आरक्षण पर पुनर्विचार की जरूरत

Last Updated 30 Aug 2015 12:21:27 AM IST

पहले जाट, गुर्जर और अब पटेल. यदि ये आरक्षण पाने में सफल हो गए तो कुछ और समुदाय इस पंक्ति में आ जुड़ेंगे.


राजकिशोर

सरकारी नौकरी का आकषर्ण इतना बड़ा है कि कोई भी समुदाय, जो अपने को पिछड़ा बताते नहीं शरमाता, उसके लिए सड़क पर उतरने का मोह छोड़ नहीं पाएगा. जो परिस्थिति है, उसे कैसे टाला जा सकता है? परिस्थिति यह है कि अधिक से अधिक जातियां आरक्षण के दायरे में आना चाहती हैं. कायदे से यह काम पिछड़ा आयोग का है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर इस आयोग का गठन हुआ है.

पिछड़ा आयोग का काम है विभिन्न समूहों के उत्थान-पतन पर निगाह रखना और समय-समय पर अपेक्षित हो तो कुछ जातियों को आरक्षण सूची से हटाना और नई जातियों को शामिल करना. उच्चतम न्यायालय शायद इस गलतफहमी में था कि भारत की सरकारों में इतना नैतिक साहस है कि वे किसी भी जाति को आरक्षण सूची से बाहर निकाल सकें. हां, नई जातियों को शामिल करने का राजनीतिक फायदा जरूर है. लेकिन कायदे से इसके लिए पिछड़ा आयोग की सिफारिश चाहिए. पिछड़ा आयोग ने अपने को इतना पिछड़ा क्यों बना लिया है कि आरक्षण के किसी मुद्दे पर अपनी जबान खोलना ही नहीं चाहता?

जब पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने विचारार्थ आया, तब तक मंडल समर्थकों और मंडल विरोधियों के बीच झपट का एक दौर बीत चुका था. लेकिन समाज की धड़कन बढ़ रही थी. तर्क-वितर्क का चक्र समाप्त नहीं हुआ था. यह निश्चित था कि सर्वोच्च न्यायालय ने अगर आरक्षण के पूरे समर्थन में फैसला दे दिया होता, तब समाज में आग लग जाती. यह भी निश्चित था कि सर्वोच्च न्यायालय ने अगर आरक्षण के प्रस्ताव को निरस्त कर देता, तब भी समाज में आग लग जाती. यह अकारण नहीं था कि आरक्षण पर फैसला 3:2 के बहुमत से आया था. यानी एक और जज भी आरक्षण के विरोध में चला जाता, तब मंडल कमीशन को लागू नहीं किया जा सकता था. बहुमतवाले जज इस विडंबना से अवगत थे, इसलिए उन्होंने मंडल को मान तो लिया, पर बेमन थे.

यह बेरुखी फैसले के साथ जुड़ी कई शतरे में प्रगट होती है. मसलन 50 प्रतिशत की सीमा. सवाल है कि 50 प्रतिशत ही क्यों, 60 प्रतिशत क्यों नहीं? अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में दिया गया था. यही फॉर्मूला पिछड़ी जातियों के केस में क्यों नहीं अपनाया जा सकता था? न्यायालय कह सकता था कि पिछड़ी जातियों की आबादी इतनी ज्यादा है कि 37.5 प्रतिशत से कम पर उनके साथ न्याय नहीं हो सकता. बच गए 40 प्रतिशत में 5 या 10 प्रतिशत गरीबों को, वे सवर्ण हों या मुसलमान या बौद्ध, दिया जा सकता था. सवर्ण भले ही इससे नाराज हो जाते, कुछ आंदोलन वगैरह भी करते, लेकिन वे बहुत दूर तक नहीं जा सकते थे.

यह 50 प्रतिशत की सीमा ही राजनीतिज्ञों की ढाल बनी हुई है. वे बार-बार कहते रहते हैं कि 50 प्रतिशत की सीमा सर्वोच्च न्यायालय ने तय कर दी- इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता. उल्लंघन न करें, पर सर्वोच्च न्यायालय में यह अपील तो कर ही सकते हैं कि आरक्षण की हमारी योजना में 27.5 की सीमा अनुपयुक्त है. सच तो यह है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा दस-बीस अन्य सांसदों को छोड़ कर न तो केंद्रीय मंत्रिमंडल और न ही सांसद इसे पसंद करते थे. इसीलिए मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करने के लिए विधेयक नहीं लाया गया- प्रशासनिक आदेश के द्वारा इसे लागू कर दिया गया.

आरक्षण को सीमित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर को छांटने की बात की. क्रीमी लेयर की शर्त इसलिए लगाई गई थी कि आरक्षण का लाभ सिर्फ  उन समुदायों को मिले, जो सामूहिक रूप से पिछड़े हुए हैं. इसीलिए किसी दलित आईएएस को जिला मजिस्ट्रेट और ओबीसी को दारोगा देख कर जो असहज हो जाते हैं और पूछते हैं कि इनके लड़के-लड़कियों को आरक्षण का लाभ क्यों मिलना चाहिए, उत्तर यह है कि इन जातियों से कुछेक व्यक्ति आगे बढ़े हैं, न कि पूरा समुदाय आगे बढ़ा है. हां, इन परिवारों के लड़के-लड़कियों को आरक्षण देने से बचा जा सकता है, क्योंकि अब वे क्रीमी लेयर में आ चुके हैं. पता नहीं क्यों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों में क्रीमी लेयर की शर्त नहीं लगाई गई. लगाना चाहिए था, न्याय तभी होता. लेकिन राजनीतिज्ञों ने क्रीमी लेयर की शर्त का ईमानदारी से पालन नहीं किया है. वे हर साल क्रीमी लेयर की परिभाषा बदल देते हैं ताकि किसी जाति को आरक्षण के दायरे से बाहर न किया जा सके.

तो क्रीमी लेयर फेल, पिछड़ा वर्ग आयोग भी फेल, पर 50 प्रतिशत अडिग. 50 की संख्या में ऐसी क्या पवित्रता है कि उसकी सीमा रेखा को लांघा नहीं जा सकता. चूंकि पिछड़ी जातियों के लिए कोई सोची-समझी नीति नहीं है, उसके पीछे कोई दीर्घकालीन योजना नहीं है, यहां तक कि भारत की जनता से प्रेम भी नहीं है, इसीलिए आरक्षण पर नए-नए विवाद खड़े हो जाते हैं. इन विवादों से तंग आ कर कुछ लोग कहने लगते हैं कि आरक्षण को ही खत्म कर दो यानी बांस को ही काट दो ताकि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. अब आरक्षण को खत्म करना असंभव है. देश भर में असंतोष का ज्वालामुखी फटने लगेगा. हां, यह जरूर हो सकता है कि सरकार अपनी एक आरक्षण नीति बनाए और उस पर टिकी रहे. जाहिर है, इस पुनर्विचार में आरक्षण के सभी पहलू शामिल होंगे. जैसे क्रीमी लेयर को जाति नहीं, व्यक्ति के स्तर पर परिभाषित करना.



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