क्या है आरक्षण आंदोलनों के पीछे!

Last Updated 30 Aug 2015 12:31:20 AM IST

इस बार आरक्षण की आग उस गुजरात में फूटी जिसे लंबे समय से शांत माना जा रहा था और ऐसी जाति के बीच फूटी जो आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक पैमानों पर कहीं से भी कमजोर प्रतीत नहीं होती.


क्या है आरक्षण आंदोलनों के पीछे!

पटेल समुदाय के लोग किसी भी तरह के सामाजिक अन्याय या उत्पीड़न के शिकार नहीं हैं. वे राजनीतिक तौर पर पर्याप्त सक्षम और सक्रिय हैं और गुजरात को वर्तमान मुख्यमंत्री सहित पहले भी कई पटेल मुख्यमंत्री दे चुके हैं. राज्य की आर्थिक गतिविधियों में भी इनका खासा हिस्सा है. आरक्षण की तार्किकता को समझने वाले लोगों का कहना है कि गुजरात के पटेल या पाटीदारों को आरक्षण का विशेषाधिकार नहीं दिया जा सकता लेकिन पटेल जाति अपने लिए आरक्षण मांग रही है. कुछ साल पहले तक इस या ऐसी अन्य जातियों को आरक्षण लेना जातीय अपमान प्रतीत होता था लेकिन अब वह भावना तिरोहित हो गई है.

पटेलों की आरक्षण की मांग जब शुरू-शुरू में उठी थी तो इसे बाकी अन्य जातियों के बीच से यदाकदा उठने वाली ऐसी ही मांगों की तर्ज पर उपेक्षणीय मांग मानकर उपेक्षित कर दिया गया था. तब शायद लोगों को कल्पना नहीं रही होगी कि यह मांग एक नौसिखिए लड़के के नेतृत्व में इतनी ताकतवर और व्यापक हो जाएगी कि समूचे गुजरात को अपनी चपेट में ले लेगी, पुलिस को बाकायदा हरकत में आना पड़ेगा और कुछ लोग हिंसा-प्रतिहिंसा की भेंट चढ़ जाएंगे. गुजरात के ताजा हालात बता रहे हैं कि पटेलों की आरक्षण की मांग कुछ न कुछ गुल अवश्य खिलाएगी और सत्ता समीकरणों में नए बदलाव की नींव रखेगी, भले ही पटेलों को आरक्षण मिले या न मिले.

यह वह दौर है जिसमें आरक्षण की मांग गुर्जर, जाट, पटेल, मराठा आदि जैसी जातियां कर रही हैं. ये वे जातियां हैं जो कहीं से भी सामाजिक उपेक्षा की शिकार नहीं हैं और ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जहां अन्य जातियों के लोग इनकी जातीय दबंगई के शिकार हुए हैं. हरियाणा की घटनाएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. इसी तरह इन जातियों की राजनीतिक-आर्थिक भागीदारी भी किसी भी अन्य सक्षम, संपन्न जाति की तुलना में कम नहीं है. इसके बावजूद ये जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं और अगर इनकी आरक्षण की मांग सत्ता की चौखट पर दस्तक देने में सक्षम हैं, जैसा कि गुजरात में हुआ है, तो इसका कारण है कि ये जातियां न केवल राजनीतिक तौर पर मजबूत हैं बल्कि सामाजिक तौर पर भी सुसंगठित हैं. अपनी सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति के बल पर ही ये अपने लिए आरक्षण की मांग को इतने प्रभावी ढंग से उठा पा रही हैं कि कोई भी राज्य या केंद्र सरकार इनकी सहज उपेक्षा नहीं कर पाती.

यह समूचा परिदृश्य आरक्षण की मूल भावना के कितना विपरीत है, इसे बंद आंखों से भी देखा जा सकता है. आरक्षण की व्यवस्था उन जाति, समूहों के लिए की गई थी जो सामाजिक तौर पर भी कमजोर थे और आर्थिक तौर पर भी तथा उनके पास तात्कालिक व्यवस्था में स्वयं की शक्ति और संसाधनों के बूते आगे बढ़ने के या समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के संसाधन नहीं थे. लेकिन यहां वे लोग आरक्षण की मांग कर रहे हैं जो हर तरह से समाज, अर्थ और सत्ता की मुख्यधारा में हैं. वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, इसे समझना ज्यादा कठिन नहीं है. बस, पल भर ठहरकर इस पर विचार कर लीजिए कि समूचे देश में जो सत्ता संघर्ष चल रहा है वह वस्तुत: किन ‘महान लक्ष्यों’ और ‘आदर्शों’ की पूर्ति के लिए चल रहा है और देश में जिन्होंने अपना आर्थिक साम्राज्य स्थापित किया है उनके बीच की प्रतिद्वंद्विता किन के हक में किन कार्यक्रमों का क्रियान्वयन कर रही है? चाहे क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें हों या केंद्रीय, इनके बीच दूसरे को सत्ता से अपदस्थ करने और स्वयं को सत्ता में स्थापित करने का संघर्ष व्यावहारिक स्तर पर सिर्फ नंगा सत्ता संघर्ष है जिसका सामान्य आदमी से या वास्तविक वंचितों, शोषितों या उत्पीड़ितों के वास्तविक कल्याण से कोई लेना-देना नहीं. वही स्थिति आर्थिक सत्ता के संघर्ष की है.

जिन लोगों के हाथ में देश की आर्थिक सत्ता है उनकी रुचि किसी भी तरह से अपनी सत्ता को विस्तार देने में है. यह विस्तार जरूरतमंदों तक पहुंचता है या नहीं, यह उनकी चिंता का विषय नहीं है. राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने का खेल राजनीतिक ताकतें आर्थिक ताकतों से मिलकर खेल रही हैं, उसी तरह से आर्थिक सत्ता पर काबिज होने का खेल आर्थिक ताकतें राजनीतिक ताकतों के साथ मिलकर खेल रही हैं. इस समूचे खेल में आदर्शवाद सिर्फ एक ढोंग या पाखंड है, व्यवहार में वह कहीं मौजूद नहीं है.

सक्षम, समर्थ और संपन्न जातियों द्वारा अपने तईं आरक्षण की मांग इसी सत्ताई खेल का एक हिस्सा है.
किसी भी दूसरे व्यक्ति, समूह या जाति के सापेक्ष व्यक्तियों और समूहों का सत्ता संघर्ष क्षुद्र हितों से प्रेरित होता है, न कि संपूर्ण मानव जाति के हितों से. इस समय समूचे देश में आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए जो राजनीति खेली जा रही है उसमें केवल ताकतवर समूह ही भागीदारी कर पा रहे हैं, फिर वे चाहे जाति के नाम पर करें या धर्म के नाम पर करें या किसी अन्य पहचान के नाम पर करें. पटेल, जाट या मराठा जैसी जातियों का आरक्षण संघर्ष अपनी सत्ता के विस्तार का संघर्ष है और आर्थिक संसाधनों पर कब्जे का जो आदर्शविहीन खेल चल रहा है उस खेल में भागीदारी का संघर्ष है.

इस संघर्ष में पिछड़ेपन, अन्याय या अधिकार आदि से संबंधित जो मुहावरे प्रयुक्त होते हैं वे वस्तुत: नंगे सत्ता संघर्ष को ढकने के मुखौटे मात्र होते हैं. इसलिए ऐसे समूहों की आरक्षण की मांगों में किसी व्यापक सामाजिक हित या अन्याय के निराकरण की संभावना तलाशना निहायत ही फालतू बात है. मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य में, जिसमें  लोगों की जरूरतें और महत्वाकांक्षाएं तो लगातार बढ़ रही हैं लेकिन व्यक्ति के विकास और रोजगार के अवसर बढ़ती आबादी के अनुपात में सिमट रहे हैं, इस तरह के सत्ता संघर्ष और तीव्र होंगे. निकट भविष्य में इनके रुकने-थमने की कोई संभावना नहीं. जिन्हें वास्तव में आरक्षण की जरूरत है, ऐसे व्यक्तियों और समूहों की आवाज इस सत्ता संघर्ष में कहीं नहीं होगी.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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