राक्षसी कुंठा से बचाइए मासूमों को

Last Updated 01 Sep 2015 02:08:02 AM IST

दिल्ली सरकार ने बाल यौन अत्याचार को लेकर जागरूकता पैदा करने हेतु हिन्दी पोस्टरों की एक श्रृंखला ऐसे समय जारी की है जब राष्ट्रीय राजधानी में ऐसे अत्याचारों में तेजी दिखाई दे रही है.


राक्षसी कुंठा से बचाइए मासूमों को

महिला व बाल कल्याण विभाग द्वारा जारी इन पोस्टरों में अच्छा स्पर्श, बुरा स्पर्श आदि को रेखांकित करते हुए बच्चों को समझाने की कोशिश की गयी है कि वह अपने को अनुचित व्यवहार से कैसे बचायें और खतरे की स्थिति में किससे सम्पर्क करें. स्वयं को सुरक्षित रखने के चतुर उपाय, तुम्हें हर समय सुरक्षित रहने का अधिकार है, आदि शीषर्कों से बने पोस्टर सरल भाषा में बच्चों को सचेत करते हैं. निश्चित तौर पर यह योजना बाल अधिकारों के लिए कार्यरत विशेषज्ञों की सलाहों के अनुरूप ही है जिसमें उनकी तरफ से यह बात रखी जाती है कि किस तरह बच्चों को अच्छे-बुरे स्पर्श के बारे में बताना जरूरी है. एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने तो इस मसले पर पहले से प्रचार सामग्री भी तैयार की है, जो अभिभावकों, शिक्षकों को स्पर्श से उपजती चुनौतियों से वाकिफ कराती है.

मगर ऐसे सुझावों की बहुत सीमित उपयोगिता दिखती है. इसमें दो तरह की दिक्कतें हैं- एक व्यावहारिक दिक्कत, कि ऐसे घटनाओं में ढाई से तीन साल के जो बच्चे अत्याचार का शिकार हुए हैं, उन्हें कैसे शिक्षित किया जाए और दूसरा, इस पर अत्यधिक जोर कहीं पीड़ित को ही उसके अत्याचार के लिए जिम्मेदार मानने तक पहुंच जाता है. सोचने का मसला यह है कि स्पर्श के नियम सिखाने तक इस मामले को न्यूनीकृत या रिड्यूस करके कहीं न कहीं हम आत्मीय कहे गए सम्बन्धों में भी- जो सत्ता सम्बन्ध व्याप्त होते हैं, की गंभीरता व व्यापकता की अनदेखी तो नहीं कर रहे होते हैं.

इतना ही नहीं, ऐसे कदम जिनका दर्शनीय मूल्य ज्यादा होता है, वह शेष समाज की उस विराट असफलता पर परदा डाल देते हैं जो बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के सुविचार व जमीनी यथार्थ के गहरे अन्तराल को सामने लाता है. विडम्बना यह कि इस मामले में न विशेष अदालतें मौजूद हैं, न बच्चों की कौन्सलिंग के इन्तजाम हैं और न वह सुरक्षित वातावरण जिसमें वह पल बढ़ सकें. इसलिए समाज की तरफ से ही इन्तजाम होते हैं.

मिसाल के तौर पर एक तरफ जहां पोस्टरों के जरिए जागरूकता फैलाने की बात हो रही है, वहीं दूसरी तरफ खुद राजधानी में प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल आफेन्सेस एक्ट के तहत गठित विशेष अदालत समाप्त किए जाने को विरुद्ध समाजसेवियों को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है. पिछले दिनों दिल्ली की उच्च अदालत द्वारा प्रशासन को दिया गया निर्देश इसी को ध्वनित करता है. अदालत ने पूछा है कि प्रशासन स्पष्ट करे कि उसने प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल आफेन्सेस एक्ट के तहत गठित विशेष अदालत को क्यों समाप्त किया! मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी और न्यायमूर्ति जयंतनाथ की पीठ ने सम्बधित अधिकारियों को इस सन्दर्भ में शपथपत्र दायर करने को कह नयी तारीख मुकर्रर की.

अदालती आदेश गौतम बंसल नाम के वकील द्वारा दायर जनहितयाचिका के सन्दर्भ में आया था जिसमें उन्होंने उच्च अदालत के ही 16 मई के आदेश को चुनौती दी थी जिसमें साकेत जिलान्तर्गत बनायी गयी पोस्को अदालत को समाप्त किया गया था. याचिकाकर्ता का कहना था कि यह आदेश न केवल गैरकानूनी और असंवैधानिक है बल्कि उसी अदालत के एक पहले के आदेश के खिलाफ जाता है जिसमें उपरोक्त अधिनियम के तहत बच्चों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा के मद्देनजर विशेष अदालत बनाने का निर्देश दिया गया था. ज्यादा दिन नहीं हुए जब सूचना अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी में खुलासा हुआ था कि ऐसी गठित विशेष अदालतों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन/नशीली दवाओं/सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम आदि के तहत आनेवाले मामलों को भी डाला गया है.

वैसे प्रस्तुत समस्या की विकरालता जाननी हो तो चन्द आंकड़ों पर गौर किया जा सकता है. विगत दो सालों में औसतन आठ ऐसी घटनाएं रोज रेकार्ड की गयीं. नवम्बर 2012 से ऐसी 6,816 घटनाओं को लेकर पुलिस में मामले दर्ज किए गए. दोषसिद्धि की दर भी कम चिन्तनीय नहीं है. 6,816 घटनाओं में से महज 166 मामलों में आरोपियों को दंडित किया जा सका और 389 लोग बेदाग घाोषित कर दिए गए. ह्यूमन राइट्स वाच की तरफ से जारी 82 पेज की रिपोर्ट ब्रेकिंग द साइलेन्स: चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज इन इंडिया पर भी गौर होना चाहिए. रिपोर्ट तैयार करने के लिए परिमाणात्मक विश्लेषण के बजाय केस स्टडी का सहारा लिया गया ताकि बाल यौन अत्याचार मामले में सरकारी प्रणालियों की पड़ताल की जा सके.

इसके लिए ह्यूमन राइटस वाच ने पीड़ितों, उनके माता-पिता, रिश्तेदारों या बाल सुरक्षा अधिकार के लिए सक्रिय अधिकारियों आदि सौ से अधिक साक्षात्कार लिए, जिन्होंने ऐसी घटनाओं में सीधे हस्तक्षेप किया. राज्यसभा सदस्य व टेक्नोलोजी उद्यमी राजीव चंद्रशेखर ने एक आलेख में बंगलुरू के स्कूलों में बाल यौन अत्याचार की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सामने रखे प्रश्नों को लेकर अनुभव साझा किये. उनका कहना था कि इन प्रश्नों को लेकर सरकारी प्रतिक्रिया बच्चों को सुरक्षा प्रदान करने में हमारी क्षमता या इच्छाशक्ति की कमी को दिखाती है. उदाहरण के लिए प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल आफेन्सेस एक्ट 2012 मौजूदा रूप में स्कूल परिसर में बच्चों पर हुए यौन अत्याचार के मामले में स्कूल प्रबंधन को कहीं से भी जिम्मेदार नहीं ठहराता जो एक तरह से इस कानून की गंभीर कमी है. मगर इसमें संशोधन के बारे में सरकार गंभीर नहीं है.

चंद्रशेखर के मुताबिक महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के पास भारत में अनाथों की संख्या व स्थिति तथा अनाथालयों के कामकाज को लेकर कोई आंकड़े नहीं है जबकि एक अनौपचारिक अध्ययन के मुताबिक भारत में लगभग 2 करोड़ बच्चे अनाथ हैं और अनाथालय वे जगहे हैं जहां बच्चों के साथ भयानक किस्म का अत्याचार होता है. इतना ही नहीं, प्रस्तुत मंत्रालय ने महिला एवं बाल हेल्पलाइंस- जिनको शुरू हुए बीस साल होने को है- को लेकर कोई समीक्षा अब तक की नहीं है.

सुभाष गाताडे
लेखक


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