हकीकत से रू-ब-रू होने का समय
दर्शकों और पाठकों की स्मृति वैसे तो बहुत विरल होती है, लेकिन हो सकता है कि उनकी इस विरल स्मृति के किसी कोने में दिल्ली में विगत अप्रैल में घटी वह घटना बनी रह गई हो जिसे एक और टैक्सी बलात्कार कांड के रूप में चर्चा मिली थी.
विभांशु दिव्याल |
इस घटना को मीडिया ने यूं ही नहीं गुजर जाने दिया था, और शहर-राज्य की पुलिस व्यवस्था तथा महिलाओं की सुरक्षाओं को लेकर खासा हल्ला-गुल्ला मचाया था. घटना के अनुसार इस टैक्सी वाले ने लड़की को अकेला पाकर उसके साथ जोर-जबर्दस्ती करने की कोशिश की यानी बलात्कार करने का प्रयास किया. लड़की की शिकायत पर दिल्ली पुलिस ने बलात्कारी ड्राइवर को गिरफ्तार कर लिया. बलात्कार के नए कानून के तहत उसे जेल भेल दिया गया.
लेकिन अब अदालत का जो फैसला आया है, उसने रमेश कुमार नाम के इस ड्राइवर को अपराधमुक्त कर दिया है. अदालती कार्रवाई के दौरान न तो इस लड़की के बयानों में संगति पाई गई, और न फॉरेंसिक साक्ष्य बलात्कार के पक्ष में निकले. जो घटना प्रमाणित हुई वह यह थी कि टैक्सी वाले ने लड़की से पांच सौ रुपये किराया तय किया था, जिसे देने से वह मुकर गई थी. इसी बात पर दोनों में तू-तू मैं-मैं हुई जो बाद में हाथापाई तक पहुंच गई.
झगड़े में दोनों को ही चोटें लगीं जिनके साक्ष्य उपलब्ध थे. लेकिन ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं मिला जो बलात्कार के प्रयास की पुष्टि करता हो. यह ड्राइवर खुश है कि वह एक घिनौने अपराध के आरोप से मुक्त हो गया है, लेकिन उसे पीड़ा यह है कि अप्रैल से सितम्बर तक उसके परिवार ने जो सामाजिक अपमान सहा, जो आर्थिक टूटन झेली, पत्नी और भाई के मानसिक अवसाद के चलते जो कष्ट सहा उसकी भरपाई कैसे होगी?
यहां बलात्कार का आरोप लगाने वाली लड़की या टैक्सी ड्राइवर की बात को अनसुना कर बलात्कार का मामला दर्ज करने वाली पुलिस को अतिरिक्त तौर पर दोषारोपित करने का न तो कोई अर्थ है, न कोई लाभ. दरअसल, इस समय यह आम प्रवृत्ति बन गई है कि जब कभी किसी महिला का अपने पति, अपने प्रेमी, अपने लिव-इन साथी या किसी अन्य पुरुष से किसी भी वजह से झगड़ा शुरू हो जाता है, तो गुस्से या बदले की भावना से भरी हुई महिला प्राय: दहेज-उत्पीड़न, बलात्कार की कोशिश, बलात्कार या छेड़छाड़ की ऐसी धाराओं में मुकदमा दर्ज करा देती है, जिससे सामने वाले पुरुष की स्थिति सामाजिक-आर्थिक तौर पर बेहद दयनीय हो जाती है. इनमें ऐसी महिलाएं भी होती हैं, जो वर्षो तक पति के साथ ठीक-ठाक रह चुकी होती हैं, और ऐसी महिलाएं भी होती हैं, जो अपने प्रेमी के साथ या तो विवाहेतर संबंध में रह रही होती हैं, या उनके साथ सहज दैहिक रिश्ता बनाए हुए होती हैं.
इस पूरी स्थिति को इस समय दिल्ली-गुड़गांव के दो चर्चित मामलों से ठीक से समझा जा सकता है. पहला मामला है दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती और उनकी पत्नी लिपिका मित्रा का जो दो बच्चों की मां हैं. सोमनाथ भारती का राजनीतिक जीवन खत्म हो गया है, और अब वह सींखचों के पीछे हैं. दूसरा मामला है गुड़गांव की उस महिला का जिसने उस व्यक्ति पर जिसके साथ वह लंबे समय से विवाहेतर रिश्ते में रह रही थी, बलात्कार और उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया है. इस मामले को लेकर गुड़गांव के पुलिस आयुक्त और संयुक्त पुलिस आयुक्त सार्वजनिक तौर पर आमने-सामने हैं. सच्चाई जब सामने आएगी, तब आएगी लेकिन इस समय यह मामला अखबारों की सुर्खियां बटोर रहा है. इस तरह के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं.
ये वे घटनाएं हैं, जिनमें सामाजिक संबंध, सामाजिक पृष्ठभूमि और सामाजिक प्रभाव पूरे तौर पर जुड़े होते हैं. इनकी परिणतियां अभियोक्ता और अभियुक्त दोनों को ही सामाजिक-पारिवारिक तौर पर दूर तक प्रभावित करती हैं, और कई बार बहुत से लोगों की जिंदगियां पूरी तरह असाध्य तौर पर बिखर जाती हैं. ऐसे विवादों से निपटने के लिए हर स्वस्थ समाज में एक सामाजिक तंत्र होता है, जो इन मसलों का पारिवारिक तौर पर समाधान खोजता है. लेकिन इधर भारतीय समाज में दुर्घटना यह हुई है कि यह सामाजिक तंत्र या तो इतना रूढ़ है, जो आधुनिकताजन्य ऐसी समस्याओं को समझने में पूरी तरह असफल है, या फिर पूरी तरह उस कानूनी प्रक्रिया पर निर्भर करता है जो बेहद मशीनी और निर्मम होती है और पुलिस और न्यायिक व्यवस्था की भ्रष्टाचारजन्य विसंगतियों के कारण प्राय: बेहद क्रूर हो जाती है.
यहां एक आधुनिकतावादी अतिवाद का उल्लेख करना भी जरूरी है. किसी भी समाज में चाहे वह रूढ़ हो या अतिआधुनिक, स्त्री-पुरुष संबंध जटिल सामाजिक प्रक्रियाओं से नियंत्रित होते हैं, जहां पुरुष की स्थिति से स्त्री की स्थितियां प्रभावित होती हैं, और स्त्री की स्थिति से पुरुष की स्थितियां. संतुलित और वास्तविक सामाजिक न्याय के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है. लेकिन जब कानून को अचानक औरत के पक्ष में झुका दिया जाए और यह मानकर चला जाए कि पुरुष हमेशा उत्पीड़क होता है, और स्त्री हमेशा उत्पीड़ित, तो इससे गंभीर समस्याएं खड़ी हो जाती हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि झूठी शिकायत दर्ज कराने से लेकर यौन अपराध और क्रूर हत्याओं तक जितने भी संभव अपराध हो सकते हैं, उनमें औरतों की संलिप्तता भी उसी तरह पाई जाती है, जिस तरह कि पुरुष की. यह तथ्य आये दिन उजागर होता रहता है.
तात्पर्य यह कि एक ऐसे वातावरण में जहां बाजारवादी संस्कृति के समूचे उपोत्पाद, स्त्री-पुरुषों को लगातार उत्तेजना की मन:स्थिति में बनाए रखते हों और उन्हें सामाजिक वर्जनाविहीन आचरण करने के लिए विवश करते रहते हों, तब इनसे उत्पन्न आपराधिक स्थितियों का समाधान सिर्फ कानूनी प्रक्रियाओं के सहारे नहीं खोजा जा सकता. इसके लिए ऐसी नियंत्रणकारी सामाजिक प्रक्रियाओं का विकास जरूरी है, जिनमें आधुनिक प्रवृत्तियों की समझ का समावेश हो और स्त्री-पुरुष संबंधों के प्रति संवेदनशील उदारता का भी. व्यक्ति के ऊपर वास्तविक नियंत्रण सामाजिक प्रक्रियाएं लगाती हैं, कानून तो मात्र खानापूर्ति करता है.
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