असहमति की अपमानजनक अभिव्यक्ति
लोकतंत्र में विचार स्वातंत्र्य ही उच्चतर मूल्य है. विचार प्रकट करने में भाषा की भूमिका है और भाषा-वाणी में मधुमयता की.
हृदयनारायण दीक्षित, लेखक |
भारत में विचार अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य है. लेकिन दलतंत्र में मधुमयता का अभाव है. यहां आरोप-प्रत्यारोप मर्माहित करते हैं. व्यक्तिगत आरोपों से जनतंत्र को क्षति होती है. आरोपों-प्रत्यारोपों की मधुमय अभिव्यक्ति कठिन नहीं. अपमानजनक शब्दों से बचा जा सकता है. सम्मानजनक अभिव्यक्ति के माध्यम से असहमति प्रकट करना ही सही तरीका है. लेकिन दलतंत्र में परस्पर सम्मान का अभाव है.
आखिरकार इसका मूल कारण क्या है? क्या भारतीय भाषाएं सम्मानजनक असहमति प्रकट करने का उपकरण नहीं हैं? क्या अपमानजनक कथन से ही सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं? क्या चुनावी जीत के लिए अपमानजनक व्यक्तिगत आरोपों का कोई विकल्प नहीं है? दलतंत्र व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों को ही क्यों महत्व देता है? हम विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र हैं. तो भी वैचारिक असहमति के प्रकटीकरण में मधुमयता का अभाव क्यों है?
भारतीय परंपरा मधुमय है. वैदिक साहित्य में मधुमयता के बोध को मधुविद्या कहा गया है. छांदोग्य उपनिषद् में सविता-सूर्य को देवताओं का मधु कहा गया है- असौ आदित्यो देवमधु. अंतरिक्ष मधु का छत्ता है. सूर्य किरणों मधुकरों की पुत्र हैं. वैदिक पूर्वजों का व्यक्तित्व मधुमय है. उन्हें सूूर्य किरणों भी मधुमय प्रतीत होती हैं. इसी के भाष्य में शंकराचार्य बताते हैं- उस सूर्य रूप मधु की पूर्व दिशागत किरणों मधु नाड़ियां हैं. वे मधु उत्पन्न करती हैं. सूर्य का रूप तेजस् है, वह रस है. यह रस मधुमय है. पृथ्वी गंधमय है. जल के बिना जीना असंभव. सूर्य ही मधु रस के दाता-विधाता हैं. सूर्य की दक्षिण दिशा को आवृत्त करने वाली किरणों को यजुव्रेद की श्रुति बताते हैं.
इसी तरह पश्चिमी-रश्मियों को साम बताते हैं और साम कर्मो को पुष्प. फिर इतिहास-पुराण को भी मधुमय बताते- मधुकृत इतिहास पुराणं. फिर कहते हैं- ये ही रसों के रस हैं. वेद रस हैं. ये उनके भी रस है. ये अमृतों का अमृत हैं. ‘अमृतों का अमृत’ प्यारी मधुमय अभिव्यक्ति है. अमृत कोई द्रव्य पदार्थ नहीं है कि पिए और अमर हो गए. अमृत संपूर्णता के साथ सदा अस्तित्वमान रहने की आंतरिक अनुभूति है. वेदों का रस उन्हीं अमृतों का अमृत हैं.
वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को मधुमयता का मूलतत्व समझाया- इयं पृथ्वी सव्रेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु- यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु. इसी प्रकार ‘यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु हैं.’ फिर कहते हैं, यह वायु समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत वायु के मधु हैं. फिर आदित्य और दिशा चंद्र, विद्युत मेघ और आकाश को भी इसी प्रकार ‘मधु’ बताते हैं. फिर कहते हैं, धर्म और सत्य समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है. फिर मनुष्य को भी इसी प्रकार मधु बताते हैं. मधु अनुभूति राष्ट्र को मधुमय बनाने की अभीप्सा है. यह मधुमती है. मधुमयता हमारे पूर्वजों की आकांक्षा है. यह भौतिक जगत् का माधुर्य है, दर्शन में मधुमय सत्य है, और अंतत: संपूर्णता है. मनुष्य इसी विराट मधु जगत् की मधु इकाई है. मनुष्य को मधुमय होना चाहिए.
राजनीति राष्ट्र निर्माण का मधुमय अधिष्ठान है. राजनीति को भी मधुमय होना चाहिए.
सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं. हम सब प्राणी, वनस्पतियां, औषधियां और सभी जीव भी उन्हीं के. ऋग्वैदिक ऋषि निवेदन करते हैं, हम सब विषभाग को सूर्य किरणों के पास भेजते हैं. वे इस विष से प्रभावित नहीं होते. मधुविद्या विष को अमृत बनाती है. बताते हैं, अनेक पक्षी विषैले फल खाकर भी प्रभावित नहीं होते. सूर्य विष निवारण करते हैं. मधुविद्या विष को अमृत बनाती है. विष और अमृत वस्तुत: मृत्यु और अमरत्व के प्रतीक हैं. संसार में सबका सहअस्तित्व है. जैसे विष सत्य है, वैसे ही अमृत भी सत्य है. मृत्यु सत्य है, अमृतत्व भी सत्य है. पक्ष सत्य है, विपक्ष भी सत्य है. सहमति का मूल्य है और असहमति का भी. असहमति के प्रकटीकरण में विष नहीं, अमृत भाव चाहिए. विष पीकर शिव होने जैसा प्रगाढ़ भाव.
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