तू डाल-डाल, मैं पात-पात, पर देश साफ

Last Updated 04 Aug 2015 12:34:33 AM IST

पिछले दो सप्ताह से संसद में नया खेल खेला जा रहा है. विपक्ष सत्ता पक्ष की सुनना नहीं चाहता है तो सरकार विपक्ष को चीखते-चिल्लाते रहने के लिए विवश कर रही है.


तू डाल-डाल, मैं पात-पात, पर देश साफ

मानसून सत्र आरंभ होते ही जो भविष्यवाणी की गई थी कि संसद का मानसून सत्र शोर-शराबे और नारेबाजी की बलि चढ़ने वाला है, वह लगभग सही साबित हो रही है.

आधा सत्र निकल जाने के बाद जब सरकार को सर्वदलीय बैठक आयोजित कराने की आवश्यकता आ पड़ी है तो इस उम्मीद में नहीं कि वह कांग्रेस को अपनी मांगे वापस लेने या मामलों को केवल बहस से सुलझाने के लिए मनवा सकती है बल्कि इसलिए कि अब तक विरोध करने वाली छोटी क्षेत्रीय पार्टियों को शायद एहसास हो गया होगा कि संसद में सारा कामकाज लटके रहने से सबसे अधिक नुकसान उन्हीं के प्रदेशों का हो रहा है.

दरअसल कांग्रेस के हाथ एक ऐसा हथियार लग गया है जिसकी उपयोगिता वह अपनी सरकार के समय देख चुकी है. विपक्ष द्वारा उसकी सरकार को घोटालों की सरकार के रूप में प्रचारित किया गया था और घोटाले इतने बड़े थे या दिख रहे थे कि आम जनता भी कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों पर लगे आरोपों पर विश्वास करने लगी थी. इसी का नतीजा 2014 के चुनाव नतीजों के रूप में सामने आया. कांग्रेस सब कुछ खोकर वहां तक गिर गई जहां वह लोकसभा में विपक्षी दल की मान्यता भी नहीं पा सकती है. अब जब उसके पास खोने को बहुत कुछ नहीं है और वैसा ही हथियार उसे सत्तापक्ष के विरुद्ध मिल गया है तो उसे कोई बड़ी उपलब्धि के बिना छोड़ना संभव नहीं है.

लेकिन यही बात यूपीए के सहयोगी सभी दलों पर लागू नहीं होती. उनकी चुनावों में वैसी दुर्गति नहीं हुई और न ही भाजपा से टकराने से उन्हें कोई लाभ मिलने वाला है. फिर बहुत से दल हैं जो न इस पाले में हैं और न उस पाले में. उनके क्षेत्रीय हित वहां की सत्तारूढ़ पार्टियों के लिए सवोर्ंपरि हैं. तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस का साथ देने में अभी कोई लाभ है तो मोदी को उलझा कर भाजपा को पश्चिम बंगाल से दूर रखने की कोशिश करना ही है.

भाजपा पहले पश्चिम बंगाल के लिए कोई खतरा थी ही नही, लेकिन पिछले कुछ सालों में पार्टी वहां अपने पांव जमाने में सफल हो गई है. लेकिन ममता बनर्जी को अगर यह आश्वासन मिल जाए कि स्थानीय भाजपा अपने  आक्रामक तेवर कुछ नरम कर दे तो ममता व्यर्थ में राज्य को मिलने वाली आर्थिक मदद के रास्ते में अडंगा नहीं डालेंगी. नवीन पटनायक और जयललिता भी ऐसे ही क्षेत्रीय नेता हैं जिनकी प्राथमिकता अपने-अपने दुर्गों को सुरक्षित रखना है.

सरकार के विरुद्ध वर्तमान जंग में कांग्रेस का सहयोगी दल राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी आरंभ से ही असमंजस में रहा है. शरद पवार महाराष्ट्र में कांग्रेस के सहयोगी भी है और प्रतिस्पर्धी भी. सहयोगी इसलिए हैं कि राज्य में भाजपा शिवसेना की सरकार है. शिवसेना न होती तो शायद महाराष्ट्र में वह भाजपा के साथ सरकार में होती. प्रतिस्पर्धी इसलिए कि शरद पवार की पार्टी केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बनने का सपना देखती रही है. कांग्रेस के पुन: उदय में शायद ही उसकी कोई रुचि हो.

यह स्पष्ट है कि कांग्रेस ने पहले से मन बना लिया था कि मोदी सरकार के खिलाफ वह युद्ध विराम नहीं होने देना चाहती है. उसने सर्वदलीय बैठक पार्टी में भी वही रुख अपनाया और जैसा कि आशंका थी, बातचीत असफल रही. कांग्रेस को लगता है कि इस समरनीति पर चलकर उसे न केवल फिर से जनता के बीच जाने का मौका मिल जाएगा अपितु राहुल गांधी को एक लड़ाकू नेता की छवि दिलाने का भी अवसर मिलेगा, जिसकी जन नेता बनने के लिए उन्हें काफी आवश्यकता है.

सर्वदलीय बैठक से ठीक पहले सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी पर तीखा प्रहार करते हुए वे सारे आरोप दोहराए जो साल भर से पार्टी सत्तारूढ़ दल पर लगाती रही है. कांग्रेस जानती है कि अगर मोदी सरकार आर्थिक क्षेत्र में ऐसे सुधार कर पाती है जिनकी मांग विदेशी निवेशक करते रहे हैं तो देश में रोजगार और उत्पादन में गतिरोध तोड़ने के मामलों में काफी बदलाव आएगा. दोनों ऐसे मुद्दे हैं जिनका सीधा असर आम जनता पर पड़ता है. शिक्षित बेरोजगारी अब बहुत बड़ी समस्या हो गई है.

जिस 65 प्रतिशत नौजवान जनसंख्या की बात मोदी अक्सर करते रहे हैं, उसकी आर्थिक भलाई और प्रगति की उम्मीदें इसी से जुड़ी हैं. कांग्रेस की शिकायत है कि मोदी सरकार पुरानी योजनाओं को ही नया नाम देकर अपना बता रही है. लेकिन बदलते हुए राजनीतिक माहौल में ऐसा हर देश में होता रहता है. योजनाएं किसी एक सरकार के दौरान आरंभ की जाती हैं और पूरी दूसरी सरकार के आने पर ही होती हैं. ऐसा लगता है कि भाजपा की कथित दक्षिणपंथी राजनीति कांग्रेस के लिए अधिक बड़ा खतरा नहीं जितना कि देश में आर्थिक नीति मे बदलाव. आर्थिक मोच्रे पर सफलता मोदी का सबसे बड़ा सम्बल बनेगा इसलिए कई ऐसे विधेयक लटके पड़े हैं जिनका सीधा सम्बंध सरकार की आर्थिक नीतियों से है.

संसद में जो गतिरोध हो रहा है, उसमे नैतिकता खोजना व्यर्थ है. पिछली सरकार के दौरान जब भाजपा विपक्ष में थी, तब लगभग ऐसे ही हालात पैदा हो गए थे. तब संसद में हंगामा करने वाली पार्टी भाजपा और उसके सहयोगी दल थे. वही खेल आज भी खेला जा रहा है. बस केवल भूमिकाएं बदल गई हैं. पहले जहां कांग्रेस थी, आज वहां भाजपा है. आज कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि जो पार्टी तब संसद में काम रोकने को ससदीय परंपरा कहती थी, वही आज उपदेश दे रही है कि विपक्ष असंसदीय काम कर रहा है.

यह सार्वजनिक बहस का विषय होना चाहिए कि इस तरह का निरंतर अवरोध संसदीय कार्य का आवश्यक और नैतिक अंग होना चाहिए कि नहीं और अगर किसी कारण से इसे संसदीय परंपरा बना दिया गया है तो क्या परंपरा को त्यागने की आवश्यकता नहीं आ गई है! दरअसल इस समय विचारणीय प्रश्न यह है कि कांग्रेस इस रणनीति को कितने समय तक चला सकती है! कांग्रेसी नीति निधारकों का समझना होगा कि जब भ्रष्टाचार के मामले पर यूपीए सरकार को घेरा गया था तो वह अपनी पारी के अंतिम चरण में थी. उस अवधि के समाप्त होते ही उसे जनता के सामने आना था. आज मोदी सरकार के पास लगभग चार साल का समय है, किसी राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए.

अगर कांग्रेस यह समझती है कि वह पूरे चार साल तक संसद में गतिरोध का अपना कार्यक्रम चलाती रहेगी तो उसे शायद क्षेत्रीय दलों की राजनीति का अंदाज नही है. क्षेत्रीय दल अपने संसदीय समय को अधिक देर तक बर्बाद होते नहीं देख सकते. वे नहीं चाहेंगे कि उन्हें अपनी समस्याओं को संसद में उठाने का मौका न मिले. वे केंद्र के साथ अपने राज्यों की समस्याओं को सुलझाने के दरवाजे बंद नहीं होने देना चाहेंगे.

ऐसी स्थिति में कुछ ही समय में कांग्रेस को महसूस होगा कि वह संसद में अकेली पड़ गई है और उसके सहयोगी दल उससे कतराने लगे हैं. संसद में नारेबाजी के दृश्यों में अभी से यह स्थिति दिखाई भी देने लगी है. नारे लगाने वाले संसद मे मुश्किल से तीस-चालीस होते हैं, लगभग उतने ही जितने कांग्रेस के सदस्य हैं. लेकिन इसी संभवना को दूसरे कोण से देखें तो और भी दिलचस्प दृश्य बन जाएगा. क्या भाजपा जान बूझकर वहीं स्थिति लाने की कोशिश कर रही है?

जवाहरलाल कौल
लेखक


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