए तथा ग्रामीण विकास के लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाएगी, किसानों के लिए उत्पादन लागत के ऊपर से 50 फीसद दिलाकर खेती की लाभकरता बढ़ाने के कदम उठाएगी, खेती में आधुनिकतम प्रौद्योगिकी तथा ज्यादा पैदावार देने वाले बीज लाएगी, मनरेगा को खेती से जोड़ेगी, अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं से फसल के नुकसान की भरपाई करने के लिए फसल बीमा लागू करेगी, ग्रामीण ऋण सुविधाओं का विस्तार करेगी, किसानों को विश्व बाजार में कीमतों में भारी उतार-चढ़ावों के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष कायम करेगी, आदि आदि. लेकिन राजग सरकार ने गेहूं तथा धान के दाम में सिर्फ 50 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की है और अन्य ज्यादातर पैदावारों के मामले में न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बढ़ोतरी ही नहीं की है. 20 फरवरी 2015 को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि किसानों को उत्पादन लागत पर 50 फीसद अतिरिक्त देना संभव ही नहीं है.

इसके ऊपर से लागत सामग्री के दाम बढ़ते जा रहे हैं और सरकार ने उनके दाम पर नियंत्रण के लिए कुछ किया ही नहीं है. इस तरह खेती की पैदावार के दाम तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य अलाभकर ही बने हुए हैं और उनसे खेती की लागत तक पूरी नहीं होती है. इसके ऊपर से सरकारी खरीद की व्यवस्था को तेजी से ध्वस्त किया जा रहा है. कटे पर नमक छिड़कने वाली बात यह कि भाजपा की केंद्र सरकार ने यह फरमान भी जारी कर दिया है कि कोई भी राज्य गेहूं या धान के लिए तय किए गए समर्थन मूल्य पर कोई बोनस नहीं दे सकता है और जो भी राज्य ऐसा बोनस देगा, वहां से भारतीय खाद्य निगम खरीद नहीं करेगा. यह फरमान इस बहाने से किया गया है कि इस तरह का बोनस ‘बाजार को बिगाड़ता’ है.

खैर, राजनीतिक पार्टयिों को ‘अन्नदाताओं’ की याद तभी आती है, जब चुनाव सिर पर होते हैं क्योंकि देश का सबसे बड़ा वोट बैंक भी यही हैं. लेकिन सत्ता की चाबी हाथ लगते ही देश की सबसे बड़ी साधनहीन आबादी को उसकी तकदीर पर छोड़ दिया जाता है. जाहिर है, घटती आमदनी के चलते किसान निराश हैं. राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे 2013 के अनुसार भारत में नौ करोड़ किसान परिवारों में 75 प्रतिशत के पास 1.5 एकड़ से कम कृषि भूमि है. सरकारी नीतियों के चलते इससे भरण-पोषण में कठिनाई हो रही है. दूसरे अध्ययन के अनुसार 40 प्रतिशत किसान विकल्पहीनता की स्थिति में खेती कर रहे हैं. किसान आबादी कर्ज और घाटे की खेती से परेशान है. युवा पीढ़ी इस धंधे में आने के बजाए शहरों की ओर भाग रही है और जो बचे हैं वो विदर्भ जैसे प्रांत में आत्महत्या कर रहे हैं.

विकास की योजनाएं शहरों को केंद्र में रखकर की गई और किसान तथा कृषि प्रधान देश का नारा संसद तक सीमित रहा. आज भी सरकार का सारा फोकस शहरी विकास पर केंद्रित है. कृषि अर्थव्यवस्था तो बाजार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ चली गई. देखते-देखते किसान अपनी भूमि पर गुलाम हो गए. बहरहाल, 130 करोड़ जनता को अन्न चाहिए तो अन्नदाता को गांव में रोकना होगा, उसे बेहतर जीने का अवसर देना होगा, जैसा दुनिया के विकसित राष्ट्र अपने किसानों को देते हैं, वैसी व्यवस्था लानी ही होगी.

रवि शंकर
लेखक


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