स्वाभाविक साझेदारी की ओर

Last Updated 10 Oct 2015 12:32:17 AM IST

जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल अपने पांच वरिष्ठ मंत्रियों- विदेश मंत्री, खाद्य एवं कृषि मंत्री, शिक्षा एवं शोध मंत्री और आर्थिक सहयोग एवं विकास मंत्री के साथ भारत आयीं.


स्वाभाविक साझेदारी की ओर

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जर्मनी के हितों के लिए मर्केल का भारत दौरा कितना अहम है. लेकिन क्या इसे भारत के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाए? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था बदलने में भारत और जर्मनी को ‘स्वाभाविक साझेदार’ बताया है, लेकिन स्वाभाविक साझेदारी क्या इतने सीमित पैमाने पर वास्तविक अर्थों में फलित हो सकेगी?

तीसरी इंडो-जर्मन अंतर्देशीय वार्ता में हिस्सा लेने भारत आयीं जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर 18 समझौते किए हैं जिनमें जर्मन निवेश को तेजी से मंजूरी देने की प्रक्रिया भी शामिल है. जिन 18 क्षेत्रों में सहयोग पर सहमति बनी है, उसमें से 14 एमओयू दोनों सरकारों के बीच और चार दोनों देशों की निजी कंपनियों के मध्य. इनके तहत दोनों देशों के बीच वित्तीय, सुरक्षा और नागरिक उड्डयन के क्षेत्रों में अहम एमओयू (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) पर हस्ताक्षर हुए हैं. इस वार्ता के दौरान जर्मनी ने भारत को सौर ऊर्जा के विकास के लिए एक अरब यूरो देने की घोषणा भी की है. संभवत: इसे देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के आर्थिक परिवर्तन में जर्मनी को ‘स्वाभाविक साझेदार’ बताया है. प्रधानमंत्री मानते हैं कि भारतीय आईटी स्किल्स और जर्मन इंजीनियर मिलकर कमाल कर सकते हैं. सवाल है कि क्या मर्केल और उनके सहयोगी भारत की मौजूदा स्थिति से संतुष्ट हैं और भारत में बड़े निवेश व चीन जैसी साझेदारी की मनोदशा का निर्माण कर पा रहे हैं?

भारतीय मीडिया की ही मानें तो चांसलर मर्केल के साथ आये जर्मन औद्योगिक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के तहत निवेश के माहौल पर निराशा जताई है. उनका कहना है कि मोदी के नेतृत्व में वे बदलाव की आशा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दरअसल मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी यूरोपीय ताकत और यूनियन के नेता के रूप में उभरा है. यही नहीं, वैश्विक कूटनीति में उसने अच्छी धाक जमायी है विशेषकर ग्रीस संकट, ईरान के साथ परमाणु समझौता तथा शरणार्थी संकट के मामले में. जर्मन अर्थव्यवस्था को और शासन की जवाबदेही को उन्होंने जो दिशा दी है, उससे वैश्विक प्रतिस्पर्धी और अन्वेषी अब जर्मनी की ओर देख रहे हैं. यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जर्मनी की दावेदारी सबसे मजबूत है और वह अमेरिका व चीन की पहली पसंद है. लेकिन क्या भारत घर-बाहर ऐसी स्थितियों का निर्माण कर पाया है?

दरअसल जर्मनी भारत में व्यावसायिक कौशल के स्तर में उत्थान के प्रति उत्सुक है क्योंकि यह उसके लिए भविष्य में लाभकारी सिद्ध हो सकता है. इसका कारण यह है कि जर्मनी में इस समय स्किल्ड प्रोफेशनल्स और एर्क्‍सपट्स की कमी होती जा रही है इसलिए जर्मनी को लगता है कि यदि भारत में स्किल डेवेलपमेंट को सही दिशा दी जा सकी तो भविष्य में इसका लाभ उसे जरूर मिलेगा, विशेषकर उद्योग एवं सेवा क्षेत्र को. इसके साथ जर्मनी की दिलचस्पी भारत में विज्ञान और तकनीक का स्तर बढ़ाने में भी है क्योंकि भारत अभी इस क्षेत्र में काफी पीछे है. लेकिन दिक्कत यह है कि जर्मनी में भारत की छवि अब भी खराब बनी हुई है. उसका मानना है कि भारत भ्रष्टाचार और गरीबी में आकंठ डूबा है. ऐसे में राजनीतिक तरजीह के बावजूद जर्मनी भारत के साथ उस तरह की साझेदारी नहीं कर पाएगा जैसी चीन जैसे देश के साथ है.

जर्मनी के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अंतरिम आंकड़ों के अनुसार 2014 में जर्मनी और भारत के बीच 15.9 अरब यूरो (16.8 अरब डॉलर) का व्यापार हुआ है और यह मात्रा तीन वर्षों से लगातार कम होती गयी है. व्यापार की मात्रा की दृष्टि से भारत इस समय जर्मनी के व्यापारिक साझेदारों में 25वें स्थान पर है. इस प्रकार जर्मनी के कुल विदेशी कारोबार का एक प्रतिशत से भी कम द्विपक्षीय कारोबार भारत के साथ है. इस मामले में वह रोमानिया, स्लोवाकिया, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से भी पीछे है और चीन के मुकाबले तो बहुत पीछे है. चीन जर्मनी का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है जबकि चीन के साथ जर्मनी का 2014 में 150 अरब यूरो का कारोबार हुआ. यही नहीं, 2014 में चीन में जर्मनी का कुल प्रत्यक्ष निवेश 40 अरब यूरो से अधिक था. करीब 5,000 जर्मन कंपनियां चीन में और 900 चीनी कंपनियां जर्मनी में हैं जबकि भारत में अभी केवल 1600 कम्पनियां ही काम करती हैं जिन्होंने 10 अरब यूरो का निवेश किया है. यानी जर्मनी के साथ साझेदारी के लिए भारत को काफी प्रयास करने होंगे.

भारत को सबसे पहले जर्मनी को यह समझाना होगा कि चीन की अर्थव्यवस्था में स्लोडाउन की शुरुआत हो चुकी है. इसलिए चीन क्रमश: और पीछे जाएगा जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था में चीन के मुकाबले ग्रोथ पोटेंशियल अधिक है. ऐसे में जर्मनी का चीन पर अधिक निर्भर रहना उतना लाभदायक नहीं रहेगा जितना भारत के साथ साझेदारी करना. दूसरा विषय भारत की गवन्रेंस से जुड़ा है, जिसकी स्थिति दुनिया के प्रगतिशील देशों की नजर में बेहद खराब है. उल्लेखनीय है कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने हैनोवर मैस्से में ‘मेक इन इंडिया’ में निवेश बढ़ाने की अपील की थी तो वहां बहुत से सवाल उठाए गये थे. जर्मन उद्यमियों ने धीमा फैसला लेने वाली नौकरशाही, भ्रष्टाचार, करों की उच्च दरें, बौद्धिक संपदा की सुरक्षा में कमी और कामगारों में कुशलता की कमी सामने रखते हुए निवेश के लिए इन्हें सबसे अधिक नकारात्मक माना था.

तीसरा पक्ष गुणवत्तापरक उत्पादों का है, जिसके कारण भारत वैश्विक बाजार में विशिष्ट पहचान नहीं बना पा रहा है और जब तक यह हैसियत प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक भारत निवेश के आकषर्ण का केन्द्र नहीं बन पाएगा. इसके लिए भारत को कुशलता के क्षेत्र में, टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में, इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में, वर्क कल्चर के क्षेत्र में, बिजनेस इन्वायरमेंट के क्षेत्र और गवन्रेंस के मामले में पुनरोद्धार की जरूरत होगी.

दूसरी बात आतंकवाद व उग्रवाद से साझा लड़ाई की घोषणा संबंधी है. एशियाई समस्याओं व अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण तथा सैन्य सहायता में जर्मनी के योगदान और दिलचस्पी से सभी परिचित हैं लेकिन जर्मनी अफगान शांति-प्रक्रिया के लिए जिस एकमात्र विवेकपूर्ण तरीके की वकालत करता है, वह भारतीय दृष्टिकोण के विपरीत है. उल्लेखनीय है कि भारत तालिबान के विचारों और उद्देश्यों पर कतई भरोसा नहीं करता.

सीमा पार आतंकवाद या स्पष्ट तौर पर कहें तो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के नजरिए का जर्मनी सक्रिय समर्थन नहीं करता. हालांकि जर्मन को भारत में विदेशी भाषा के तौर पर और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जर्मनी में प्रचार के संबंध में मानव संसाधन विकास मंत्रालय व जर्मनी के संघीय विदेश कार्यालय के बीच संयुक्त सहमति घोषणापत्र पर दस्तखत भी किये गये है. इस करार को भारत में जर्मन भाषा विवाद के समाधान के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन क्या इस यू-टर्न को वैदेशिक नीति की दृढ़ता का परिचायक माना जाए? बहरहाल, भारत-जर्मनी संबंध मजबूत हों, साझेदारी का फलक विस्तार ले और रणनीतिक स्तर प्राप्त करे, इसकी जरूरत दोनों देशों को है.

रहीस सिंह
लेखक


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