पेटेंट कानून में बदलाव की दरकार

Last Updated 09 Oct 2015 01:02:03 AM IST

एड्स-कैंसर व अन्य जीवाणुजनित बीमारियों की रोकथाम में इस्तेमाल होने वाली दवा डाराप्रिम की कीमत साढ़े 13 डॉलर से रातोंरात पांच हजार प्रतिशत बढ़ाकर 750 डॉलर कर दिए जाने की घटना ने दुनिया को हिलाकर रख दिया है.


पेटेंट कानून में बदलाव की दरकार

यह इसका उदाहरण है कि जो जीवनरक्षक दवाएं पहले से आम मरीजों की पहुंच से बाहर हैं, उन्हें कमाई में अंधी हो चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किस तरह और महंगा करती जा रही हैं.

मुश्किल यह है कि यह मामला सिर्फ डाराप्रिम दवा तक सीमित नहीं है. एक-एक करके तमाम जीवनरक्षक दवाएं महंगी होती जा रही हैं जिससे इलाज का खर्च सहन करना लोगों के बूते से बाहर हो गया है. हाल-फिलहाल टीबी के उपचार की अहम दवा ‘साइक्लोसेराइन’ की 30 गोलियों की कीमत 500 डॉलर से बढ़ाकर 10,800 डॉलर कर दी गई, क्योंकि इसका पेटेंट रॉडेलिस थेरेप्यूटिक्स ने एक अन्य कंपनी से खरीदा है. हृदय रोगों के इलाज की दो मुख्य दवाओं- आइस्यूपिल्र व नाइट्रोप्रेस को मैराथन फार्मास्यूटिकल ने एक अन्य कंपनी से खरीदा तो इनकी कीमत में क्रमश: 525 व 202 प्रतिशत का इजाफा कर दिया.

कुछ ऐसा ही हाल प्रसिद्ध एंटीबायोटिक दवा डॉक्सीसाइक्लेन का हुआ जिसकी कीमत अक्टूबर 2013 से अप्रैल 2014 के बीच 20 डॉलर से बढ़ाकर 1849 डॉलर कर दी गई. दो साल पहले अप्रैल, 2013 में दवाओं की कीमत का एक बड़ा मुद्दा भारत में भी तब उठा था, जब स्विट्जरलैंड की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी नोवार्टसि-एजी द्वारा बनाई जाने वाली ब्लड कैंसर की दवा ग्लाइवेक की एक महीने की खुराक की कीमत सीधे एक लाख 30 हजार रुपये तक पहुंचा दी गई थी. दावा किया गया कि इसी दवा के जेनेरिक संस्करण की इतनी ही खुराक सिर्फ दस हजार रुपये में आ जाती है, तो ग्लाइवेक को इतना महंगा करने की वजह क्या है?

जीवनरक्षक दवाएं दिनोंदिन महंगी क्यों हो रही है, इसे डाराप्रिम दवा बनाने व बेचने के सारे अधिकार हासिल करने वाली अमेरिकी कंपनी ट्यूरिंग फार्मास्युटिकल ने साबित कर दिया है. अन्य दवा कंपनियों की तरह ट्यूरिंग फार्मा इसके लिए अधिग्रहण, पेटेंट हासिल करने में हुए खर्च आदि जैसे कारणों को गिना रही है. इन कंपनियों के मत में पेटेंटेड दवाओं के महंगा होने का कारण उनके शोध और विकास पर लगने वाला श्रम व पैसा है. ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां दावा करती हैं कि जीवनरक्षक दवाओं के विकास में किसी-किसी दवा पर 100 अरब डॉलर तक का खर्च हो सकता है और इसमें दस साल का वक्त भी लग सकता है.

हालांकि ये दावे पूरा सच नहीं बताते. खास तौर से इस बारे में कि अमेरिका की जो फार्मा लॉबी है, वह वहां के राजनीतिक सिस्टम को कितनी अधिक पैसा मुहैया कराती है. जब ये फार्मा कंपनियां राजनेताओं को पैसे देंगी, तो वे अपने हितों को पोसने का काम भी करेंगी. ऐसी स्थिति में कानून बदलवा लेना और दवाओं की कीमतों को आसमान पर पहुंचा देना उनके लिए कहां मुश्किल रह जाता है?

यह बात इससे साबित हुई है कि पिछले करीब आठ-दस वर्षो से बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने नए पेटेंट कानूनों की आड़ में दवा कारोबार पर एकाधिकार कायम करने की मुहिम छेड़ रखी है. उन्होंने यह काम व्यापार से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) समझौते की आड़ में किया है, जिसके तहत 1995 में तय हुआ था कि सभी देश एक जनवरी 2005 तक बौद्धिक संपदा के नए नियम को लागू कर देंगे. इस डेडलाइन से ठीक पहले भारत सरकार ने भी एक ऑर्डिनेंस के जरिए यह शर्त पूरी कर ली थी. यह करना इसलिए जरूरी हो गया था, क्योंकि ऐसा न होने पर विश्व व्यापार संगठन सख्त कार्रवाई कर सकता था. वैसे तो पेटेंट के नए नियम तकनीक के हर क्षेत्र में लागू होते हैं लेकिन फार्मा इंडस्ट्री पर इनका असर साफ दिखाई पड़ता है,जहां प्रोसेस पेटेंट की जगह अब प्रॉडक्ट पेटेंट का नियम लागू किया गया है.

असल में, प्रोसेस पेटेंट सिस्टम के तहत भारतीय दवा कंपनियों को छूट मिलती रही है कि वे किसी भी दवा (प्रॉडक्ट) को किसी और प्रक्रिया यानी प्रोसेस के जरिए तैयार कर बाजार में बेच लें. लेकिन नए पेटेंट कानून के अंतर्गत यह छूट नहीं रही. इसीलिए बीच-बीच में यह आशंका भी जताई जाती रही है कि हमारे देश के दवा बाजार पर भी उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो जाएगा, जो अपने संसाधनों से नई दवाएं ईजाद करने में सक्षम हैं.

सवाल है कि कड़े पेटेंट कानून और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के गोरखधंधे से छुटकारा कैसे मिले? इसका एक उपाय हमारे देश के कानून में है. एक संबंधित कानून के मुताबिक 1995 के पहले खोजी गई दवाओं के जेनेरिक वर्जन देश में तैयार किए जा सकते हैं, जबकि इसके बाद अस्तित्व में आई दवाओं को इस विधि से तैयार नहीं किया जा सकता है. ऐसी दवाओं के मामले में उसे बनाने या पेटेंट खरीदने वाली कंपनी का ही एकाधिकार रहेगा.

लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस कानून के प्रावधानों का भी तोड़ निकालने के तरीके ईजाद कर लिए. ये कंपनियां अपनी पहले से मौजूद दवाओं के फार्मूलों में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर उसका नया पेटेंट हासिल करने की कोशिशें करने लगी हैं. कानून कहता है कि नया पेटेंट तभी दिया जाएगा, जब दवाओं के मॉलिक्यूल नए हों, न कि उन्हें बनाने का फार्मूला. इसलिए कई कंपनियां पुरानी दवाओं के मॉलिक्यूल में मामूली बदलाव करके नई दवाएं तैयार कर रही हैं और उनका नए सिरे से पेटेंट कराने का आवेदन कर रही हैं.

बहरहाल, दवाओं के भारतीय जेनिरक संस्करण देश के फार्मा उद्योग को ही नहीं, अमेरिमें भी मरीजों को फायदा पहुंचा रहे हैं क्योंकि उनकी दवाओं की काफी कम कीमत देनी पड़ती है. ट्यूरिंग फार्मा का मामला सामने आने के दौरान ही भारत ने कैंसर की दवा के एक जेनेरिक संस्करण की अमेरिका को आपूर्ति का फैसला किया है, जिससे अमेरिकी समाज राहत महसूस कर रहा है. राष्ट्रपति पद के लिए होड़ में चल रही हिलेरी क्लिंटन ने भी जेनेरिक दवाओं के लिए कॉरपोरेट पाबंदियां हटाने की मांग की है.

इसे उस भारतीय फार्मा उद्योग के लिए एक प्रोत्साहन माना जा रहा है जिसने 2014 में अमेरिका में बाहर से मंगाई गई 64170 प्रकार की कुछ दवाओं में 13 फीसद की आपूर्ति अपने दम पर की थी. सच यह है कि भारत के फार्मा उद्योग ने जेनेरिक दवाओं का निर्माण करके पूरी दुनिया में परचम लहराया है. मूल दवाओं की तरह ही अचूक ढंग से काम करने वाली जेनेरिक दवाओं के उत्पादन के कारण बेहद महंगी दवाओं की कीमतों में भी 60-80 फीसद तक कमी आई है.

चूंकि भारतीय फार्मा उद्योग का यह रवैया बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को रास नहीं आ रहा है, लिहाजा वे जेनेरिक दवाओं की क्वॉलिटी पर सवाल उठाने के साथ अपनी दवाओं पर पेटेंट लेने की कोशिश करती हैं. उम्मीद करें कि देश में अदालती दखल और सरकार की कड़ी शर्तें बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के गोरखधंधे पर कुछ रोक लगा सकें और मरीजों को सस्ती दवाएं हासिल हों. यह भी एड्स, कैंसर, टीबी जैसी भयानक बीमारियों की दवाओं के दाम तय करने के अधिकार सरकार के हाथ में रहे. साथ में, पेटेंट कानून की कमजोरियों को भी खत्म करना होगा. मौजूदा पेटेंट कानून की समीक्षा जरूरी है ताकि भविष्य में कोई भी दवा कंपनी मरीजों के हितों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सके.

अभिषेक कुमार
लेखक


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