उपयुक्त आर्थिक निर्णय जरूरी

Last Updated 03 Aug 2015 06:00:26 AM IST

ग्रीस के ऋण संकट के बाद चीन के शेयर बाजार संकट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.


उपयुक्त आर्थिक निर्णय जरूरी.

यद्यपि वैश्विक मंदी और चीन संकट से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत कम प्रभावित है, लेकिन भारत को विकास की डगर पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त आर्थिक निर्णय लेने होंगे. साथ ही आर्थिक सुधारों को लागू करना होगा. इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर संस्थागत विदेशी निवेश (एफआईआई) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) दोनों का प्रवाह तेजी से बढ़ते हुए दिखाई दे रहा है. लेकिन हमारे लिए चीन के डूबते हुए शेयर बाजार और पस्त होती हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था से दो बड़े सबक लेने जरूरी हैं. एक, भारतीय शेयर बाजार को बुलबुला होने से बचाना होगा और एफआईआई की जगह एफडीआई को प्राथमिकता देना होगी. दो, लंबे समय से पस्त चल रहे विनिर्माण क्षेत्र की हालत में सुधार और कारोबार क्षेत्र को गतिशील करना होगा.

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा प्रकाशित वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज विकास दर वाली अर्थव्यवस्था है. वर्ष 2015 और 2016 में भारत की विकास दर 7.5 फीसद रह सकती है. जबकि वर्ष 2015 और 2016 में चीन की विकास दर क्रमश: 6.8 और 6.3 फीसद रहने का अनुमान है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था की विकास दर में भी खासी कमी का अनुमान जाहिर किया गया है. वर्ष 2015 में अमेरिका की विकास दर 3.3 फीसद और 2016 में3.8 फीसद रह सकती है. इसी तरह एक अन्य अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि उभरते बाजारों में बड़े निवेश योग्य विकल्पों की कमी के कारण एफआईआई और एफडीआई आकर्षित करने की दृष्टि से भारत अनुकूल स्थिति में है. बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच की जून 2015 रिपोर्ट के मुताबिक उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में एफआईआई के द्वारा निवेश के मद्देनजर भारत पहले क्रम पर है. चूंकि भारत में परिसंपत्तियों का मूल्य अन्य उभरते बाजारों की तुलना में कम है, लाभ की संभावना ज्यादा है और वर्ष 1991 से देश की एफआईआई आवक की नीति भी लगातार उदार बनी हुई है, अत: एफआईआई के कदम भारत की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं.

उल्लेखनीय है कि एफआईआई में विदेशी बैंक, हेज फंड, पेंशन फंड, बीमा कंपनियां, सॉवरिन वेल्थ फंड आदि शामिल होते हैं. ये मूलत: निवेशक नहीं बल्कि ऐसे वित्तीय संस्थान हैं जो दुनियाभर में वैश्विक परिसंपत्तियों में निवेश करते हुए कीमत के अंतर से लाभ अर्जित करते हैं. 1991 में देश में नई आर्थिक नीति के तहत सरकार ने अर्थव्यवस्था एफआईआई के लिए खोल दी थी और तब से अब तक लगातार एफआईआई आवक को उदार बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं. लेकिन कभी भी एफआईआई की आवक की वांछनीयता पर कोई परीक्षण नहीं हुआ. आए दिन हम देखते हैं कि एफआईआई जब अपना धन भारत में पोर्टफोलियो निवेश में लगाते हैं तो शेयर बाजार में उछाल आता है. वहीं जब एफआईआई अपना पैसा निकालते हैं तो शेयर बाजार धड़ाम से गिर जाते हैं.



स्थिति यह है कि शेयर सूचकांकों, विनिमय दर और विदेशी मुद्रा भंडार में तात्कालिक बदलाव स्पष्ट रूप से एफआईआई के कारण हो रहे हैं. एफआईआई का निवेश अल्पकालिक माना जाता है और मनमुताबिक नीतियों के अभाव में बाजार से तुरंत वापस होने का जोखिमपूर्ण स्वभाव रखता है. जुलाई 2015 में चीनी शेयर बाजार में जोरदार गिरावट के बाद यह संकेत उभर रहा है कि भारतीय शेयर बाजार से एफआईआई पूंजी के लौटने की समस्या कभी भी सामने खड़ी हो सकती है.
ऐसे में भारत के लिए एफआईआई की जगह एफडीआई की आवक ज्यादा उपयोगी है. यह भी महत्वपूर्ण है कि भारत में एफडीआई बढ़ने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं. हाल ही में 25 जून को प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की वि निवेश रिपोर्ट 2015 में कहा गया है कि जहां एक ओर वर्ष 2014 में वैश्विक स्तर पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 16 फीसद घटकर 1230 अरब डॉलर रह गया, वहीं दूसरी ओर भारत में विदेशी निवेश 2014 में 22 प्रतिशत बढ़कर 34 अरब डॉलर हो गया. उम्मीद है कि सरकार की मेक इन इंडिया जैसी पहलों के तहत विनिर्माण को बढ़ावा देने से यह रुझान बरकरार रहेगा.  लेकिन अभी देश में एफडीआई बढ़ाने के भारी प्रयासों की जरूरत है. वि बैंक की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 में जहां चीन को कुल वैश्विक  एफडीआई प्रवाह का करीब आठ फीसद प्राप्त हुआ है, वहीं भारत के पास इस प्रवाह का केवल 0.8 प्रतिशत ही आ पाया है.

विदेशी निवेश को आकर्षित करने वाले कई महत्वपूर्ण आधारों का विदेशों में पूरा प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए. देश की विभिन्न परियोजनाओं में एफडीआई की आवक को ऊंचाई देने के  लिए हमें देश में आर्थिक, औद्योगिक और कारोबारी सुधारों को अमलीजामा पहनाना होगा. टैक्स व्यवस्था को सरल बनाना होगा. इन सबके साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की विसनीयता जिस तरह आंशिक तौर पर बहाल हुई है, वह उत्साहपूर्ण गति अगले कुछ वर्षो तक बरकरार रहनी चाहिए ताकि वैश्विक निवेशकों का भरोसा जीता जा सके और उन्हें आस्त किया जा सके. तमाम अनुकूलताओं के बावजूद भारत को वैश्विक मंदी की आशंका के मद्देनजर रणनीतिक प्रयास करने होंगे और अपने आंतरिक बाजार को गतिशील बनाना होगा.

वस्तुत: अर्थव्यवस्था में घरेलू मांग का निर्माण करना देश की प्रमुख जरूरत है. देश में विभिन्न उत्पादों और सेवाओं की मांग कमजोर बनी हुई है. इससे उद्योग-कारोबार की स्थिति अच्छी नहीं है और अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिल पा रही है. ऐसे में अर्थव्यवस्था में उपभोग स्तर बढ़ाने और मांग बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास करने होंगे. चूंकि पहले से बोझ तले दबा प्राइवेट सेक्टर निवेश करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए सरकार को घरेलू मांग के निर्माण के लिए एक ओर उद्योग-कारोबार को प्रोत्साहन देना होगा, वहीं दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए सरकारी निवेश में वृद्धि करनी होगी.

अब देश और दुनिया में भारत की नई प्रोफेशनल पीढ़ी को मंदी की निराशाओं के बीच विकास की नई जरूरत बनाया जाना होगा. युवाओं के कौशल निर्माण का अभियान आगे बढ़ाना होगा. रिजर्व बैंक को भारतीय मुद्रा बाजार पर कड़ी नजर रखनी होगी. बैंकों के बढ़ते हुए एनपीए को रोकना होगा. सरकार को महंगाई के मद्देनजर आपूर्ति तंत्र में सुधार के उपाय सुनिश्चित करने होंगे. उम्मीद है कि सरकार वैश्विक मंदी का मुकाबला करने और मंदी के बीच दिखाई दे रहे मौकों का लाभ लेने के लिए रणनीतिक रूप से आगे बढ़ेगी. साथ ही देश की अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने, एफडीआई की आवक को उदार बनाने तथा एफआईआई की आवक को नियंत्रित करने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी.

 

 

जयंतीलाल भंडारी
लेखक


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