‘पिछड़ा’ साबित करने की होड़ के खतरे

Last Updated 30 Aug 2015 12:48:02 AM IST

पटेल आरक्षण की मांग को लेकर गुजरात में हुई हिंसक घटनाएं असहज करने वाली हैं.


‘पिछड़ा’ साबित करने की होड़ के खतरे

वैसे वहां हालात तेजी से सुधर रहे हैं किंतु यह चिंगारी कहीं शोला न बन जाए और इसी तरह की मांग अन्य राज्यों को भी अपने आगोश में न ले ले, यह चिंता जरूर सताने लगी है. यह आशंका यूं ही नहीं है. महाराष्ट्र में मराठा तथा राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और राजस्थान में ही गुर्जर पहले से आंदोलित हैं. आर्थिक रूप से संपन्न यह जातियां आज आरक्षण की मांग कर रही हैं, जबकि पहले वे इसके विरोध में खड़ी थीं. ऐसे में उनकी इस मांग के पीछे की सोच को समझना अहम हो गया है. क्या प्राकृतिक संसाधनों पर काबिज ये जातियां सरकारी नौकरियों में भी आरक्षण के सहारे अपना दबदबा चाहती हैं? क्या रोजगार के घटते अवसर उन्हें इस मांग के लिए विवश कर रहे हैं? क्या वे आरक्षण को अपनी समस्याओं के निदान की सहज-सुलभ राह मान चुकी हैं? क्या इससे नए किस्म का टकराव नहीं होगा? इस सवालों के जवाब तलाशने इसलिए बेहद जरूरी हैं क्योंकि नित खड़े हो रहे आरक्षण आंदोलनों की राह काफी फिसलन भरी है.

उदारीकरण के इस दौर में उम्मीद थी कि देश में पूंजी आने के साथ ही रोजगार के अवसर तेजी से बढ़ेंगे. किंतु आंकड़े गवाह हैं कि उच्च आर्थिक विकास दर वाले यूपीए के राज में भी रोजगारेके अपेक्षित अवसर नहीं बढ़े. उल्टे सरकारी और निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर घटे. इतना ही नहीं, बड़ी तादाद में लोगों की नौकरियां गई थीं. देश में वर्ष 2014 के आम चुनाव में अप्रत्याशित बदलाव के पीछे रोजगार के अवसर तलाशती युवाशक्ति की अकुलाहट को ही बड़ा कारण माना गया. सरकारी आंकड़ों की माने तो देश में लगभग दस करोड़ युवा रोजगार की तलाश में हैं. किंतु रोजगार के अपेक्षित अवसर नहीं हैं. यदि जरूरत के मुताबिक रोजगार के अवसर उपलब्ध होते तो आरक्षण की मांग उठती ही नहीं.

किंतु मौजूदा मशीनीकृत दौर में बड़े उद्योगों से अधिक रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं. सरकारी क्षेत्र में आरक्षण लागू होने के कारण मराठा, जाट और पटेल सरीखी जातियों को लगने लगा है कि आरक्षण के सहारे ही नौकरियां आसानी से पाई जा सकती हैं. ऐसी जातियां अपने बेरोजगार युवकों की बढ़ती तादादेके लिए आरक्षण को ही बड़ी वजह मान रही हैं. उन्हें लग रहा है कि आरक्षण के जरिए उनका हक मारा जा रहा है. इसीलिए अब उनमें शिक्षा और सरकारी नौकरियों पर काबिज होने की इच्छा है. उनका तर्क है कि आरक्षण के कारण ही उन्हें अच्छे स्कूलों और तकनीकी संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल पा रहा है. इसीलिए अपने लिए आरक्षण मांगने के साथ-साथ उसे खत्म करने की मांग भी हो रही है. अहमदाबाद की पटेल रैली में इस तरह के बैनरों की भरमार थी.

इस स्थिति के कारण सामाजिक टकराव की आशंका बढ़ती नजर आ रही है. इसी का एक संकेत यह है कि पटेल आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल आरक्षण के लिए आंदोलनरत अन्य जातियों को अपने साथ जोड़कर अन्य राज्यों में भी अपने समर्थकों का दायरा बढ़ाना चाहते हैं. इस आंदोलन के साथ ही महाराष्ट्र में मराठा और राजस्थान में जाट आरक्षण की मांग के दोबारा मुखर होने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है. वैसे इन आरक्षण आंदोलनों के समर्थकों का तर्क है कि उन्हें भी अपने समाज के लिए शिक्षा और नौकरियों में जगह ढूंढने का अधिकार है, इसलिए उनकी मांग में कोई बुराई नहीं है. किंतु मेरा विनम्र मत है कि जिस तरीके से यह कोशिश हो रही है वह भरोसेमंद नहीं है. इस तरह की कोशिश संवैधानिक और सामाजिक व्यवस्था में बेचैनी पैदा कर सकती है और देश की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में भूचाल आ सकता है. इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को इस आंदोलन के पीछे छिपे कारकों पर बारीक नजर रखनी होगी. साथ ही युवाशक्ति को उसकी योग्यता, क्षमता और रुझान के हिसाब से शिक्षा और रोजगार का अवसर उपलब्ध कराने की सार्थक कोशिश होनी चाहिए, अन्यथा यह ज्वलनशील सवाल इसी तरह के आंदोलनों के जरिए देश और समाज को बेचैन करता रहेगा.

आर्थिक रूप से संपन्न इन जातियों की अकुलाहट जायज हो सकती है किंतु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछड़ी जातियां जनसंख्या के जातिगत आंकड़े जारी होने का इंतजार कर रही हैं. इन जातियों के नेता लगातार इसकी मांग भी कर रहे हैं ताकि सरकारी नौकरियों और संसाधनों में नए सिरे से भागीदारी का सवाल उठाया जा सके और जातीय राजनीति की कुंद होती धार को नए तरीके से धारदार बनाया जा सके. ये नेता समाज की हर जाति और बिरादरी को उसकी आबादी के हिसाब से सरकारी सेवाओं व संस्थानों में भागीदारी का सवाल भी उठा रहे हैं. किंतु यह निजी क्षेत्र को मान्य होने से रहा. ऐसे में वे आरक्षण के जरिए सरकारी नौकरियों पर और मजबूत कब्जा चाहते हैं. फलत: आरक्षण का आकषर्ण कम होता नहीं दिखता. इससे यह भी स्पष्ट है कि उदारीकरण के इस दौर में सरकार ने प्रशासनिक व्यवस्था में वे अपेक्षित सुधार नहीं किए जिससे आरक्षण के प्रति अनावश्यक आकषर्ण कम होता. यही कारण है कि पिछड़ी जातियों में शामिल अति पिछड़े लगातार शिकायत करते हैं कि उनके वर्ग के संपन्न लोग आरक्षण की मलाई चट कर रहे हैं और उन तक उसका लाभ पहुंच ही नहीं पा रहा है. इसीलिए उनके सामाजिक और आर्थिक जीवनस्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है. ऐसे में सरकार को आरक्षित वगरे के संपन्न लोगों को एलपीजी सब्सिडी की तरह आरक्षण का लाभ त्यागने के लिए प्रेरित करने की पहल करनी चाहिए. किंतु यह बड़ा ही कठिन है.

हकीकत यह है कि ये संपन्न जातियां आरक्षण के जरिए अपनी सुरक्षा ढूंढ रही हैं. इसीलिए पटेल अहमदाबाद की सड़कों पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं. एक तरफ गुर्जर, दूसरी तरफ राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के जाट आरक्षण के लिए आंदोलित हैं, तो ठीक ऐसी ही स्थिति महाराष्ट्र की है जहां मराठा आरक्षण की मांग कर रहे हैं. इससे महसूस होता है कि हमारा सामाजिक संतुलन कहीं न कहीं झटके खा रहा है. अन्यथा क्या वजह है कि कभी आरक्षण के विरोध में परचम लहराने वाला पटेल समुदाय आरक्षण के लिए व्याकुल हो उठा है? इन अगड़ी जातियों के खुद को पिछड़ा साबित करने के उतावलेपन के पीछे निहित कारणों का तार्किक निदान खोजना होगा. क्योंकि गुजरात में भड़का यह आंदोलन दूसरे राज्यों को भी अपनी चपेट में ले सकता है. इसका सीधा असर देश की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है. यह बात हमारे सुनहरे और सुखद कल के सपनों के लिए नुकसानदायक हो सकती है. ऐसे में बढ़ते दबाव के कारण यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण पर लगाई गई पचास फीसद की हदबंदी यदि टूटेगी तो नए किस्म का असंतोष पैदा होने से रोका नहीं जा सकेगा.
ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा दैनिक


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