नेतृत्व पर जाति थोपने के मायने
कुछ सिद्धांत ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत दूर तक खींचना उनकी भावना के प्रतिकूल चला जाता है.
राजकिशोर |
भाजपा के नेतृत्व द्वारा की गई यह घोषणा कि बिहार में उसकी सरकार बनी तो मुख्यमंत्री अगड़ी जाति का नहीं, बल्कि पिछड़ी जाति का होगा, कुछ ऐसी ही है. यह दुश्मन के हथियार से ही दुश्मन को मात देने की घटिया कोशिश है. इससे साबित होता है कि अवसरवाद के रास्ते पर हमारी पार्टियां कितनी दूर तक जा सकती हैं. भाजपा को सवर्ण हिंदुओं का प्रतिनिधि दल इसलिए माना जाता है कि उसके सामाजिक दशर्न में उदारता तथा प्रगतिशीलता के लिए कोई जगह नहीं है. वह जातिवाद का समर्थन करती है और ऊंची जातियों के स्वार्थों की रक्षक है. यही कारण है कि जिन जातियों को सामाजिक न्याय की अत्यंत आवश्यकता है, उन्हें भाजपा में कोई आकषर्ण दिखाई नहीं देता. दलित जातियां भी उससे दूर ही रहती हैं.
यह भाजपा भी जानती है, इसलिए उसे लगता है कि इस पिछड़े हुए राज्य में विकासवाद एक आकर्षक नारा हो सकता है. पर जीत के लिए वह पर्याप्त नहीं है. बिहार जातिवाद का गढ़ है. वहां सबसे पहले किसी व्यक्ति की जाति पूछी जाती है. लेकिन बिहार उन शक्तियों का भी गढ़ है जिन्हें सामाजिक न्याय की शक्तियां कहा जाता है. केवल आर्थिक विकास ही विकास नहीं होता. सामाजिक विकास उससे ज्यादा जरूरी है ताकि नीची कही जाने वाली जातियां ऊंची मानी जाने वाली जातियों के दमन और शोषण से बाहर आ कर खुली हवा में सांस ले सकें. कोई भी अन्य आकर्षण सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को कमजोर नहीं कर सकता. इसीलिए भाजपा ने तय किया होगा कि बिहार में उसका मुख्यमंत्री कोई पिछड़ा नेता ही होगा.
दिलचस्प है कि भाजपा अभी तक यह दावा करती रही है कि उसका विधायक दल ही तय करेगा कि उसका नेता कौन होगा. जिस राज्य में उसका कोई लोकप्रिय नेता नहीं है, वहां यही नीति अपनाई जा सकती है. लेकिन मुख्यमंत्री कोई पिछड़ा ही होगा, इस घोषणा के द्वारा भाजपा ने चुनाव के बाद बनने वाले विधायक दल के विकल्पों को सीमित कर दिया है. अब वह किसी सवर्ण नेता को मुख्यमंत्री नहीं बना सकेगी. चुनाव जीतने की सामयिक रणनीति के स्तर पर यह नीति उपयोगी जान पड़ सकती है, पर इससे भाजपा के सवर्ण आधार को भारी ठेस पहुंच सकती है. यह भी हो सकता है कि चुनाव जीतने में उनकी दिलचस्पी ही कम हो जाए. हो यह भी सकता है कि भाजपा को बहुमत मिल जाए, तब मुख्यमंत्री के चयन के वक्त पार्टी में विद्रोह हो जाए.
जाति एक ऐतिहासिक सचाई है. लेकिन यह मान लेना कि किसी खास राज्य का विकास कोई पिछड़ा नेता ही कर सकता है, एक ऐसा अंधविश्वास है जिसने भारतीय राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है. पिछली एक चौथाई शताब्दी से बिहार पिछड़ा नेतृत्व के अंतर्गत रहा है, लेकिन इससे क्या उसकी उन्नति हुई है? लालू प्रसाद ने अपने लंबे शासन ने सुशासन और विकास, दोनों ही मोचरे पर कुछ नहीं किया. वे अपने पिछड़ा होने को लगातार दूहते रहे. पिछड़ावाद के नशे में वे भूल गए कि पिछड़ों को सुशासन और विकास की ज्यादा जरूरत है. बिहार का विकास होगा, तभी उस राज्य में रहने वाले पिछड़ों का विकास होगा. नीतीश कुमार ने लालूवाद की इस कमजोरी को समझा. उन्होंने अपने सामाजिक दृष्टिकोण का विस्तार भी किया. लेकिन वे कोई चमत्कारी नेता नहीं हैं. बिहार को ऐसा चमत्कारी नेता चाहिए जो विकास को झुनझुने की तरह न बजाए, बल्कि एक धमाका बना दे जिसकी गूंज समाज के हर तबके तक पहुंचे. पिछड़े राज्यों में विकास को बम की तरह फूटना चाहिए.
आरक्षण नीति का श्रेय किसी पिछड़े नेता तक नहीं पहुंचता. इसके श्रेय के हकदार राममनोहर लोहिया थे, जो इस तरह देखा जाए तो बनिया थे, जो एक सवर्ण जाति है. मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का काम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया, जो राजपूत थे. अत: यह नहीं कहा जा सकता कि पिछड़ा होना ही प्रगतिशील होना है, कोई अकाट्य तर्क है. इसलिए नेतृत्व को जाति के स्तर पर परिभाषित कर देने में कोई बुद्धिमत्ता दिखाई नहीं पड़ती. ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि कोई अगड़ा किसी पिछड़े की तुलना में पिछड़ों का ज्यादा हितैषी हो? कम से कम संभावना के रूप में तो इस विचार को बनाए रखना चाहिए.
सामाजिक न्याय का मतलब सामाजिक विभाजन नहीं है. सभी सवर्ण बदमाश हैं और सभी पिछड़े तथा दलित मानवतावाद के अवतार हैं, इस सरलीकरण के आधार पर कोई भी समाज आगे नहीं जा सकता. बेशक संख्या बल के कारण पिछड़ों की अपनी ताकत है, लेकिन वे सवर्णो के साथ मित्रता का संबंध बनाएंगे, तभी सामाजिक विद्वेष कम हो सकता है और सद्भाव बढ़ सकता है. यह इसलिए भी जरूरी है कि जातिगत विषमता को छोड़ दिया जाए तो पिछड़ों और अगड़ों की जरूरतें एक जैसी ही हैं. नौकरी दोनों को चाहिए और दोनों चाहते हैं कि महंगाई पर काबू पाया जाए. लेकिन भाजपा का मानना है कि बिहार का विकास तो कोई पिछड़ा मुख्यमंत्री ही कर सकता है. मानो विकास कोई जाति-निरपेक्ष प्रक्रिया न हो.
दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो भाजपा का यह निर्णय पिछड़ावाद की वैचारिक जीत भी है. स्पष्ट है कि एक सवर्ण-बहुल दल को पिछड़ों की राजनीतिक सत्ता को स्वीकार करना पड़ा है. संदेश यह है कि अगर आप सवर्ण हैं तो आप बिहार का विकास करने में सक्षम नहीं हैं. वैसे भी अगड़ों ने बहुत दिनों तक शासन किया है. अब अगर कुछ दिन तक पिछड़े शासन करें, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है.
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