क्या इशारा करती है यह खलबली!

Last Updated 31 Aug 2015 05:34:34 AM IST

पाकिस्तान द्वारा नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी करना एक सतत प्रक्रिया बन गई है.


पाकिस्तान ने फिल किया सीजफायर का उल्लंघन किया.

इसमें तभी कमी आती है जब पाकिस्तान को दिखाना होता है कि वह शांति स्थापित करने के लिए बहुत ईमानदार है. लेकिन अक्सर उसमें तेजी ही आती रहती है. खासकर तब जब भारत आतंकवाद में पाकिस्तान के लिप्त होने के लिए उससे जवाब मांगने की कोशिश करता है. मोदी सरकार के बन जाने पर सीमा पार से इस हिंसक गतिविधि में विशेष तीव्रता आई क्योंकि पाकिस्तानी सैनिक अमले और कट्टरपंथी संगठनों को लगता है कि इस सरकार ने पहले की नीति में गुणात्मक बदलाव लाया है. बातचीत को आतंकवाद पर नियंत्रण जैसे मुद्दे पर निर्भर करने से पाकिस्तानी कट्टरपंथियों के लिए ही नहीं, सेना और राजनीतिक दलों के लिए भी परेशानी की स्थिति पैदा हो गई है. आतंकवादी घटनाओं के देर-सवेर सबूत तो मिल ही जाते हैं और उनसे आसानी से या बार-बार मुकरा नहीं जा सकता.

तीन ऐसे आतंकवादी भारत के अधिकार में आ गए जिनका हमारे देश में आतंकवादी घटनाओं के साथ साफ रिश्ता था. तीनों पाकिस्तान या पाक अधिकृत कश्मीर के नागरिक थे. लेकिन तीनों को अपनाने से पाकिस्तान ने इंकार कर दिया. कसाब को फांसी पर लटकाने के बाद तक पाकिस्तान यह दावा करता रहा है. नावेद के बारे में सरकार के पास ऐसे प्रमाण हैं कि बातचीत में उसकी पहचान छिपाना आसान नहीं होगा और न ही अभी कश्मीर में हाथ आए आतंकवादी को स्थानीय अलगाववादी कह कर पाकिस्तान अपना पल्ला झाड़ सकता है.

पहले पाकिस्तान यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने की कोशिश करता था कि जब कश्मीरी अलगाववादी ही भारत के विरुद्ध बगावत करते हैं तो हम इसमें क्या कर सकते हैं. यही तर्क पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने 1947 में कबाइली हमले के समय दिया था. लेकिन अब पाकिस्तान के लिए समस्या दोहरी हो गई है. एक तो सीमा पर चौकसी पहले से अधिक सख्त है और दूसरे कश्मीर में अब पाक आतंकवादी गुटों को स्थानीय रंगरूट नहीं मिलते. कश्मीरी युवक अब पाकिस्तान के लिए मरने को तैयार नहीं. इसलिए पाकिस्तानी नागरिकों को ही झोकने के अतिरिक्त चारा नहीं हैं. इसमें खतरा यह है कि पूरी एहतियात के बावजूद जोखिम तो रहता ही है. सब घुसपैठिए  सुरक्षित सीमा पार कर नगरों की भीड़ में गायब हो जाएंगे या सब के सब मारे जाएंगे, इस बात का प्रबंध करने के बाद भी कुछ के पार करते समय और कुछ के पार करने के बाद पकड़े जाने की संभावना बनी ही रहती  है. पकड़े गए आतंकी सुरक्षा एजेंसियों के लिए जानकारियों की खान होते हैं. यह भी संभव है कि वे अपने पूरे आतंकवादी तंत्र और भारत के अंदर उनके बिछाए जाल की भी जानकर दे पाएं. हालांकि यह कठिन है क्योंकि इस बात की एहतियात बरती जाती है कि जिन्हें आतंकी घटनाएं करने के लिए भेजा जाए उनका शैक्षणिक और बौद्धिक स्तर बहुत कम हो और उन्हें मजहबी जुनून के अलावा किसी बात की जानकारी न हो. पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादियों में से शायद ही कोई उच्च माध्यमिक स्तर तक पढ़ा हो.

 आतंकवादी घटनाएं भले ही रोज की बात हो लेकिन जमाते इस्लामी के विवाद कब्र से फिर निकल आएंगे, इसका किसी को अंदाज नहीं था. बरसों पहले जमाते इस्लामी कश्मीर के संस्थापक सादुद्दीन की मृत्यु पर कश्मीर जमात के नए अमीर या अध्यक्ष के तौर पर गुलाम मोहम्मद भट को चुना गया. भट ने आते ही घोषणा कर दी कि जमाते इस्लामी का आतंकवादी गुट हिज्बुल मुजाहिदीन के साथ कोई संबंध नहीं है.  इससे आतंकवादी गुट और जमात के कुछ उग्रवादी कार्यकताओं में काफी खलबली पैदा होना स्वाभाविक था. तब तक यही माना जाता था हिज्बुल, जमात की ही सशस्त्र शाखा है. गिलानी उस समय जमाते इस्लामी के राजनीतिक विभाग के मुखिया थे और सशस्त्र कार्रवाई के सबसे बड़े पैरोकार माने जाते थे. दरअसल देश के विभाजन के पश्चात भारतीय जमाते इस्लामी ने अपने आप को राजनीति से अलग कर लिया था. लेकिन कश्मीर की शाखा को अलग कर दिया था. इसलिए कश्मीर में जमात तभी से वैचारिक रूप में दो वर्गों में बंटी थी. नए अध्यक्ष के इस विवाद के बाद ही  गिलानी को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा. लेकिन कुछ समय पश्चात जब एक बार फिर भट को ही अध्यक्ष चुना गया तो गिलानी को जमाते इस्लामी से ही त्यागपत्र नहीं देना पड़ा अपितु वे हुर्रियत से भी अलग हो गए. उस समय वे हुर्रियत के सदस्य केवल जमात के ही कारण थे.

गिलानी ने एक नया गुट तहरीके हुर्रियत बना कर अपनी अलगाववादी पहचान जारी रखी. अब फिर से गुलाम मोहम्मद भट को तीसरी बार अध्यक्ष बना कर जमात ने एक मायने में गिलानी को जमात की नजर में अछूत ही बना दिया गया है.

कश्मीर में आतंकवादी गुटों के बीच रस्साकशी नई बात नहीं है. जिस आतंकवादी दौर को जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने आरंभ किया उस पर जल्द ही जमाते इस्लामी द्वारा प्रेरित गुट हावी हो गया था. उस समय जमात पर गिलानी जैसे लोगों का ही असर था जो हथियारबंद लड़ाई के हक में थे. लेकिन यह प्रतिस्पर्धा यहीं पर समाप्त नहीं हुई क्योंकि पाकिस्तान आतंकवादी गुटों में प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करता रहा है. हाल ही में जो आतंकवादी घुसपैठ पाकिस्तान से हुई उसका लक्ष्य भी घाटी में लश्करे तैयबा की शाखा को मजबूत करना ही था. पकड़े गए आतंकवादी से पूछताछ में पता चला है कि लश्कर के एक एरिया कमांडर ने अलग होकर अपना ही गुट बना लिया था जिससे लश्करे तैयबा का इस क्षेत्र में प्रभाव ही समाप्त हो गया था. उसी प्रभाव को स्थापित करने के लिए चार आतंकवादियों के गुट को सीमा पार करवाया गई. उनका काम नए सिरे से लश्कर की आतंकवादी शाखा स्थापित करना था. लेकिन सूचना मिलने पर सुरक्षा बलों ने तीन को मार गिराया और एक पकड़ा गया.

पाकिस्तान द्वारा अपनी आतंकवादी और सीमा पर गोलाबारी की गतिविधियों का एक कारण यह है कि वर्तमान भारत सरकार ने एक सोची-समझी नीति के तहत हुर्रियत और अलगाववादी गुटों को नजरअंदाज करना आरंभ कर दिया है. पाकिस्तान के साथ किसी भी बातचीत में तीसरे पक्ष को शामिल न करने के फैसले पर डटे रहते हुए सरकार उनके पाकिस्तानी प्रतिनिधि के साथ मिलने को बातचीत में अनावश्यक हस्तक्षेप मानती है. पाकिस्तान को यह नीति रास नहीं आती क्योंकि हुर्रियत और अलगाववादी गुट ही कश्मीर में उसकी  आंख-कान बने हुए हैं. अलगाववादी गुटों का राजनीतिक और आर्थिक आधार बाहरी स्रेतों पर ही निर्भर रहा है.


सीमापार के निर्देश संभवत: ऐसे ही राजनयिक चैनलों से ही प्राप्त होते हों. भारत सरकार का मानना है कि दो देशों के बीच बातचीत में किसी देश के आतंकी-अलगाववादी गुटों को शामिल करने से न केवल बातचीत का माहौल बिगड़ जाता है, अपितु बात का लक्ष्य भी ओझल हो जाता है.

जवाहरलाल कौल
लेखक


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