अब नहीं चाहिए जहरीली हरित क्रांति

Last Updated 05 Aug 2015 02:36:22 AM IST

पिछले दिनों झारखंड दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दालों की कमी और उनके आयात का मुद्दा उठाते हुए अपील की थी कि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है.


अब नहीं चाहिए जहरीली हरित क्रांति

यह सच है कि खाद्यान्न के समुचित उत्पादन के बिना सवा अरब आबादी वाले हमारे मुल्क में एक बड़ी त्रासदी कभी भी खड़ी हो सकती है, लेकिन नई हरित क्रांति रचते समय ध्यान रखना होगा कि इसके पिछले संस्करण ने अनाज की आत्मनिर्भरता के साथ कुछ ऐसे घाव भी दिए हैं जिन्हें याद रखना होगा. इसे दोहराने की नई कोशिश एक भारी भूल साबित हो सकती है.

आजादी के बाद भी देश में कुछ ऐसे मौके आए हैं जब अकाल ने जनता के सामने भुखमरी के हालात और सरकारों के सामने विकल्पहीनता की स्थितियां पैदा की थीं. जैसे 1955-65 के बीच पड़े अकाल के दौरान देश दाने-दाने को तरस गया था. उस वक्त अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के पास अतिरिक्त अन्न था पर भारत के पास विदेशी मुद्रा नहीं थी. ऐसी विकट स्थिति में अमेरिकी सरकार पीएल-480 नीति के तहत अपना अतिरिक्त गेहूं देने को राजी हो गई थी. पर साथ ही अमेरिका ने भारत की एक मदद और की. उसने अपने मशहूर कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन ई. बोरलॉग को भारत भेजा जो फसलों की नई किस्में विकसित करने के महारथी थे.

अमेरिका यह भी जानता था कि बिजली और सिंचाई के बिना खेती में कोई क्रांति करना संभव नहीं है, इसलिए उसने बांध विशेषज्ञ हार्वे स्टोकम को भारत में भाखड़ा नांगल बांध बनाने के लिए भेजा. इसी दौरान 300 अमेरिकन कृषि वैज्ञानिकों ने भारत में एक दर्जन कृषि विश्वविद्यालय स्थापित करने में मदद की. ये सारी पहलकदमियां भारत में खेतीबाड़ी का एक नया अध्याय रचने में सफल रहीं, जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना गया. हरित क्रांति का एक नतीजा 1978-79 में यह निकला कि देश में 131 मिलियन टन का रिकॉर्ड अनाज उत्पादन हुआ. इससे भारत दुनिया में बड़ा कृषि उत्पादन करने वाला देश बन गया. इस दौर में भारत अनाज आयातक की बजाय निर्यातक बन गया.

पिछले कुछ दशकों में हरित क्रांति के जो करिश्मे हुए, उसी का नतीजा है कि आज हमारे अन्न भंडार भरे हुए हैं. देश पिछले कई वर्षों से रिकॉर्ड अनाज उत्पादन कर रहा है. दालें और अनाज की कुछ जिंसें (किस्में) जरूर विदेशों से मंगानी पड़ रही हैं, पर अभी किसी भीषण अकाल जैसे हालात नहीं हैं. अभी ऐसी कोई स्थिति बनती नहीं दिख रही है कि देश में एक बार फिर ‘जय जवान, जय किसान’ का उद्घोष करते हुए देशवासियों से एक वक्त का भोजन छोड़ने की अपील की जाए. जो देश एक दौर में ‘शिप टू माउथ’ जैसा मुहावरा जहाजों में लदकर आने वाले अमेरिकी गेहूं का मोहताज बनकर साकार कर रहा था, आज गेहूं और चावल की बेहतरीन किस्में पैदा कर रहा है.

यह सब उसी हरित क्रांति का परिणाम है जिसकी नींव नॉर्मन बोरलॉग के प्रयासों से देश में रखी गई थी. डॉ. बोरलॉग ने मैक्सिको में बीमारियों से लड़ सकने वाली गेहूं की एक नई किस्म विकसित की थी. असल में जापानी गेहूं की एक बौनी किस्म अमेरिका के सैन्य सलाहकार डी. सी. सामन ने अपने देश भेजी थी, जिसका संकरण बोरलॉग ने विकसित की गई फफूंद प्रतिरोधी गेहूं किस्मों के साथ कराया था. इससे गेहूं की कुछ चमत्कारिक अर्ध-बौनी किस्में पैदा हुई, जिन्होंने गेहूं क्रांति को जन्म दिया था. इसके ठीक बाद चावल उत्पादन क्षेत्र में भी क्रांति हुई. ये प्रयोग बड़े पैमाने पर भारत में किए गए. इस तरह कुल मिलाकर हमारे देश में हरित क्रांति आई और इससे भुखमरी का समाधान हो सका.

पर देश की खेतीबाड़ी का नक्शा बदलने वाली इस हरित क्रांति का एक सच और है. बेशक, 1968 में देश की आबादी 1947 के मुकाबले करीब डेढ़ गुनी हुई, पर इस क्रांति की वजह से गेहूं उत्पादन तीन गुना बढ़ा और नब्बे का दशक आते-आते देश अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया. पर इस क्रांति में एक बड़ा योगदान कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल और जमीन से ज्यादा पानी सोखने वाली फसलों का रहा.

ये फसलें ऐसी थीं जिन्होंने आगे चलकर जमीन को ही दूषित नहीं किया, बल्कि इंसानी शरीर में भी कैंसर जैसे रोगों की जमीन पैदा कर दी. डॉ. बोरलॉग इससे संबंधित आरोपों के बारे में कहते थे कि भूख से मरने की बजाय ऐसा अनाज खाकर मर जाना ज्यादा अच्छा है, पर दुनिया आज उनके इस मत से ज्यादा सहमत नजर नहीं आती. फसलों में कीटनाशकों और रासायनिक खादों के कारण जो नुकसान मनुष्यों और जमीनों को हो रहा है, उसके मद्देनजर गुजरे दौर की हरित क्रांति को बड़े खलनायक के रूप में ज्यादा देखा जा रहा है.

असल में भारत समेत एशिया के कई अन्य देशों और लैटिन अमेरिका में जो हरित क्रांति 60-70 के दशक में शुरू हुई थी, उसका एक आधार ज्यादा पानी मांगने वाली फसलों का विकास और कीटनाशकों व रासायनिक खादों का अतिशय इस्तेमाल था. इन चीजों ने एक ओर जमीन की स्वाभाविक क्षमता को नुकसान पहुंचाया तो दूसरी तरफ हमारी धमनियों में ऐसे खतरनाक रसायन पहुंचा दिए जो लोगों में कैंसर आदि खतरनाक बीमारियां पैदा कर रहे हैं और लोग असामयिक मौत मर रहे हैं.

पंजाब में डीडीटी आदि कीटनाशकों के असर से वहां के कई किसान परिवारों की पीढ़ियां तबाह हो गई हैं. पर्यावरणवादी संस्था सीएसई के अध्ययन में पाया गया है कि पंजाब के 25 गांवों में ही अध्ययन में शामिल परिवारों के 65 फीसद लोगों ने जेनेटिक उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) की शुरुआत हो चुकी है. सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कीटनाशक-अवशेषों की यह मात्रा इंसानों में पहुंचने वाली सामान्य व अहानिकर मात्रा के मुकाबले 158 गुना ज्यादा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की फूड एंड एग्रीकल्चर इकाई ने मनुष्यों में कीटनाशकों की उपस्थिति के जो मानक तय किये हैं, सीएसई के मुताबिक उनके मुकाबले यह मौजूदगी 158 गुना ज्यादा थी.

हरित क्रांति के इतने संहारक रूप को देखते हुए कायदे से अब खेती में कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल बंद हो जाना चाहिए. पर वस्तुस्थिति यह है कि फिलहाल पूरी दुनिया के किसान करीब 25 लाख टन रसायन कीटनाशक और खाद के रूप में धरती पर उड़ेलते हैं. इस जरूरत के चलते दुनिया में सालाना 35 करोड़ डॉलर का व्यवसाय करने वाली जो रासायनिक खाद व कीटनाशक कंपनियों का कारोबार स्थापित हुआ है, वे तो कभी नहीं चाहेंगी कि इन केमिकल्स का छिड़काव किसी भी सूरत में बंद हो.
हालांकि अब बायोटेक्नोलॉजी की मदद से फसलों का उत्पादन बढ़ाना संभव हो गया है.

इस बारे में ब्राजील का उदाहरण दिया जाता है जिसने उत्पादन बढ़ाने के लिए कीटनाशकों या रासायनिक खादों का सहारा नहीं लिया. उसने गन्ने और सोयाबीन की फसल रसायनों के इस्तेमाल के बिना बढ़ाकर दिखाई है. सच तो यह है कि कीटनाशकों और रासायनिक खादों का जहर अंतत: पर्यावरण और इंसान, दोनों की सेहत पर असर डाल रहा है. इसलिए इसकी काट ढूंढ़नी ही होगी. यह भी ध्यान रखना होगा कि कीटनाशकों-रसायनों के बल पर रची गई हरित क्रांति में छोटे किसानों का कोई भला नहीं हुआ था. वे तो आज भी हल-बैल और पारंपरिक खेती के तौर-तरीकों पर आश्रित हैं. इसलिए नई हरित क्रांति का आह्वान धरती और इंसान, दोनों की सेहत का ख्याल रखने पर केंद्रित नजरिए के साथ होना चाहिए.

अभिषेक कुमार
लेखक


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