जनगणना बनाम चुनावी गणना

Last Updated 28 Aug 2015 12:44:58 AM IST

इतिहासकारों की एक जमात का यह मानना है कि अंग्रेजों ने भारत में जनगणना की शुरुआत करके ही इसे जाति और धर्म के आधार पर बांटना शुरू किया जिसका अंतिम नतीजा देश का बंटवारा था.


जनगणना बनाम चुनावी गणना

पर यह तर्क उससे ज्यादा जोर-शोर से दिया जाता है कि आंकड़ों और सांख्यिकी की जिस प्रणाली और व्यवस्था की नींव अंग्रेजों ने हमारे यहां रखी, अगर वह न होती तो हम आंकड़ों और उसके हिसाब से योजना बनाने और अपने संसाधनों का लोगों के समूहों की जरूरत के अनुसार बंटवारा करने की प्रणाली ही विकसित नहीं हो पाती. चीन समेत कई बड़े देश आज इस तरह की कमी या आंक ड़ों की अविश्वसनीयता से जूझ रहे हैं.

आज जातिवार आकड़ों की मांग और अब धार्मिंक आधार पर जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद की राजनीति से पहला डर तो साफ लग रहा है, पर दूसरी चर्चा दब-सी गई है. आंकड़ों का इस्तेमाल हम कमजोर और पिछड़ी जमातों के लिए चल रही नीतियों में बदलाव और संसाधनों के पुनर्वितरण के लिए करेंगे यह बात आज भुला दी गई है और सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति के लिए जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल हो रहा है.

इस बार यानी 2011 की जनगणना में नई सूचना तकनीक का प्रयोग खुलकर हुआ था, सो जब जनगणना खत्म होने के चंद दिनों बाद ही उसके प्रारंभिक आंकड़े जारी हुए तो सबको एक सुखद एहसास हुआ. पर जानकार लोगों को थोड़ी हैरानी हुई कि जनगणना के धार्मिंक आंकड़े क्यों सामने नहीं आए, जबकि लोगों के धर्म वाली जानकारी सदा से ली जाती थी और जनसंख्या की तरह उसे भी बता देना आसान काम था. तब बहाना बनाया गया कि विवरण अभी जुटाया जा रहा है.

फिर यह खबर उड़ती रही कि हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर और मुसलमानों की आबादी के वृद्धि दर में बहुत अंतर दिखने से शुरु आती अनुमान को भी रोक दिया गया है. पर बाकी पूरा डिटेल भी लगभग डेढ़ साल पहले तैयार हो गया था, लेकिन पिछली सरकार ने लोकसभा चुनाव में धार्मिंक ध्रुवीकरण के डर से इसे जारी नहीं किया.  अब जब इसे जारी किया गया है तो फिर बिहार चुनाव और आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी के हिसाब से महत्वपूर्ण पश्चिम बंगाल और असम के भी चुनाव होने वाले हैं और केंद्र की भाजपा सरकार पर इस आंकड़े का चुनावी लाभ लेने का आरोप पहले दिन से लगने लगा है.
यह सही है कि आबादी की सामान्य दशकीय वृद्धि 18 फीसद की तुलना में मुसलमानों की आबादी 24 फीसद के रफ्तार से बढ़ी है.

पर यह कुल मिलाकर पिछड़ेपन, गरीबी और दकियानूसी का ही नतीजा है, किसी षड्यंत्र का नहीं. और अगर ज्यादा बच्चे हुए हैं तो उन्हें पालने और उनका पेट भरने की जिम्मेवारी भी उनको पैदा करने वालों पर है. जनसंख्या विज्ञान यह साफ कहता है कि जनसंख्या तीन प्रवृत्तियों के चक्र में बढ़ती है. पहला दौर वह होता है जिसमें जन्म दर और मृत्यु दर, दोनों अधिक होती है. दूसरे दौर में मृत्यु दर तो कम होने लगती है लेकिन जन्म दर ऊंची रहती है, जो संभवत: व्यवस्था पर अविश्वास और अपनी जरूरतों के बच्चों से ही पूरी होने के भरोसे के चलते होता है.

तीसरा दौर जन्म दर और मृत्यु दर, दोनों में कमी आने का होता है और आज के अधिकांश विकसित देशों में तो जन्म दर गिरकर ऋणात्मक होने लगी है. अर्थात उन्हें अपनी व्यवस्था और अपने ऊपर भरोसा है. गरीब बच्चों को बुढ़ापे का ही नहीं, सामान्य तरीके से भी घर की आमदनी और कामकाज में मददगार अतिरिक्त हाथ के तौर पर देख जाता है. मुसलमानों में गरीबी और पिछड़ापन तो ज्यादा है ही. संभव है कि आबादी की वृद्धि में परिवार नियोजन और टीकाकरण के बारे में प्रचलित कुछ भ्रांतियों का भी योगदान हो.

पर यह सच्चाई भी है कि गरीब इलाकों, प्रदेशों और अन्य सामाजिक समूहों में भी 24 फीसद या इसके आसपास दशकीय वृद्धि हुई है. जिस बिहार में चुनाव होने जा रहे हैं और जिसके लिए मजहबी गोलबंदी का आरोप लग रहा है, वहां पूरी आबादी में वृद्धि दर 24 फीसद ही रही है- अर्थात वह प्रदेश मृत्यु दर को घटाने में तो सफल रहा है, पर अब भी वहां जन्म दर काफी है. मुसलमानों की आबादी भी सभी जगह समान रफ्तार से नहीं बढ़ी है. जिन इलाकों में ज्यादा गरीबी और पिछड़ापन है वहां आबादी की वृद्धि ज्यादा हुई है. यह भी है कि अगर केरल के एक जिले, मामल्लपुरम में आबादी औरों से तेज बढ़ी है तो वह मुस्लिम बहुल होने के साथ राज्य का सबसे गरीब जिला भी है.

जिस बिहार के चुनाव से इस घोषणा को जोड़ा जा रहा है उसकी कुल आबादी भी 2001 से 2011 के बीच 24 फीसद बढ़ी है. तो अगर पिछड़े बिहार को विशेष पैकेज की जरूरत है और प्रधानमंत्री इसे दे रहे हैं, तो उन्हें पिछड़े और कमजोर मुसलमानों के लिए भी इसी तरह का पैकेज घोषित करना चाहिए. इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर में लगभग पांच फीसद की गिरावट आई है और यह 29 फीसद से कम होकर 24 फीसद पर आ गई है. उससे पहले यह 32 फीसद के ऊपर थी. इसलिए इन तीन आंकड़ों से तो वह डर नहीं बनना चाहिए जिसे दिखाने की कुछ लोगों द्वारा कोशिश हो रही है.

अब हिंदुओं को इस वृद्धि से डरना चाहिए या जाने किस साल तक मुसलमान हिंदुओं से आगे निकल जाएंगे, जैसे तकरे पर ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं है. न ही इस प्रचार का कोई मतलब है कि धर्म की ‘रक्षा’ के लिए हिंदू ज्यादा बच्चे पैदा करें. पर अनुपात के हिसाब से हिंदुओं का अस्सी फीसद से नीचे आ जाना एक नया माइलस्टोन तो है ही. फिर यह जानकारी भी महत्वपूर्ण है कि अल्पसंख्यकों का शहरीकरण ज्यादा है. अगर सामान्य शहरीकरण 29 फीसद है तो मुसलमानों में यह 40 फीसद और जैनियों में 80 फीसद तक है. यह सूचना भी महत्वपूर्ण है कि सिख लैंगिक संतुलन के हिसाब से सबसे कमजोर धार्मिंक समूह हैं. यह मामला सिर्फ लड़के-लड़की के अनुपात तक ही नहीं रुकता, लड़की या औरत के पूरे जीवन को भी प्रभावित करता है. उल्लेखनीय है कि लैंगिक अनुपात के मामले में मुसलमानों का रिकॉर्ड राष्ट्रीय औसत से बेहतर है.

यह बात भी दिलचस्प है कि ईसाइयों की आबादी का आधा हिस्सा दक्षिण के चार राज्यों में रहता है और उनकी आबादी का अनुपात जस का तस बना हुआ है. और यह चीज शायद प्रचार करने वाली है कि जनगणना में जिन लोगों ने अपना मजहब नहीं बताया ऐसे लोगों की संख्या में लगभग तीन सौ फीसद की वृद्धि 2001 से 2011 के बीच हो गई है. सो अब अगर कोई चुनाव देखकर धार्मिंक आंकड़े जारी करता है या इन आंकड़ों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराना चाहता है तो उसे सोचना होगा कि वह क्या कर रहा है. कुल मिलाकर जनगणना के आंक ड़े और आबादी के विकास की दिशा उम्मीद बढ़ाने वाले हैं. आज लोगों का मतलब बोझ मानने के दिन लद गए हैं. आज जितने लोग मतलब उतने कामकाजी हाथ.

अरविंद मोहन
लेखक


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