ज्ञान-परंपरा की सदियों पुरानी थाती

Last Updated 29 Aug 2015 12:27:37 AM IST

हाल ही में प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के बूते हमने दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध पेटेंट की लड़ाई जीती है.


ज्ञान-परंपरा की सदियों पुरानी थाती

पहली ‘कुल्ला’ करने के पारंपरिक तरीकों को हथियाने के परिप्रेक्ष्य में कोलगेट पामोलिव से और दूसरी आयोडीन युक्त नमक उत्पादन को लेकर, हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से जीती. दोनों मामलों में विदेशी कंपनियों ने भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों से उत्पादन की पद्धति व प्रयोग के तरीके चुराये थे. भारतीय वैज्ञानिक औद्योगिक अनुसंधान परिषद ने भारतीय पारंपरिक ज्ञान के डिजिटल पुस्तकालय से तथ्यपरक उदाहरण व संदर्भ खोज आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के क्रम में यह लड़ाई लड़ी और जीती.

इस कानूनी कामयाबी से साबित हुआ है कि भारत की पारंपरिकता सदियों से भविष्य दृष्टा रही है. प्राकृतिक संपदा के उपयोग और उपभोग को लेकर हजारों वर्ष पूर्व हमारे मनीषियों ने  आचार संहिता निर्मित कर दी थी क्योंकि इसके दीर्घकाल तक सुरक्षित रहने में ही प्राणी जगत की शातता व आर्थिक संवृद्धि का मूल-मंत्र छिपा था. यही वजह रही कि लंबे कालखंड तक भारत फसलों, मसालों, खनिज, वस्त्र, चिकित्सा पद्धातियों और विभिन्न तकनीक का उत्पादक व निर्यातक देश बना रहा.

जावित्री से कुल्ला करने और आयोडीन युक्त नमक बनाने की पद्धतियों को विदेशी कंपनियों द्वारा हड़पने की मंशा को पारंपरिक ज्ञान से चुनौती देने की कानूनी प्रक्रिया ने तय कर दिया है कि हमारी ज्यादातर ज्ञान प्रणालियां विज्ञान की कसौटी पर खरी हैं. पेटेंट संबंधी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अदालतों में अपने साक्ष्य की मजबूती के लिए प्रस्तुत ज्ञान प्रणालियों से साबित हुआ है कि स्वदेशी प्रौद्योगिकी कितनी महत्वपूर्ण है. भारतीय औद्योगिक अनुसंधान परिषद जीत हासिल करने के बाद इसे ‘मेक इन इंडिया’ अभियान से जोड़कर देख रही है.

प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा, कृषि और गोवंश थे. प्राकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय, शुद्ध और पवित्र जल स्रेत थे. हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव-विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और ऋतुओं के अनुकूल पोषक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी. मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पौष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी. इसीलिए नदियों के किनारे और वन प्रातंरों में मानव सभ्यता और भारतीय संस्कृति विकसित हुई. आहार की उपलब्धता सुलभ हुई तो सृजन और चिंतन के पुरोधा सृष्टि के रहस्यों की तलाश में जुट गए.

आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषि-मनीषियों ने नए-नए प्रयोग किए कृषि फसलों के विविध उत्पादनों से जुड़ी. फलत: अनाज, दलहन, चावल और मसालों आदि की हजारों किस्में प्राकृतिक रूप से फली-फूलीं. मनीषियों ने प्रकृति और जैव-विविधता के उत्पादन तंत्र की विकास सरंचना और प्राणी जगत के लिए उपयोगिता की वैज्ञानिक समझ हासिल की. इनकी महत्ता और उपस्थिति दीर्घकालिक बनी रहे, इसलिए धर्म व अध्यात्म के बहाने अलौकिक तादात्म्य स्थापित कर इनके भोग के लिए उपभोग पर व्यावहारिक अंकुश लगाया.

दूर दृष्टा मनीषियों ने हजारों साल पहले ही लंबी ज्ञान-साधना व अनुभवजन्य ज्ञान से जान लिया था कि प्राकृतिक संसाधनों का कोई विकल्प नहीं है. वैज्ञानिक तकनीक से हम इनका रूपांतरण  तो कर सकते हैं, किंतु तकनीक आधारित ज्ञान के बूते प्राकृतिक स्वरूप में पुनर्जीवित नहीं कर सकते? तमाम दावों के बावजूद क्लोन से अब तक जीवन का पुनरागमन नहीं हुआ है. गोया, हमारी कृषि व गौवंश आधारित अर्थव्यस्था उत्तरोत्तर विकसित व विस्तारित हुई. विकास का समावेशी रूप बना रहा. अपढ़ भी गरिमा के साथ स्वावलंबी रहा और हम अर्थ व वैभव संपन्न हो सोने की चिड़िया कहलाए.

कथा-सरित्सागर व जातक कथाओं में समुद्र व हिमालय पार व्यापार की कथाएं भरी पड़ी हैं. ईस्वी संवत की दूसरी से लेकर ग्यारह-बारहवीं सदी तक भारतीयों के लिए व्यापारिक स्थितियां अनुकूल थीं लेकिन मंगोल,अरबों व तुर्कों के आक्रमण से देश की समृद्धि लुटेरों की लूट का पर्याय बनकर रह गई. बाद में अंग्रेज आर्थिक दोहन में लग गए और जनपदों में बंटे, भोग-विलास में डूबे और मुगल शासकों से भयभीत हमारे सामंत उनका प्रतिरोध करने के बजाए सहयोगी बन गए.

अंग्रेजों ने कुटिलता से देश की संपदा व समृद्धि दोनों का दोहन योजनाबद्ध तरीके से किया. वह  ‘फूट डालों राज करो’ की विभाजनकारी मानसिकता के ऐसे बीज बो गये कि आजादी की उपलब्धता के साथ देश तो बंटा ही, सांप्रदायिक कुरूपता ने सांस्कृतिक समरसता का क्षय कर दिया. अंग्रेजों ने लोक में व्याप्त भारतीय ज्ञान परंपरा व गुरुकुल शिक्षा पर अंग्रेजी शिक्षा थोप इसे क्रमबद्ध तरीके से नष्ट करने की नींव डाली. वहीं, सांस्कृतिक विरासत आमजन के लिए महत्वहीन हो जाए, इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य को आध्यात्मिक साहित्य की संज्ञा दे ज्ञान-विज्ञान के सूत्र को पूजा की वस्तु बना देने की रणनीति चल दी. इन धूर्त उपायों को हमने विन्रम भाव से स्वीकार भी लिया.

जबकि हमारे वेद उपनिषद तात्कालिक विश्व ज्ञान के कोश हैं. रामायण और महाभारत ऐतिहासिक कालखंडों की सामाजिक भौगोलिक, राजनीतिक,आर्थिक व युद्ध कौशल के वस्तुपरक चित्रण हैं. 18 पुराण ऐतिहासिक क्रम में शासकों की समकालीन गाथाएं हैं. आयुर्वेद व पातंजलि योग, औषधीय व शारीरिक चिकित्सा शास्त्र हैं. कौटिल्य का अर्थषास्त्र और वात्स्यायन का कामसूत्र अर्थ और काम-विषयक अद्वितीय व मौलिक ग्रंथ हैं.

चार्वाक के दर्शन ने हमें प्रत्यक्षवाद दिया, जो समस्त ईश्वरीय अवधारणाएं नकारता है. ये ग्रंथ ज्ञान और संस्कार के ऐसे उपाय थे, जिन्हें आचरण की थाती बना समाज, संपदा के दुरुपयोग और माया-मोह से दूरी बनाए रखकर प्रकृति को प्राणी जगत के लिए उपयोगी समझता रहा. बुद्ध,महावीर और गांधी दर्शन में भी यही असंचयी भाव है. गोया, विदेशी कंपनियों से लड़ाई जीतने के बाद तय हो गया है कि बौद्धिक संपदा पर अधिकार के प्रमाण हमारी पारंपरिक ज्ञान पद्धातियों में सुरक्षित है. लिहाजा इस ज्ञान को फिर से लोक में स्थापित करने की जरूरत है.

प्रमोद भार्गव
लेखक


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