खतरे में प्रकृति मित्र हाथी का अस्तित्व

Last Updated 28 Aug 2015 12:40:36 AM IST

दावे कुछ भी किये जाएं लेकिन असलियत यह है कि हाथी दांत का कारोबार पिछले 26 सालों से जारी प्रतिबंध के बावजूद थमा नहीं है.


खतरे में प्रकृति मित्र हाथी का अस्तित्व

समूचे विश्व में रोजाना 104 और हर साल चार हजार अफ्रीकी-एशियाई हाथी मारे जा रहे हैं. पशुओं के कल्याण हेतु बनी अंतरराष्ट्रीय कोष रिपोर्ट में कहा गया है कि अब समय आ गया है कि यूरोपियन यूनियन व कन्वेशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इनजेंडस स्पाइसेंस हाथी दांत के अवैध व्यापार का विरोध करें. भले 1989 में हाथी दांत के व्यापार पर प्रतिबंध लगा और कुछ समय के लिए हाथियों के शिकार में भी कमी देखी गई लेकिन 90 के दशक के उत्तरार्ध में हाथियों के शिकार में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई जो आज भी जारी है.

हमारे यहां कुख्यात तस्कर वीरप्पन के मारे जाने के बाद आशा बंधी थी कि हाथियों के शिकार में कमी आएगी लेकिन यह सिलसिला जारी है. नतीजन हाथियों के लिंग-अनुपात में भारी असंतुलन पैदा हो गया है. चार हथिनियों पर एक हाथी की जगह अनुपात 30-40 हथिनियों पर एक हाथी का होकर रह गया है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में एशियाई हाथीदांत की मांग सबसे ज्यादा है. एशियाई हाथी दांत पर नक्काशी आसानी से होती है और वह फटता भी नहीं है. इसकी चीन, जापान, थाइलैंड, नामीबिया आदि देशों में सबसे ज्यादा मांग है. यही कारण है कि बड़ी संख्या में हाथी शिकारियों के हत्थे चढ़ रहे हैं.

वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार समूचे विश्व में 45 हजार के करीब हाथी बचे हैं. इनमें सबसे ज्यादा 27 हजार भारत में हैं. इनमें वयस्क हाथियों की तादाद तकरीब 1500 के आसपास है. भारत में उत्तर-पूर्वी हिस्सों में इनकी तादाद सबसे ज्यादा है. इसके बाद दक्षिण में कर्नाटक के कोडगू और मैसूर के बीच 643 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला नागरहोल पार्क हाथियों का पसंदीदा आवास है. इसके दक्षिण-पश्चिम में केरल की व्यानाद सेंचुरी है. देश के पश्चिमी भू-भाग में काब्रेट-सोनानदी-राजाजी क्षेत्र एशियाई हाथियों के प्रमुख इलाके के रूप में जाना जाता है.

एशियाई हाथी को संकटग्रस्त वन्य जीवों की श्रेणी में शामिल किये जाने के मद्देनजर सरकार ने इनके सरंक्षण हेतु आठवीं पंचवर्षीय योजना में अलग से प्रावधान किया था. सरकार की मानें तो वर्ष 91-92 से ही हाथी परियोजना पर काम चालू है फिर भी इनकी तादाद कम होते चला जाना उसके नाकारेपन को ही दर्शाता है. हाथियों की शरणस्थली-जंगलों के बीच रेल लाइन का होना भी इनके लिए अभिशाप बन गया है क्योंकि देखा गया है कि हर साल इसकी चपेट में आने से पांच-दस हाथी बेमौत मर जाते हैं.

हाथियों के बिगड़ैल होने या पगलाने की खबरें भी जब-तब आती रहती हैं. दरअसल हाथी ऐसा संवेदनशील प्राणी है जो आकार में बेशक भारी भरकम है लेकिन होता नाजुक मिजाज है. वह न भूख बर्दाश्त कर सकता है, न थकान. वह 24 में से 18 घंटे केवल खाने में गुजार देता है. उसे पीने के लिए अमूमन सौ लीटर पानी और 200 किलो तक पत्तों की जरूरत होती है. ऐसे में यदि उसके कुदरती आश्रय-स्थल जंगलों से छेड़छाड़ होती है और उसकी भूख नहीं मिट पाती है तो वह बिगड़ैल हो जाता है. देश में जहां-जहां जंगलों का कटान हुआ है, वह चाहे दक्षिण में बांदीपुर (कर्नाटक), मधुमलास (तमिलनाडु) हो (गौरतलब है कि यह वह क्षेत्र है जहां देश में पाये जाने वाले हाथियों की 40 फीसद तादाद पायी जाती है) या उत्तराखंड में रामगंगा परियोजना या बांध विस्थापितों के आवास हेतु 1,65,000 एकड़ वन क्षेत्र का उजड़ना, भूख-प्यास से बेहाल हाथी आस-पास के इलाकों में उपद्रव करते ही हैं. देश के दक्षिणी राज्यों का इलाका जो मुख्यत: ‘हाथी प्रोजेक्ट’ के नाम से जाना जाता है, के लोग वैसे तो हाथी की मौत को अपशकुन मानते हैं लेकिन हाथियों से अपने घर-खेतों को बचाने की गरज से उसके मार्ग में गहरी खाई खोदने या फिर बिजली के करंट वाले तारों को बिछाना अपनी मजबूरी बताते हैं. उत्तर पूर्वी राज्यों के लोग धान की फसल और गांवों को बचाने की खातिर हाथियों के शिकार की ताक में रहते हैं.

देश में हाथीदांत की खातिर तो हाथियों को मारा ही जा रहा है- असम,अरुणाचल, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा के पहाड़ी लोग मांस के लिए भी इन्हें मार रहे हैं. यहां हाथी के मांस की मांग ज्यादा है जो 300 से 450 रुपये किलो तक बिकता है. यहां से हाथी का मांस विदेशों में भी भेजा जाता है. हाथी के मांस से दवाई भी बनायी जाती है. पूर्वोत्तर में दीमापुर हाथीदांत की खरीद-फरोख्त का प्रमुख केन्द्र है जहां से इस कारोबार का संचालन होता है. विडम्बना है कि सरकार जानते-समझते हुए भी मौन है. बाढ़ भी हाथियों के लिए जानलेवा साबित होती है. 1988 और 2008 की बाढ़ में असम में हाथियों की मौत हुई लेकिन सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा. 2012 में भी ब्रह्मपुत्र में आयी भीषण बाढ़ के चलते बहुत से हाथी डूबकर मर गए और पानी से घबरा जान बचाने की खातिर जंगल की ओर भागे 8-10 हाथी शिकारियों द्वारा मार दिये गये.

असम में तो हर साल 8-10 हाथी गांव वालों द्वारा ही मार दिये जाते हैं. दक्षिण में कोई साल ऐसा नहीं जाता है जब गर्मी के मौसम में 20-30 हाथियों के शव संदिग्ध हालात में न मिलते हों. असम में अक्सर हाथी बाढ़ के दौरान हिरण तथा वन्य प्राणियों के साथ-साथ ब्रrापुत्र के किनारे बहकर आ जाते हैं जो शिकारियों के हाथ लगने के बाद मार दिये जाते हैं. दुख इस बात का है कि सरकार इस समस्या की गंभीरता को नहीं समझ रही है. हाथियों के आश्रयस्थल कहे जाने वाले देश के उत्तर-पूर्वी व दक्षिणी वन क्षेत्र के आसपास बेतहाशा बसावट रोकने की कोई कोशिश नहीं हो रही है. पिछले एक दशक में यहां आबादी तेजी से बढ़ी है. यहां ज्यादातर लोग हाथियों के शिकार व उनके सींगों की तस्करी के कारोबार में संलिप्त हैं. खुफिया रिपोर्टें इसका सबूत हैं लेकिन कोई कारगर कदम नहीं उठाया जाता है.

पांच वर्ष पूर्व जब हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया था, तब गजराज संरक्षण प्राधिकरण और स्पेशल टॉस्क फोर्स के गठन का प्रस्ताव था जिस पर आज तक अमल नहीं हुआ है. बैकांक में सम्पन्न पिछले साइटी सम्मेलन में, जिसमें दुनिया के 166 देशों ने भाग लिया था, में एक स्वर से हाथियों के सरंक्षण की दिशा में कारगर कदम उठाने की मांग की गई थी. यही नहीं, उसके बाद भारत में गैर कानूनी हाथी दांत के कारोबार में लिप्त लोगों की गिरफ्तारी के लिए पड़ोसी देशों से उनके संबंध और तस्करी के केन्द्रों की छानबीन का अनुरोध किया गया था लेकिन मौजूदा हालात गवाह हैं कि उसके बाद कुछ नहीं हुआ और यह धंधा बेरोकटोक जारी है. लगता है कि काम सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है. यही वजह है कि आये-दिन हाथी मर रहे हैं, उनकी तादाद घटती जा रही है, वन्य जीव विशेषज्ञ व वन्य जीव संरक्षण से जुड़ी संस्थाएं चिल्ला रही हैं लेकिन सरकार को इसकी कोई चिंता नही है.

ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक


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