अंतरिक्ष में लंबी छलांग

Last Updated 03 Sep 2015 12:57:23 AM IST

लगभग 20 साल की कड़ी मेहनत और कई असफल अभियानों के बाद आखिरकार भारत क्रायोजेनिक तकनीक में आत्मनिर्भर हो गया है.


अंतरिक्ष में लंबी छलांग

पिछले दिनों इसरो ने देश में निर्मिंत क्रायोजेनिक इंजन के जरिये रॉकेट जीएसएलवी डी-6 का सफल प्रक्षेपण कर अंतरिक्ष के क्षेत्र में लंबी छलांग लगाकर नया इतिहास रच दिया. आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित 49.1 मीटर लंबा यह रॉकेट 2117 किलोग्राम वजनी अत्याधुनिक और सबसे बड़े संचार उपग्रह जीसैट-6 को उसकी वांछित कक्षा में स्थापित करने में कामयाब रहा. 

इसके साथ ही भारत विश्व का ऐसा छठा देश बन गया, जिसके पास अपना देसी क्रायोजेनिक इंजन है. अमेरिका, रूस, जापान, चीन और फ्रांस के पास पहले से ही यह तकनीक है. अब भारत को अपने भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा, बल्कि इसरो अब दूसरे देशों के भारी उपग्रहों का प्रक्षेपण कर विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकेगा.
पिछली नाकामियों के बाद देसी क्रायोजेनिक इंजन के साथ जीएसएलवी डी-6  रॉकेट के सफल प्रक्षेपण से भारतीय वैज्ञानिकों में खुशी की लहर दौड़ गई. प्रक्षेपण में सफलता क्रायोजेनिक तकनीक में महारत हासिल करने की गारंटी भी है. यह जीएसएलवी के वाणिज्यिक उड़ानों के लिए तैयार होने का उद्घोष भी है और भारी संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण में देश को आत्मनिर्भर बना देगा.
जीसैट-6 भारत का सबसे बड़ा अत्याधुनिक संचार उपग्रह है. जीसैट-6 का वजन 2117 किलोग्राम है जिसमें प्रोपेलेटों का वजन 1132 किलोग्राम और उपग्रह का शुद्ध भार 985 किलोग्राम है. यह सैटेलाइट अपने साथ छह मीटर चौड़ा एक एंटिना लेकर गया है, जिसका मकसद छोटे हैंडसेट के जरिये डाटा, वीडियो या आवाज को एक जगह से दूसरी जगह भेजना है. इसका इस्तेमाल डिफेंस यानी सामरिक सेक्टर में होगा ताकि दूर-दराज के इलाके में भी छोटे हैंडसेट के जरिये संपर्क साधा जा सके. जीसैट-6 एस बैंड और सी बैंड के माध्यम से संचार मुहैया कराएगा. इस उपग्रह की जीवन अवधि नौ वर्ष है.

जीसैट-6 इसरो का बनाया 25वां भू-स्थैतिक संचार उपग्रह है जबकि जीसैट श्रृंखला का यह 12वां उपग्रह है. इसका सामरिक उपयोग करने वाले इसके सी बैंड में राष्ट्रीय बीम और एस बैंड में पांच स्पॉट बीमों जरिए संचार सुविधा ले सकेंगे. इसका एंटिना इसरो द्वारा बनाया गया अब तक का सबसे बड़ा एंटिना है.

वाकई में यह एक बड़ी कामयाबी है क्योंकि इस मिशन के लिए जैसे मानक तय किए गए थे, उस पर सौ फीसद खरा उतरते हुए भारतीय क्रायोजेनिक इंजन ने जीसैट-6 को सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया. अभी तक भारत दूसरे देशों की मदद से अपने 3.5 टन के संचार उपग्रह के प्रक्षेपण के लिए 500 करोड़ रुपए की फीस चुकाया करता था. जबकि जीएसएलवी यह काम लगभग 200 करोड़ में ही कर देगा. क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने में बीस वर्षो की मेहनत रंग लाई है. भारत के लिए यह ऐतिहासिक सफलता है. 2001 से ही देसी क्रायोजेनिक इंजन के माध्यम से जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए एक गंभीर चुनौती बना हुआ था. जीएसएलवी के कई परीक्षणों में हमें असफलता मिल चुकी थी. इसलिए यह कामयाबी खास है.

असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला  द्रव्य ईधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं. इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है. इस इंजन में हाइड्रोजन और ईधन क्रमश ईधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं. ठोस ईधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं. विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है.

क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है. अत: ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है. क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टर्बाइनों और ईधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है. फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्र-धातु विकसित कर ली है.

अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है. इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं. इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता. क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप जो ईधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्र-धातु से बनाया जाता है. द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा-सी भी गलती होने पर कई करोड़ रु पए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है. इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना और पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है.

जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है, जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होती है. ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं. इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है. रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं. इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है. दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं, इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं. जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो-तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है. यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है.

पिछले दिनों पांच ब्रिटिश उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण के साथ ही भारत अब तक 19 देशों के 45 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेज चुका है और भविष्य में नासा के कुछ उपग्रह भी प्रक्षेपित करने वाला है. यह भारत की अंतरिक्ष बाजार में बढ़ती हुई धमक का स्पष्ट संकेत है, क्योंकि इतने कम बजट में भी इसरो बेहतरीन प्रदर्शन कर रहा है. भारत इस तरह के व्यावसायिक प्रक्षेपण करने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया है.

वास्तव में विदेशी उपग्रहों का यह सफल प्रक्षेपण ‘भारत की अंतरिक्ष क्षमता की वैिक अभिपुष्टि’ है. वास्तव में यह सफलता कई मायनों में बहुत खास है, क्योंकि एक समय था जब भारत अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए दूसरे देशों पर निर्भर था और आज भारत विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा अर्जित कर रहा है. इससे भारत को वाणिज्यिक फायदा हो रहा है. इसरो की कम प्रक्षेपण लागत की वजह से दूसरे देश भारत की तरफ लगातार आकर्षित हो रहे हैं. इसरो द्वारा 45 विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से देश के पास काफी विदेशी मुद्रा आई है. इसके साथ ही अरबों डॉलर के अंतरिक्ष बाजार में भारत एक महत्वपूर्ण देश बनकर उभरा है. फिलहाल इसरो के कामर्शियल विंग का टर्नओवर 13 अरब रु पए हो गया है. चांद और मंगल अभियान सहित इसरो अपने 100 से ज्यादा अंतरिक्ष अभियान पूरे करके पहले ही इतिहास रच चुका है.

शशांक द्विवेदी
लेखक


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