पूर्ण साक्षरता की मंजिल अभी दूर

Last Updated 31 Aug 2015 05:16:46 AM IST

भारत में तमाम प्रयासों के बावजूद साक्षरता के मोर्चे पर हालात अच्छे नहीं कहे जा सकते.


पूर्ण साक्षरता की मंजिल अभी दूर.

आज भी देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग निरक्षर है. इस निरक्षर आबादी के लिए दो जून की रोटी जुटाना दूभर है. गौर से देखें तो चारों तरफ कितने ही तरह की समस्याए हैं, पर यदि उनकी जड़ में जाएं तो पाएंगे कि सब समस्याओं का मूल है अशिक्षा और निरक्षरता. प्रगति का पहला कदम उठता है साक्षरता के आने से. साक्षरता और प्रगति का घनिष्ठ संबंध है और इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. साक्षरता प्रगति की गति व शांति के लिए पहली जरूरत है क्योंकि साक्षरता मानवीय, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तंगी से निकलने में मदद करती है. उच्च साक्षरता दर से जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और लिंगभेद जैसी चुनौतियों से आसानी से निपटा जा सकता है.

यदि देश में साक्षरता बढ़ने की मौजूदा दर कायम रही तो पूर्ण साक्षरता पाने में अब भी 45 से 50 साल लग सकते हैं और तब हमें वर्ष 2060 तक इंतजार करना पड़ेगा. आज चीन में 97 फीसद पुरुष और 91 फीसद महिलाएं, श्रीलंका में 92 फीसद पुरुष और 89 फीसद महिलाएं साक्षर हैं, जबकि भारत में 15 साल से ऊपर आयुवर्ग में 65 फीसद पुरुषों व महिलाएं 51 फीसदी साक्षर हैं. तब कैसे पूरा डिजिटल इंडिया सपना पूरा होगा जब इतनी बड़ी आबादी ‘क ख ग’ लिखना भी नहीं जानती.

साक्षरता लक्ष्य पाने की दिशा में प्रयास हो रहे हैं. काफी कुछ किया जा रहा है. सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन और मिड डे मील योजना जैसे कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. लेकिन चिंता की बात यह है कि काम कागज पर अधिक और यथार्थ में कम हो रहा है. इससे साक्षरता के दीप की लौ बहुत कम रोशनी दे पा रही है. भारत के अलावा, अफ्रीका और दक्षिण एशिया में भी निरक्षरता व अशिक्षा काफी है और इसके पीछे गरीबी सबसे बड़ा कारण है. आज भी भारत में सरकारी और गैर सरकारी ‘भागीरथ’ प्रयासों के बावजूद दुनियाभर के छह में से एक व्यक्ति निरक्षर हैं.

जिस देश के लोग साक्षर न हों वहां प्रगति के दरवाजे आसानी से नहीं खुलते. इसीलिये हर देश की सरकार सबसे पहली वरीयता साक्षरता को देती है जिससे कि शिक्षा के लक्ष्य को हासिल किया जा सके. चीन से बेहतर उदाहरण शायद हमारे सामने नहीं हो सकता जहां भारी जनसंख्या के चलते लंबे समय तक साक्षरता व शिक्षा का संकट रहा और परिणामत: गरीबी ने वहां डेरा डाले रखा. पर माओत्से तुंग के बाद वहां एक नई पीढ़ी का राज आया जिसके पास दृष्टि व नई सोच थी और इसी के चलते वहां साक्षरता की अलख जगी. इसके परिणाम एक दशक में ही आने लगे और आज मंडारिन जैसी विविधता भरी भाषा के बावजूद वहां साक्षरता व शिक्षा के नए आयाम रचे गए हैं. परिणाम भी सामने है. तमाम बाधाओं के बावजूद आज चीन विकास के मामले में दुनिया के विकसित देशों को बराबरी की टक्कर देने लगा है. 

चीन ही नहीं, दूसरे कुछ देशों ने भी साक्षरता को बढ़ाने के लिए विशेष प्रतिबद्धता दिखाई है. इन देशों में वेनेजुएला का नाम पहले पायदान पर है. ह्यूगो शावेज ने सत्ता में आते ही क्यूबा के दो लाख शिक्षकों को अपने देश में आमंत्रित कर अपने देशवासियों को शिक्षित करने का आगाज किया. इस कदम से वेनेजुएला में बदलाव आया और लोग तकनीक और कृषि के क्षेत्र में आगे बढ़ गए.

यदि पिछले दशकों पर निगाह डालें तो भारत में साक्षरता के हालात हमेशा ही बुरे रहे हैं. भारत में साक्षरता की दर वर्ष 2011 में 74.4 थी , जो वैश्विक साक्षरता दर से काफी कम थी. आज भी बावजूद तमाम प्रयासों के इसमें कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं आ पाया है. 1950 में लागू संविधान में 1965 तक पूर्ण और अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव रखा गया था. इस लक्ष्य को पाने के लिए संसद में 2002 में 86वां संशोधन अधिनियम पारित कर 6-14 वर्ष के बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया.  आरटीई यानी राइट टू एजुकेशन के आने फर्क तो पड़ा, पर 100 फीसद साक्षरता दर पाने के लिए अभी मंजिल बहुत दूर है.
 

घनश्याम बादल
लेखक


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