सरोगेसी के अनसुलझे सवाल

Last Updated 07 Oct 2015 01:13:12 AM IST

पूरी दुनिया के देश-समाज में आज मूल्य, परंपराएं और मान्यताएं बदल रही हैं. बदलाव का एक संदर्भ सरोगेसी यानी किराये की कोख भी है.


सरोगेसी के अनसुलझे सवाल

अपने देश के परिप्रेक्ष्य में सरोगेसी का एकमात्र सकारात्मक पहलू यह है कि यह तकनीक मेडिकल टूरिज्म के जरिये कमाई का बहुत बड़ा माध्यम बन गई है. लेकिन सरोगेसी से जुड़े कई अनसुलझे सवालों को लेकर समाज और सरकार चिंतित हैं. यही वजह है कि हाल में सरकार ने एक जनहित याचिका पर मांगे गए जवाब में अदालत में हलफनामा दायर कर इससे जुड़े कानूनों को स्पष्ट करने का आग्रह किया है.

देश में जहां सरोगेसी को लेकर समुचित विनियमन और निर्देशन का अभाव है वहीं दूसरी तरफ भारत दुनिया में सरोगेसी हब के रूप में स्थापित हो चुका है. इसका बढ़ता कारोबार और स्पष्ट कानूनों की दुविधा इस मामले में ज्यादा गंभीरता की मांग करती है क्योंकि इसी से सरोगेट मांओं के अधिकार सुनिश्चित होंगे और उनके स्वास्थ्य व मानवीय गरिमा की रक्षा हो सकेगी. सरोगेसी पर जयश्री वाड नाम की महिला की जनहित याचिका से सामने आया कि देश में फिलहाल किराये की कोख संबंधी मामलों को नियमित करने के स्पष्ट कानून नहीं है. हालांकि इसके लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय एक विधेयक असिस्टेंड रीप्रोडेक्टिव टेक्नोलॉजी (रेगुलेशन) बिल 2015 तैयार कर रहा है, लेकिन जब तक इसे लागू नहीं किया जाता, ऐसे मामलों में संदेह और असंतुलन बना रह सकता है.

यह बिल अभी संसद में पेश नहीं किया गया है, जबकि इस बीच देश में सरोगेसी का कारोबार हजारों करोड़ रुपये की सीमा पार कर चुका है. भारी संख्या में विदेशी भारत आकर सरोगेसी का फायदा उठा रहे हैं लेकिन मामलों में इस कारोबार के कारण समस्याएं पैदा हुई हैं. जैसे, पिछले वर्ष यह मामला तब गर्माया था, जब एक ऑस्ट्रेलियाई दंपत्ति ने जुड़वा बच्चों में से एक को अपनाने से मना कर दिया. घटना मूलत: 2012 की है जो 2014 में प्रकाश में आई. दंपत्ति का तर्क था कि वह एक ही बच्चा चाहता था पर आरोप लगा कि एक बच्चे को उसके लिंग की वजह से छोड़ दिया गया.

अतीत में सरोगेट बच्चों से जुड़े इस तरह के कई अन्य मामले प्रकाश में आ चुके हैं. कुछ वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के एक अन्य दंपत्ति ने थाईलैंड में डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्ची को वहीं छोड़ दिया जबकि दूसरी को साथ ले गया. भारत में 2008 में बेबी मांझी का मामला भी कानूनी रूप से पेचीदा हो गया था. पिता ने पारंपरिक व्यवस्था के अनुरूप अपनी जैविक बच्ची को गोद लेकर जापान जाने का प्रयास किया तो उसे इजाजत नहीं मिली, क्योंकि भारतीय कानून नवजात शिशु के संरक्षण की जिम्मेदारी किसी स्त्री को ही देता है.

सरोगेसी के मामले में खुद भारतीय कानून व्यवस्था कितनी उलझी हुई है, इसकी एक और मिसाल पिछले साल तब मिली, जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सरोगेट बच्चों की नागरिकता का सवाल पूछा था कि सरोगेसी के माध्यम से पैदा उन बच्चों की नागरिकता क्या होगी जिनके मां-बाप विदेशी हैं लेकिन बच्चे को जन्मदात्री मां भारतीय है. सरोगेसी के मामले में तब तक तो कोई समस्या नहीं होगी, जब तक बच्चा अपने लिए भारतीय नागरिकता की मांग नहीं करता. लेकिन खास उद्देश्य के लिए विदेशी नागरिकता के साथ यदि वह भारतीय नागरिकता का भी आग्रह करता है, तो समस्या हो सकती है क्योंकि ऐसी स्थिति में हमारे कानूनी प्रावधान स्पष्ट नहीं हैं. संविधान कहता है कि भारतीय (सरोगेट) मां की कोख से जन्मा बच्चा भारतीय नागरिकता का अधिकारी है लेकिन जब बच्चे की जैविक मां विदेशी हो और बच्चा बड़ा होकर भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करे तो उसकी नागरिकता क्या होनी चाहिए- संविधान इस पर खामोश है.

स्पष्ट है- सरोगेसी के गांठें सुलझाना बहुत जरूरी है क्योंकि मेडिकल टूरिज्म के तहत भारी संख्या में विदेशी दंपत्ति सरोगेसी के जरिये भारत में बच्चे पैदा करवा रहे हैं. एक प्रश्न सरोगेसी के स्वाभाविक उद्देश्य को लेकर है. यानी कहीं इस तकनीक का उपयोग सिर्फ  बेटा चाहने वाले दंपत्तियों की मदद के लिए तो नहीं हो रहा है. सरोगेसी का सहारा बेटे की चाहत में भी लिया जा रहा है- यह बात 2013 के एक अध्ययन में स्पष्ट हुई है. दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सोशल रिसर्च (सीएसआर) ने सौ सरोगेट मांओं पर जो अध्ययन किया उसमें ज्यादातर को पता था कि उनके गर्भ में लड़का है. यानी ज्यादातर बेटे की चाहत में सरोगेसी अपना रहे हैं. अध्ययन से यह भी पता चला कि ज्यादातर महिलाएं गरीबी और पति से अलग होने के कारण बच्चों की शिक्षा व भविष्य के लिए कोख किराये पर देने को मजबूर हुई. लिहाजा उन्हें फर्क नहीं पड़ता था कि उनकी कोख से जन्म लेने वाले बच्चे का लिंग पहले से तय है या नहीं.

एक अनुमान के मुताबिक देश में किराये पर कोख प्रदान करने का कारोबार 25-30 हजार करोड़ रुपये का है. एक सर्वेक्षण के अनुसार, सरोगेसी के लिए भारत को सबसे ज्यादा तरजीह दी जा रही है. इसके बाद थाईलैंड व अमेरिका का नाम आता है. भारत को अहमियत देने की वजह है कि यहां किराये की कोख के जरिए मां-बाप बनने का सपना पूरा करना सस्ता पड़ता है. एक अंतरराष्ट्रीय सरोगेसी एजेंसी ‘सेरोगेसी ऑस्ट्रेलिया’ के हवाले से बताया गया है कि साल 2012 में भारत में ऑस्ट्रेलियाई युगलों के लिए 200 बच्चों का जन्म सरोगेसी के जरिए हुआ. जबकि 2011 में यह आंकड़ा 179, 2010 में 86 और 2009 में 46 था. सर्वेक्षण में ऑस्ट्रेलिया सरकार के आंकड़ों और 14 वैश्विक सरोगेसी संस्थाओं के आंकड़ों को शामिल किया गया था. भारत में किराये की कोख लेने का खर्च 77 हजार डॉलर (करीब 42 लाख 87 हजार रुपये) आता है, जबकि अमेरिका में इसके लिए एक लाख 76 हजार डॉलर (करीब 98 लाख रुपये) खर्च करने पड़ते हैं.

यह अच्छा है कि भारत में सरोगेसी को दुनिया सस्ता मान रही है और इसके लाभ हमारी अर्थव्यवस्था समेत पूरी दुनिया को मिल रहा है पर यहां सरोगेसी की आड़ में जो गोरखधंधे पनपने लगे हैं,  वे हमारे समाज और सरकार की चिंता बढ़ा सकते हैं. जैसे, हाल में लंदन मेट्रोपॉलिटन यूनिर्वसटिी में हुई इंटरनेशनल फैमिली लॉ एंड प्रैक्टिस कॉन्फ्रेंस, 2013 में यह बात प्रकाश में आई कि जर्मनी, जापान और इस्रइल के जिन दंपत्तियों के बच्चों का जन्म भारत में सरोगेसी के माध्यम से हुआ, उनके मामले में अदालतों को दखल देना पड़ा. इससे भारत में सरोगेसी की निगरानी के लिए कठोर कानून का अभाव दिखा. नि:संदेह इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश होना, कानून बनना और उन्हें अमल में लाना जरूरी है.

मनीषा सिंह
लेखक


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