किसानी के हक से भी वंचित महिला

Last Updated 08 Oct 2015 12:41:19 AM IST

देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं खेती-किसानी व पशुपालन का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य संभालती हैं, पर किसान के रूप में उनकी मान्यता नहीं के बराबर है.


किसानी के हक से भी वंचित महिला

यह महिलाओं की हकदारी के साथ-साथ भारतीय कृषि का भी बेहद उपेक्षित पक्ष माना जाएगा. महिला हकदारी की दृष्टि से यह एक प्रमुख मुद्दा है कि बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिलाओं को देश की सबसे महवपूर्ण आजीविका में इतनी कम मान्यता मिलती है.

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में महिला किसानों के कुछ प्रशिक्षण आरंभ किए गए. प्रशिक्षण के लिए आई लगभग सभी महिलाओं ने खेती-किसानी का अधिकतर कार्य संभाला हुआ था. इस मामले में उनकी समझ किसी से कम नहीं थी. पर जब उनसे कहा गया कि अपने-अपने गांव के पांच किसानों के नाम बताओ, तो किसी भी महिला ने किसी महिला किसान का नाम नहीं बताया. सभी ने केवल पुरुष किसानों के नाम बताए. इससे पता चला कि सामान्य सोच में महिला किसानों के श्रम व कुशलताओं की जो उपेक्षा है, उसे महिलाओं ने स्वयं भी आत्मसात कर लिया है. इसके बावजूद इसमें कोई संदेह नहीं है कि खेती-किसानी में उनके श्रम व कौशल का बहुत बड़ा योगदान है, फिर चाहे यह महिला किसान के रूप में हो या खेत मजदूर के रूप में हो.

उत्तर प्रदेश के ही बांदा जिले के गहबरा गांव में 40 वर्षीय महिला आशा सिह ने बताया कि वह सामान्यत: सुबह तीन बजे उठती है. सुबह सात बजे तक वह पानी लाने, गाय-भैंस से दूध दुहने व रसोई जैसे कई कार्य समाप्त कर खेत में चली जाती है. सात से 12 बजे तक वह मौसम की जरूरत के अनुसार खेत में कुछ न कुछ कार्य करती है. तब घर लौटकर नहाने-धोने, भोजन खाने-खिलाने, बच्चों के छोटे-छोटे काम करने के साथ वह पशुओं को पानी पिलाती है. शाम को चार से सात बजे तक वह फिर खेत में काम करती है. वहां से लौटकर पशुओं की देखभाल करती है. उसके बाद वह खाना बनाती है व घर-गृहस्थी के अन्य छोटे-मोटे कार्य करती है. रात 12 बजे के आसपास वह सो पाती है.

दूसरे शब्दों में, सामान्यत: आशा एक दिन-रात में मात्र तीन घंटे ही सो पाती है. प्रतिदिन नौ से दस घंटे वह खेती-किसानी व पशुपालन कार्य में लगाती है. शेष समय घर-गृहस्थी के छोटे-बड़े कार्यों में जाता है. निश्चय ही सब दिन एक से नहीं होते हैं व मौसम के चक्र, तीज-त्यौहार के साथ दिनचर्या में बदलाव भी होता है पर आशा की सामान्य दिनचर्या यही है. आसपास की अनेक अन्य महिलाओं से बात कर पता चला कि उनकी दिनचर्या भी इससे बहुत अलग नहीं है.

सेमिया चार बजे उठती है व लगभग रात को 11.30 बजे सोती है. सुबह-शम खेत में आशा जितनी ही मेहनत करती है. गांव की दलित महिला हेरिया के पास अपनी जमीन मात्र तीन बीघा है. अत: अपने खेत पर मेहनत करने के साथ ही दूसरों के खेतों पर मजदूरी भी करती है. उसकी भी यही कहानी है कि 3 से 4 बजे के बीच उठना व 11.30 से 12 बजे के बीच सोना. बहुत जरूरत महसूस होने पर भी इन महिलाओं को दोपहर में थोड़ी नींद पूरी करने का वक्त नहीं मिल पाता है.

सभी महिलाओं के बारे में एक अन्य सामान्य बात यह है कि वे बहुत कमजोर हैं. आसपास की अनेक महिलाओं की ऊंचाई व वजन की जानकारी एकत्र कर उनका बायो मॉस इंडैक्स निकाला गया तो यह और भी स्पष्ट हो गया कि उनमें कुपोषण बहुत अधिक है. बुंदेलखंड के यह गांव काफी समय से प्रतिकूल मौसम के दौर से गुजर रहे हैं और मध्यम श्रेणी के किसानों के घर में भी अनाज की कमी है. महिलाएं प्राय: दूसरों को खिला कर अंत में भोजन करती हैं.

इस स्थिति में उनके भूख व कुपोषण से पीड़ित रहने की संभावना और बढ़ जाती है, जबकि यही महिलाएं खेतों में प्रतिदिन नौ से दस घंटे का श्रम करती हैं. आशा ने कहा, बहुत कमजोरी और थकान में भी हम जी-तोड़ मेहनत करती रहती हैं पर इसके बाद भी परिवार का पेट नहीं भरता है तो दिल टूट जाता है. इससे आगे वे कुछ कहना चाहती हैं पर उनसे बोला नहीं जाता. इन महिला किसानों व खेत-मजदूरों की कठिनाइयां इस कारण और बढ़ जाती हैं कि पानी के संकट के कारण उनका बहुत सा समय पानी लाने में चला जाता है. कई बार रात के तीन बजे उठकर वह पानी भरने के लिए अपना नंबर लगाती हैं. अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का समय पर इलाज न होने के कारण भी अनेक महिला किसानों व खेत-मजदूरों के कष्ट बहुत बढ़ जाते हैं व उनका जीवन बहुत कष्टदायक हो जाता है.

विस्थापन का संकट पैदा होने पर महिलाओं की चिंताएं तेजी से बढ़ने लगती हैं. उन्हें लगता है कि उनके जीवन का आधार ही उनसे छिन जाएगा. राजस्थान के किशनगढ़ क्षेत्र में विस्थापन के विरुद्ध संघर्ष में महिलाएं आगे रहीं हैं. यहां राठौरण की शाणी की महिला सूरजकंवर ने बताया कि जो पुनर्वास का स्थान हमें दिया गया है, वहां खेती तो क्या पशुपालन भी ठीक से संभव नहीं होगा. पशुपालन के माध्यम से इन महिलाओं ने परिवार की आय का एक स्थाई स्रोत बनाया था, वह भी उनसे छिन रहा है. अत: उन्होंने विस्थापन का जम कर विरोध किया है.
संकट की स्थिति में कई महिला किसान व खेत मजदूर शहरों में प्रवासी मजदूर के रूप में भी जाती हैं. हाल में सुमेरपुर (राजस्थान) में ऐसी महिला आदिवासी मजदूर भी मिलीं जो बिना किसी पुरुष के साथ ही स्वयं मजदूरी करने अपने आदिवासी गांवों से चली आई हैं.

उन्होंने बताया कि गांव में कम से कम नहाने-धोने की तो व्यवस्था थी, यहां तो नहाने-धोने का कोई स्थान और शौचालय तक नहीं है और बहुत कठिनाई होती है. पति की अचानक मृत्यु हो जाए तो महिला किसानों का संकट और बढ़ जाता है. विशेषकर किसान आत्महत्या से प्रभावित अनेक परिवारों में महिलाओं को खेती-किसानी में हकदारी से वंचित करने के अनेक कुप्रयास प्राय: किए जाते हैं. हाल के समय में ‘आरोह’ जैसे कुछ प्रयासों ने महिला किसानों की मान्यता व सम्मान के लिए अनेक प्रयास किए हैं. गोरखपुर इन्वायरमेंट एक्शन ग्रुप ने आग्रेनिक खेती के प्रसार में महिला किसानों पर अधिक ध्यान दिया.

उनके समूहों का गठन अनेक गांवों में हुआ. इनसे पता चला कि महिला किसानों का आग्रेनिक खेती व प्रकृति की रक्षा से जुड़ी खेती के प्रति अधिक रुझान है. उत्तराखंड व आंध्र प्रदेश के कुछ भागों में महिलाओं ने परंपरागत बीज बचाने में बहुत योगदान दिया है. महिला किसानों को अधिक मान्यता मिलने से ग्रामीण महिलाओं की हकदारी मजबूत होगी, साथ में आग्रेनिक खेती व प्रकृति संरक्षण की संभावनाएं दूर-दूर के गांवों में बढ़ेंगी. परंपरागत बीजों की रक्षा में भी महिलाओं के बहुत महत्वपूर्ण योगदान की संभावना है.

भारत डोगरा
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment